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पुनर्जागरण और छायावाद

छायावाद हिंदी साहित्य का कलात्मक उत्कर्ष है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल और डॉ. नगेंद्र इसका समय 1918 से 1936 मानते हैं। नामवर सिंह और बच्चन सिंह 1920 मानते हैं। सबसे पहले मुकुटधर पांडे ने 1920 में श्री शारदा पत्रिका में हिंदी में छायावाद नामक निबंध प्रकाशित किया इससे यह पता चलता है कि 1920 तक यह नाम प्रचलित हो गया था। मुकुटधर पांडे छायावाद को भाव प्रकाशन का नया मार्ग कहते हुए इसकी विशेषता वैयक्तिक रहस्यवादिता, अस्पष्टता, कल्पनाशीलता और विशिष्ट प्रकाशन रीति बताया है। सरस्वती पत्रिका के जून 1921 में सुशील कुमार के लेख में छायावाद को टैगोर स्कूल की कविता कहा गया है। आचार्य शुक्ल जी ने छायावाद को बंगला कविता और यूरोप की कविता की नक़ल माना है। छायावाद को मधुचर्या कहते हुए वह इसे रहस्यवाद का समानार्थी मानते हैं। इन सब का विरोध करते हुए हजारी प्रसाद द्विवेदी ने हिंदी साहित्य उद्भव और विकास में छायावाद को विशाल सांस्कृतिक चेतना का परिणाम बताया है। महादेवी वर्मा और प्रसाद जी छायावाद को आत्म अभिव्यक्ति मानते हैं। अलग-अलग आलोचकों ने इसकी अलग-अलग परिभाषा दी है। किसी के लिए यह स्थूल के प्रति सूक्ष्म का विद्रोह था तो किसी के लिए आध्यात्मिकता की छाया का भान था। छायावाद को कहीं रहस्यवाद से जोड़ा गया तो कहीं स्वच्छंदतावाद से। वस्तुतः रहस्यवाद अज्ञात के प्रति जिज्ञासा का भाव है और स्वच्छंदतावाद प्राचीन रूढ़ियों से मुक्ति की कामना है। यह दोनों तत्व हमें छायावाद में दिखाई देते हैं। यह दोनों उस का पर्याय नहीं बल्कि उसकी विशेषता हैं। छायावाद नाम व्यंग्य के रूप में दिया गया था जो आगे जाकर रूढ़ हो गया। इसका कारण यह रहा है कि छायावादी साहित्य को समग्र रूप में ना देख कर खंड रूप में देखा गया है। प्राय: आलोचक छायावाद के काव्य पक्ष विशेषकर कुछ कविताओं को देखते हैं। पर वास्तव में छायावादी काव्य जितना समृद्ध है उतना ही इसका गद्य भी स्वर्णिम है।

किसी भी कालखंड को समझने के लिए उसके उदय की पृष्ठभूमि का विशेष महत्व होता है। छायावादी साहित्य के उदय का समय भारतीय पराधीनता का समय रहा है। गाँधीवादी विचारधारा भारतीय जनमानस पर गहरा प्रभाव छोड़ रही थी। जालीयाँवाला बाग हत्याकांड, चौरी चौरा कांड और असहयोग आंदोलन आदि घटनाओं ने परतंत्रता की बेचैनी को और बढ़ा दिया था। विदेशी पराधीनता ने जहाँ भारतीयों में असंतोष का भाव उत्पन्न किया वहीं कुछ सकारात्मकता भी अनायास जुड़ती चली गई। फोन, कार, ट्रेन और प्रेस की स्थापना ने भारतीय लोगों को आपसी संबद्धता में बहुत सहूलियत प्रदान कर दी जिसकी कमी प्रथम स्वतंत्रता आंदोलन में महसूस की गई थी। ब्रिटिश साम्राज्य के द्वारा स्थापित सैंडलर विश्वविद्यालय आयोग ने स्कूली शिक्षा तथा विश्वविद्यालय शिक्षा का नवीनतम ढाँचा प्रस्तावित किया। इसमे स्त्री शिक्षा पर विशेष बल दिया गया। उपेक्षित स्त्री के केंद्र में आने का यह पहला चरण था। शिक्षा के विभिन्न प्रयासों में भारतीय चेतना का विकास किया साथ ही वैश्विक साहित्य का असीम भंडार भी भारतीयों के लिए सुलभ हुआ। वह मार्क्स, लेनिन आदि के विचारों से अवगत ही नहीं हुआ बल्कि प्रभावित भी हुआ। अमेरिकन क्रांति और फ़्रांस की आज़ादी भी भारतीयों में घर कर गई थी।

वैश्विक स्तर पर इन घटनाओं के साथ प्रथम विश्व युद्ध का असंतोष भी इन परिस्थितियों से जुड़ गया था।

आर्थिक दृष्टि से भारतीय पहले ही जूझ रहा था। प्रथम विश्व युद्ध की समाप्ति पर यह वैषम्य और बढ़ गया। भारत का सारा धन ब्रिटिश साम्राज्य का हो जाता था और सामान्य जन आर्थिक अभाव से लगातार जूझ रहा था। उसके परिश्रम का फल उसे नहीं मिल रहा था। कृषक वर्ग इससे सबसे ज़्यादा प्रभावित था क्योंकि भारत कृषि प्रधान देश रहा है। किसानों की इन समस्याओं पर प्रेमचंद आदि ने बहुत लिखा है जिनका सम्बंध इसी काल खंड से रहा है।

सामाजिक स्तर पर भारतीयों का संघर्ष दो स्तरों पर था पहला अँग्रेज़ों से तथा दूसरे स्वयं की सामंतवादी व्यवस्था से। स्त्री का संघर्ष यहाँ एक और स्तर पर था वह आर्थिक रूप से भी प्रताड़ित की जातिगत रूप से भी और पुरुष प्रधान समाज से भी प्रताड़ित की गई थी। पुरुषों के जो संघर्ष के स्तर थे उसके साथ हुई स्त्री को उन संघर्षों के साथ अन्य संघर्ष स्वयं की स्थापना के लिए थे।

धर्म का अंधविश्वास उसकी रूढ़ियाँ आदि धार्मिक वैषम्य पूरे समाज में फैला था। यहाँ भी स्त्री पर भार ज़्यादा था धर्म का निर्वाह उसे ज़्यादा करना था। राजनीतिक और सामाजिक दासता के कारण सांस्कृतिक ख़तरा मँडराने लगा। भारत में हिंदू और मुस्लिम संस्कृति पहले से ही तनावपूर्ण थी ब्रिटिश साम्राज्य के आने के बाद ईसाई धर्म के प्रचार ने भारत की सांस्कृतिक परिदृश्य को झकझोर दिया। मैकाले की शिक्षा नीति में मदरसा और संस्कृत विद्यालय का विरोध था और शिक्षा के पश्चिमीकरण पर बल था। ईसाई धर्म बड़ी तेज़ी से भारत में अपना पैर पसार रहा था।

भारतीयों को एक तरफ़ से वैज्ञानिक तकनीकी आ रही थी शिक्षा के कारण नवीन चेतना का विकास हो रहा था तो दूसरी ओर अपनी संस्कृति अपनी सभ्यता का संकट में दिख रहा था। नए यथार्थ और पुराने संस्कार में सामंजस्य की आवश्यकता महसूस होने लगी। इसीलिए ब्रह्म समाज आर्य समाज जैसी संस्थाओं की स्थापना हुई और समाज को इन सभी परिस्थितियों के अनुसार बनाने का कार्य बुद्धिजीवी वर्ग ने अपने ऊपर लिया जिसमें राजा राममोहन राय, दयानंद सरस्वती, विवेकानंद सभी अग्रणी रहे।

साहित्यिक स्तर पर द्विवेदी युग के आदर्श और इतिवृत्तात्मकता अपने चरम पर होने के कारण एक बेचैनी उत्पन्न कर रही थी। साहित्य वर्ग इस युग की नैतिकता से आक्रांत हो रहा था सामाजिक उपयोगिता पर कितना बल था कि वैयक्तिकता कुंठित हो रही थी।

इस प्रकार से राष्ट्रीय, सामाजिक, राजनैतिक, साहित्यिक और सांस्कृतिक दासता ने एक कुचक्र बना लिया था जिसका परिणाम भारतीय पुनर्जागरण के रूप में हमारे सामने आता है।

पुनर्जागरण की सबसे पहली विशेषता रही है दो संस्कृतियों की टकराहट। भारतीय पुनर्जागरण नई यूरोपीय वैज्ञानिक संस्कृति और पुरानी भारतीय संस्कृति की टकराहट से उत्पन्न हुआ और व्यापक तौर पर शिक्षा परिवार समाज व्यक्ति स्त्री और किसान के संदर्भ में वैचारिक परिवर्तन करते हुए आगे बढ़ा। पुनर्जागरण की सबसे दूसरी विशेषता रही है मध्यकालीनता से आधुनिकता की ओर जाना। पुनर्जागरण की तीसरी विशेषता मनुष्य के संपूर्ण और संश्लिष्ट रूप की खोज रही है। पुनर्जागरण का चौथा वैशिष्ट्य लोक सेवा अर्थात समाज सुधार से जोड़कर राष्ट्रीय भावना अर्थात देश प्रेम का विकास करना।

भारतीय पुनर्जागरण का छायावाद पर पूर्णता प्रभाव पड़ा। सांस्कृतिक दासता से मुक्ति के लिए छायावादी साहित्य अतीत के स्वर्णिम गलियारों से गुज़रता है और राष्ट्रीय दासता से मुक्ति के लिए प्रतीकात्मक रूप से जागरण साहित्य का सृजन करता है। साहित्यिक दासता से मुक्ति के लिए मनुष्य की स्वतंत्रता का पक्ष रखता है जिसे कुछ आलोचक आत्मकेंद्रिता मानते हैं। जिस छायावाद में आध्यात्मिकता की छाया का भान देखा गया वह वास्तव में पुनर्जागरण का साहित्यिक सर्जन है। जहाँ विवेकानंद राजा राममोहन राय आदि ने प्राचीन परंपरा, गौरवशाली इतिहास और युग चेतना को संश्लिष्ट रूप में रखकर सामाजिक और धार्मिक आधार पर पुनर्जागरण किया वहीं साहित्यिक स्तर पर यह कार्य छायावादी साहित्य ने किया।

पुनर्जागरण की पहली विशेषता दो संस्कृतियों की टकराहट रही है इसे आचार्य शुक्ल के शब्दों में विरुद्धों का सामंजस्य कह सकते हैं। छायावाद की प्रतिनिधि रचना कामायनी का मुख्य उपजीव्य देव और असुर संस्कृति की टकराहट और मानवीय संस्कृति के विकास का आख्यान कहती है। साथ कामायनी में वर्तमान जीवन जगत का संकट और उससे बचने की संभावित दिशा का भी चित्रण है जो तत्कालीन होते हुए भी वर्तमान संदर्भ से अनायास ही जुड़ जाता है। देव और असुर संस्कृति की टकराहट मुख्यतः इडा सर्ग में होती है फिर देव और असुर संस्कृति से नई मानवीय संस्कृति का विकास मानव के रूप में होता है जो अपनी नश्वरता में भी सर्जनात्मक है अपनी नवीन इहलौकिक दृष्टि के साथ।

कामायनी का यह सांस्कृतिक संघर्ष पुनर्जागरण में सांस्कृतिक संघर्ष के अर्थ के स्तर पर आता है। यहाँ टकराहट भारतीय और पाश्चात्य संस्कृति की है। और नवीन संस्कृति का प्रतीक भारतीय स्वतंत्रता और व्यक्ति स्वातंत्र्य है। इसी भाव बोध को निराला की कविता तुलसीदास और ख़ूबसूरती से उभारती है। यहाँ भी संस्कृतियों और विचारधाराओं का संघर्ष है जो राष्ट्रीय जीवन के सांस्कृतिक संदर्भ और स्वयं निराला के वैयक्तिक स्तर पर भी बड़ी सूक्ष्मता से व्याख्या करता है। वह कहते हैं–

भारत के नभ के प्रभापूर्य
शीतलाच्छाय सांस्कृतिक सूर्य
अस्मित आज रे तमस्तूर्य दिग्मंडल
उर के आसन पर शिस्त्राण
शासन करते हैं मुसलमान

तुलसीदास के समय दो संस्कृतियों टकराहट यवन और भारतीय था। निराला जी ने तुलसीदास में सांस्कृतिक ही नहीं मनोवैज्ञानिक और सर्जनात्मक पक्ष को भी बड़ी सुचिता से चित्रित किया है। अंत में रत्नावली के व्यक्तित्व में देवी भारती का रूपांतरण अपनी संस्कृति और प्रणय दोनों भाव को नई भूमि पर व्याख्या करता है। राम की शक्ति पूजा का अंत भी इसी प्रकार से है वहाँ भी दो संस्कृतियों की टकराहट के बीच वैयक्तिक प्रणय का चित्रण है और शक्ति का राम के बदन में लीन हो जाना प्रतीक है शक्ति के स्वयं का भीतर होना। वस्तुतः यह शक्ति आंतरिक है साथ ही मौलिक और नवीन भी है। तभी तो निराला जी कहते हैं शक्ति की करो मौलिक कल्पना। एक तरफ़ यह पंक्ति परतंत्र देश की स्वतंत्रता के लिए संदेश देती है तो दूसरी तरफ़ प्रेम की स्वतंत्रत अभिव्यक्ति देती है।

मनु, राम और तुलसी की हताशा सामान्य मनुष्य और स्वयं कवि की भी हताशा का प्रतीक है जो भारतीय पराधीनता से जुड़ता है ठीक उतना ही जितना व्यक्तिगत पराधीनता से जुड़ता है।

छायावाद में यह शक्ति सिर्फ़ वैयक्तिक या राष्ट्रीय स्तर तक ही सीमित नहीं रहती बल्कि वैश्विक स्तर पर मानवतावादी दृष्टिकोण का निर्माण करती है। प्रसाद कहते हैं–

शक्ति के यह विद्युतकण जो व्यस्त
विकल बिखरे हैं हो निरूपाय
समन्वय उसका करें समस्त
विजयिनी मानवता हो जाय

यहाँ पर राष्ट्र जागरण के साथ समग्र चेतना के जागरण का आह्वान है। जो अपने अंदर निहित शक्ति के विकास का रचनात्मक उपक्रम है। वैयक्तिक जागरण के साथ यह राष्ट्रीय जागरण और उससे भी आगे सांस्कृतिक जागरण का प्रतीक है। प्रसाद कहते है कि–

जगे हम, लगे विश्व जगाने
लोक में फैल रहा आलोक
व्योम तक पुँज हुआ तब नष्ट
अखिल संसृति हो उठी अशोक

पुनर्जागरण की दूसरी विशेषता रही है मध्यकालीन जड़ता से मुक्ति और नवीन इहलौकिक दृष्टि। मध्यकालीनता का यहाँ व्यापक अर्थ है मध्यकालीनता इतिहास या समय द्योतक नहीं बल्कि अर्थ द्योतक है। छायावाद द्विवेदी युग की इतिवृत्तात्मकता, उसकी स्थूलता के विरोध में खड़ी होती है। द्विवेदी युग का आदर्श छायावाद में नहीं है। संन्यास वैराग्य तपस्या आदि बातें यहाँ नहीं है बल्कि जीवन और शरीर का महत्व है। मनुष्य यहाँ मनुष्य के रूप में चित्रित है ईश्वर के रूप में नहीं। पंत कहते हैं–

मैं कृतार्थ हूँ देह तृणों के लघु दोने में

हमारी संस्कृति में शरीर और संसार की महत्ता पुन: स्थापित करने में छायावाद का केंद्रीय योगदान है। पर विडंबना यह है कि उसे अतींद्रिय अनुभव और कल्पना लोक से जोड़ दिया गया और छायावाद का सही मूल्यांकन प्रभावित हुआ। हमें ध्यान रखना चाहिए कि कल्पना का प्रयोग प्रेम और शरीर तथा संसार के लिए प्रयुक्त हुए हैं जो पूर्ववर्ती काव्य में नहीं रहे। प्रसाद भी कहते हैं–

काम मंगल से मंडित श्रेय सर्ग
इच्छा का है परिणाम

मध्यकाल में संसार एक पचड़ा था, स्त्री एक बाधा थी और प्रेम ईश्वर को प्राप्त करने का एक माध्यम था। छायावाद में प्रेम स्वतंत्र है, स्त्री एक मानवीय है और संसार जीवन जीने के लिए बना है। छायावाद में प्रेम अहम का बलिदान है। मध्यकाल में प्रेम की कसौटी तपस्या रही है और छायावाद में आत्म पीड़ा। तभी तो महादेवी वर्मा कहती हैं–

तुमको ढूँढ़ा पीड़ा में तुममें ढूँढ़ूँगी पीड़ा

पुनर्जागरण की तीसरी विशेषता मनुष्य के संपूर्ण और संश्लिष्ट रूप की खोज है। इसका प्रारंभ वैयक्तिकता से प्रारंभ होता है। द्विवेदी युग का सामाजिक आदर्श छायावाद में नहीं है। बल्कि वैयक्तिक आदर्श हैं जिसे लोगों ने आत्म प्रसार कह कर आलोचना की है। यहाँ आत्म प्रसार व्यक्ति से शुरू होकर जाति देश और फिर वैश्विक स्तर पर संश्लिष्ट रूप में उभरता है। डॉ. नामवर सिंह कहते हैं कि ऐसे युग में जब विचारों और भावों को हज़ारों-लाखों आदमी तक पहुँचाने के साधन जुट गए हों तो आत्माभिव्यक्ति की स्वाधीनता स्वभावत: व्यक्ति की स्वाधीनता का बीज मंत्र बन जाता है। तभी तो छायावाद कहता है अपने में सब कुछ भर व्यक्ति कैसे आत्म विकास करेगा।

पुनर्जागरण का चौथा वैशिष्ट्य है लोक सेवा या समाज सुधार और राष्ट्रीयता। प्रसाद अपने अतीत के माध्यम से (चंद्रगुप्त, ध्रुवस्वामिनी) निराला सांस्कृतिक गौरव के माध्यम से (तुलसीदास) पंत अपने प्रकृति चित्रण के माध्यम से (नौका विहार) महादेवी अपने गीतों के माध्यम से देश प्रेम को प्रकट ही नहीं करते हैं बल्कि स्वतंत्रता आंदोलन में देशभक्ति का बिगुल भी बजाते हैं।

देश प्रेम पूरे छायावादी साहित्य में प्राण तत्व के रूप में उपस्थित है। छायावाद में देश प्रेम दो चरणों में स्पष्ट परिलक्षित होता है प्रथम है अतीत का गौरव तथा द्वितीय है जागरण गीत। देश प्रेम एक ओर अपने को स्वतंत्रता आंदोलन से जोड़ता है तो दूसरी ओर अपने राष्ट्र गौरव से। इसीलिए छायावाद को शक्ति काव्य भी कहा जाता है। प्रसाद के सभी नाटक जैसे चंद्रगुप्त आदि, पेशोला की प्रतिध्वनि गीत, निराला का तुलसीदास, पंत का राष्ट्र गान आदि अनेक रचनाएँ भारत के अतीत के गौरव को दर्शाती हैं और कहती हैं–

वही है शांति वही है शक्ति / वही हम दिव्य आर्य संतान

प्रसाद ने अपनी रचना को स्वतंत्रता आंदोलन से जोड़ते हुए प्रखर स्वर में कहा है–

'हिमाद्रि तुंग शृंग से / प्रबुद्ध शुद्ध भारती
 स्वयं प्रभा समुज्जवला / स्वतंत्रता पुकारती'

छायावाद के जागरण गीतों में भी देशभक्ति का स्वर स्पष्ट सुनाई देता है। प्रसाद की अब जागो जीवन के प्रभात, बीती विभावरी जाग री, शेर सिंह का शस्त्र समर्पण, निराला का जागो फिर एक बार, बादल राग विप्लव के बादल, पंत का राष्ट्र गान आदि अनेक रचनाएँ जागरण का उद्घोष करती हैं। पंत कहते हैं–

जन भारत हे / भारत हे
स्वर्ग स्तम्भवत गौरव मस्तक
उन्नत हिमवत हे
जन भारत हे / भारत हे

स्त्री की स्वतंत्रता की पक्षधर महादेवी वर्मा के गीतों में भी जागरण का उद्बोधन मिलता है–

चिर सजग आँखें उनींदी
आज कैसा व्यस्त बाना
जाग तुझको दूर जाना

पुनर्जागरण के दो मुख्य बिंदु समाज सुधार और देश प्रेम छायावादी साहित्य का मुख्य ध्येय रहा है। समाज सुधार के लिए अप्सरा, तितली, शृंखला की कड़ियाँ, सरोज स्मृति आदि अनेकानेक रचनाओं का सृजन छायावाद में होता है। इन रचनाओं के माध्यम से हाशिए पर रहे मनुष्य को केंद्र में लाया गया। स्त्री से संबंधित समस्या जैसे अनमेल विवाह, दहेज़, विधवा विवाह, शारीरिक शोषण आदि, कृषक समूह की समस्या जैसे पूँजीवाद, सामंतवादी व्यवस्था, महाजनी सभ्यता आदि तथा सामाजिक समस्या जैसे धर्मांधता, रूढ़िवाद, परंपरा आदि का स्पष्ट चित्रांकन छायावाद में दिखाई देता है। यह कहना अन्यथा ना होगा की वर्तमान समय में भी यह समस्याएँ आज भी अपनी जटिलता और विकरालता में खड़ी है। समाज में व्याप्त इन समस्याओं का सिर्फ़ चित्रण मात्र छायावादी साहित्य नहीं है बल्कि इन सबसे मुक्ति की आकांक्षा भी इसका अभीष्ट है।

छायावाद में मुक्ति की आकांक्षा के लिए दो मार्ग दिखाई देते हैं – पहला मार्ग है वैयक्तिकता और दूसरा मार्ग है सामाजिकता। वैयक्तिकता का मार्ग अपनाकर छायावादी काव्य रूढ़ियों से मुक्त हुआ और सामाजिकता का मार्ग अपनाकर छायावादी गद्य यथार्थ की ज़मीन का निर्माण करता है। वैयक्तिकता के माध्यम से निराला सरोज स्मृति में "ये कान्यकुब्ज कुल कुलांकार / खाकर पत्तल में करें छेद" कह कर जाति व्यवस्था और दहेज़ पर करारा प्रहार करते हैं तो महादेवी वर्मा "प्राण रहने दो अपरिचित / पंथ रहने दो अकेला" कह कर पूरी बोल्डनेस के साथ स्त्री अस्तित्व स्थापना का प्रश्न खड़ा करती हैं। सामाजिकता के माध्यम से प्रसाद ने तितली कंकाल आदि उपन्यास मे ढहती सामंतवादी व्यवस्था, कौटुंबिक प्रणाली की विकृतियों को बख़ूबी उकेरा है।

मुक्ति की आकांक्षा ने मार्ग चाहे वैयक्तिकता का चुना हो या सामाजिकता का, साहित्य में इतिवृत्तात्मकता, काल्पनिकता, छंद बंधन का विरोध किया और साहित्य को नई दिशा नये मूल्य दिये। यह मूल्य आज भी उतने ही प्रासंगिक है जितने तत्कालीन परिदृश्य में थे। यहाँ पर यह ध्यान रहे कि निराला, महादेवी वर्मा में जहाँ वैयक्तिकता के माध्यम से सामाजिकता का प्रवेश हुआ है वहीं प्रसाद और पंत में सामाजिकता के माध्यम से वैयक्तिकता का चित्रण हुआ है। छायावाद में वैयक्तिकता भी सामाजिक संदर्भों में व्याख्यायित है। अपने इसी गुण के कारण आगे चलकर छायावाद को मुक्ति काव्य की संज्ञा मिली।

प्रसाद के सभी नाटक अतीत के माध्यम से वर्तमान की ओर केंद्रित है चाहे वह स्कंद गुप्त हो या चंद्रगुप्त, राजश्री हो या ध्रुवस्वामिनी। प्रसाद के सभी नाटक सांस्कृतिक विरासत और वर्तमान संदर्भ के केंद्र में रखकर सृजित किए गए हैं। भारतीय राष्ट्रीयता के पुनर्गठन की समस्या इनका मुख्य प्रतिपाद्य है। यहाँ हमें भारतीय दर्शन, भारतीय संस्कृति की लोकमंगल दृष्टि दिखती है। प्रसाद ने प्राचीन परंपरा और युग चेतना को संपृक्त रूप में लेकर युग की समस्या– व्यक्तिवाद, समाजवाद, नारी स्वतंत्रता, आधुनिक वैज्ञानिक औद्योगिक प्रगति से उत्पन्न संवेदनहीनता आदि को अपनी रचनाओं में सिर्फ़ स्थान ही नहीं दिया बल्कि वर्तमान पीढ़ी को चेतावनी भी दी है। कामायनी इसका सबसे प्रत्यक्ष प्रमाण है। प्रसाद ने अपनी रचनाओं के माध्यम से एक राष्ट्रीय भावना का सूत्रपात किया जो वेदों की ओर लौटो की साहित्यिक अभिव्यक्ति के समान था। इन सभी दृष्टिकोण से प्रसाद का गद्य और पद्य आज भी प्रासंगिक है।

आचार्य शुक्ल कहते हैं कि किसी को अपने देश से प्रेम है तो अपने देश के मनुष्य, पशु, पक्षी, पर्वत, नदी, पेड़ सब से प्रेम होगा। इस रूप में देश प्रेम पंत और महादेवी वर्मा में ज़्यादा दिखाई देता है। गिल्लू, मेरा परिवार तथा पंत की प्रकृति परक रचनाएँ देश प्रेम को ही प्रकट करती हैं।

छायावादी साहित्य में प्रकृति को मध्ययुगीन बंधन से आज़ाद ही नहीं किया बल्कि उसका शृंगार भी किया है। इस प्रकृति चित्रण का मुख्य स्वर स्वतंत्रता रहा है। छायावाद में प्रकृति का विराट रूप भी है और वह सजीव सत्ता के रूप में भी विद्यमान है। यहाँ पर हमें प्रकृति और मनुष्य का समीकरण प्राप्त होता है। छायावादी चेतना की प्रकृति इतनी प्रखर थी कि वह जानती थी कि मनुष्य का विकास प्रकृति से उसके समीकरण को तोड़ेगा और परिणाम भयावह होंगे। आज पृथ्वी,पेड़, पानी को बचाने की मुहिम नहीं अपनानी पड़ती यदि हम पहले ही सचेत हो गए होते। छायावादी साहित्य में प्रकृति के माध्यम से संपूर्ण सृष्टि की मंगल कामना की गई है जो बाद में हमें भवानी प्रसाद मिश्र केदारनाथ अग्रवाल और शमशेर के काव्य में दिखाई देता है। विज्ञान के द्वारा प्रकृति से संघर्ष करते हुए भी प्रकृति से प्रेम आधुनिक मनुष्य की आवश्यकता है। कामायनी में विज्ञान और तर्क के अतिरेक का समन्वय प्रकृति में ही दिखाया गया है और पंत तो उसमें दर्शन का समावेश करते हैं –

‘धारा सा ही जग का क्रम / शाश्वत है गति / शाश्वत जीवन’

पंत की यह पंक्तियाँ प्रकृति के वर्तमान पहलू के संदर्भ में भी सटीक बैठती हैं। महादेवी ने गिल्लू, मेरा परिवार और अनेक गीतों में अपने मिट्टी अपने देश के प्राणी से जुड़ाव को सहेजा है। प्रकृति की विराटता में ही वह संसार का सुख मानती हैं। वह कहती हैं –

"दुलरा दे ना / बहला दे ना / यह तेरा शिशु जग है उदास।"

निश्चय ही महादेवी की यह पंक्तियाँ हमें बताती हैं प्रकृति ही हमारा मूल है और हमें शांति और सुख भी इसी की गोद में मिलेगा। आज भी जीवन का सत्य है कि हम चाहे जितना विकसित हो लें पर हमारा जीवन प्रकृति पर निर्भर है। व्यक्ति के जीवन संघर्ष की परिणति प्रकृति की गोद ही है। इस युग सत्य को छायावाद में अनुभूत ही नहीं किया बल्कि चित्र के माध्यम से नई पीढ़ी को सचेत भी किया है। परिवर्तन कविता और कामायनी का जल प्लावन इसका संकेत है।

एक तरफ़ पुनर्जागरण से अनुप्राणित दूसरी ओर स्वतंत्रता संग्राम से जोड़ना ही छायावादी काव्य की विशेषता नहीं है बल्कि वह अपने में प्रेम, सौंदर्य, (प्रकृति और मानवीय) कल्पना आदि को भी अपने विशाल निधि में समेटे हुए हैं। यह सभी बिंदु कहीं ना कहीं वर्तमान से भी टकराते हैं। आज छायावाद के सौ वर्ष पूरे होने पर प्रश्न यह उठता है कि ऐसा क्या है जो सौ साल बाद भी छायावादी साहित्य को पढ़ने के बाध्य करता है? क्या वर्तमान के कुछ बीज छायावाद ने अपने साहित्यिक गर्भ में रखे थे? इन प्रश्नों के बीच सबसे बड़ा मुद्दा है स्त्री। स्त्री के अस्तित्व की स्थापना आज भी समाज के लिए बड़ा संघर्षपूर्ण है। छायावादी काव्य में स्त्री आधी मानवीय है तो आधी कल्पना। यहाँ पर स्त्री के हर रूप का चित्रण देखने को मिलता है। निराला और महादेवी इस दृष्टि में सबसे अग्रणी हैं अपनी पुत्री को स्त्री रूप में देख कर सरोज स्मृति रचने का जो साहस निराला ने किया वह अन्यत्र दुर्लभ है। स्त्री की आर्थिक स्वतंत्रता पुरुष का दोहरा चरित्र पुरुषवादी समाज में स्त्री के शोषण की विभिन्न पर्तें पंत निराला और प्रसाद के उपन्यास और कहानी में उभर कर सामने आए हैं कुल्लि भाट, तितली, अलका, पुरस्कार आदि रचनाएँ इसी संदर्भ की हैं। महादेवी वर्मा ने यह कार्य अपने गद्य और पद्य दोनों में किया है।

छायावाद में स्त्री का चित्रण भारतीय संस्कृति और भारतीय नारी आदर्श का चित्रण है। यहाँ नारी स्वातंत्र्य का स्वर वर्तमान स्त्री विमर्श से भिन्न है। आज का स्त्री विमर्श देह की स्वतंत्रता का रूप धारण करता जा रहा है। छायावाद में स्त्री स्वतंत्रता का अर्थ पुरुष विरोध नहीं बल्कि पुरुषवादी मानसिकता का विरोध है। पुरुषवादी मानसिकता का बदलाव स्त्री विमर्श का मूलाधार है। प्रसाद के उपन्यास कंकाल में तारा यह मुखर प्रश्न करती है—

"मैं दया की पात्री एक बहन बनना चाहती हूँ। है किसी के पास इतनी निस्वार्थ स्नेह संपत्ति?"

छायावाद को पढ़कर पद्मा सचदेव के नारी चिंतन की अनायास याद आ जाती है। वह भी मानती है कि नारी मुक्ति का अर्थ पारिवारिक जीवन से मुक्ति नहीं है बल्कि उसकी बुराइयों से मुक्ति है। छायावाद में यही चेतना मिलती है जो बाद में पद्मा सचदेव, उषा प्रियंवदा, नीरजा माधव आदि के साहित्य में दिखाई देता है।

महादेवी वर्मा और निराला के यहाँ स्त्री विमर्श वर्तमान स्त्री संदर्भ में स्पष्ट रूप से देखने को मिलते हैं। राम की शक्ति पूजा का मुख्य केंद्र 'प्रिया का उद्धार' है। स्त्री की मुक्ति के मार्ग को एक स्त्री (माँ) प्रशस्त करती है और अद्भुत है स्त्री मुक्ति के लिए स्त्री की उपासना। पुरुष अपने सबसे कठिन क्षण में एक स्त्री अर्थात माँ को ही सबसे ज़्यादा याद करता है और एक स्त्री जो जीवनसंगिनी है उसके लिए विकल है। निराला ने स्पष्ट शब्दों में कहा है –

'अकेली सुंदरता कल्याणी
सकल ऐश्वर्यों की संधान
देवी! माँ! सहचरी / प्राण।’

आज के वर्तमान समाज में इसी तथ्य को समझना होगा जिस तत्व या चेतना की समझ निराला 1936 में करते हैं। स्त्री मुक्ति के लिए संघर्ष अपनी लेखनी के द्वारा यह ऐसा बिंदु है जो निराला और महादेवी के रचना संसार की भिन्नता के बावजूद एक धुरी पर ले आता है। निराला अपने साहित्य में चाहे वो कहानी या उपन्यास या फिर कविता हो स्त्री के अस्तित्व को उजागर करते हैं और महादेवी वर्मा स्त्री के विकास के लिए अपने साहित्य में निरंतर संघर्ष करती मिलती हैं। शृंखला की कड़ियाँ में वह कहती है कि—'शताब्दियों की शताब्दियाँ आती-जाती रहीं परंतु स्त्री का की स्थिति की एकरसता में कोई परिवर्तन न हो सका किसी भी शास्त्रकार ने पुरुष से भिन्न करके उसकी समस्या को ना देखा है।' यहाँ यह कहना असंगत ना होगा की महादेवी वर्मा की पंक्तियाँ आज भी स्त्री विमर्श के तमाम प्रयासों की पहली कड़ी के रूप में है।

छायावाद मैं स्त्री पुरुष की समानता का भाव है स्त्री के लिए सखी, सजनी जैसे शब्द इसका पर्याय हैं जिसे आलोचकों ने काल्पनिक तथा भाववादी दृष्टि से देखा है पर वास्तव में यह स्त्री की और उसके प्रेम की स्वतंत्रता का परिचायक है। छायावाद में प्रेम की बड़ी सहजता से स्वीकारोक्ति है यहाँ प्रेम कुण्ठा रहित है चाहे वह प्रेम स्त्री का हो या पुरुष का। पंत कहते हैं कि "कहाँ नहीं है स्नेह/ साँस सा सबके उर में।"

छायावादी साहित्य में स्त्री हो या पुरुष प्रेम उसमें द्विवेदी युग की इतिवृत्तात्मकता नहीं बल्कि नवीन और सूक्ष्मतर रूप है। प्रसाद कामायनी में प्रेम के हृदय और बुद्धि पक्ष का दृष्टिकोण उभारकर वर्तमान पीढ़ी को दोनों में सामंजस्य करने को कहते हैं। यह सोच वर्तमान स्थिति की माँग है। इस दृष्टिकोण से प्रसाद ज़्यादा प्रासंगिक और समकालीन हैं। प्रेम के संदर्भ में "प्रिय से कम मादक पीर नहीं" कह कर महादेवी अपनी स्वतंत्रता और बोल्डनेस को ही प्रदर्शित करती हैं। वर्तमान में सामाजिक संबंधों की नीरसता और दूरी,आर्थिक विसंगतियाँ आदि के कारण प्रेम ज़्यादा प्रासंगिक हो गया है। निस्वार्थ प्रेम जीवन को सुख एवं शांति देता है, यह तब भी सत्य था और आज भी है। तभी तो निराला कहते हैं –

"प्रेमवंत! सब स्वार्थ मलिनता अनल कुंड में भस्मीकृत कर दो
प्रिय इन सबके चरणों में दो तन मन वार" 

यह प्रेम की उदात्त भूमि है इस भूमि से ही मानवता का मार्ग प्रशस्त होता है। यह प्रेम स्त्री पर परोपकार नहीं है बल्कि उसका अधिकार है। निराला की बेलौस प्रेम अभिव्यक्ति "नयनों का नयनों से गोपन प्रिय संभाषण" तुलसी के कंगन के नग की परछाई से कितना भिन्न है। यहाँ पर प्रेम अपनी पूरी आधुनिकता में है। छायावाद में प्रेम का चित्रण प्रसाद में मधु चर्या, निराला में उद्दाम वेग, महादेवी में गूढ़ रहस्य और पंत में शैशव सरलता के रूप में मिलता है। परंतु गद्य में प्रेम का अन्य रूप भी देखने को मिलता है। दंपत्ति, बन्नू, अलका, पुरस्कार आदि कहानियों में स्वच्छंद प्रेम की स्वीकृति है परंतु यह प्रेम देह बोध से परे है। यह प्रेम आत्मिक शुद्धि का मार्ग भी है। पंत कहते हैं –

 "तुम्हारे छूने में था प्राण
 संग में पावन गंगा स्नान।"

पुरस्कार की मधुलिका प्रेम के नये प्रतिमान का सृजन करती है।

छायावाद में प्रेम के माध्यम से नारी स्वाधीनता की बात की गई है इस युग में नारी में अपने अधिकारों की माँग की है। प्रसाद ने प्रेम पथिक में पुतली का चरित्र गढ़ा है जो प्रश्न करती है –

पुतली ब्याही जावेगी, जिससे वह परिचित कभी नहीं
यही ध्यान था उठता मन में हाय प्राण प्रिय क्या होगा

अंत में प्रसाद पुतली के माध्यम से यह संदेश देते हैं कि स्त्री को अपने मन की सुननी चाहिए तभी तो पुतली अपने प्रेमी का वरण कर लेती है। छायावाद की यही प्रगतिशील सोच उसे समकालीन बनाती है। प्रेम के माध्यम से ही निराला स्त्री के बंधन जाति धर्म आदि का विरोध करते हैं –

"दोनों हम भिन्न वर्ण / भिन्न जाति
भिन्न रूप / भिन्न धर्म भाव, पर
केवल अपनाव से प्राणों से एक थे"

वर्तमान में भी आज की पीढ़ी वर्ण, जाति और धर्म भाव से एक प्राण हो जाए तो देश उन्नति के शिखर पर हो जाए। छायावाद के सौ वर्ष पूरे होने पर इसकी प्रासंगिकता और उपयोगिता इन्ही अर्थों में व्याख्यायित की जा सकती है।

महादेवी वर्मा स्त्री की स्वतंत्रता पर विशेष बल देती है साथ ही अपने युग में वर्तमान युग को देख लेती है वह जानती है कि स्त्री विमर्श पुरुषों का एक खेल बन जाए इसीलिए वह कहते हैं अनियंत्रित वासना का प्रदर्शन स्त्री के प्रति क्रूर व्यंग्य ही नहीं जीवन के प्रति विश्वासघात भी है।

छायावाद में स्त्री को एक माननीय रूप में स्थापित किया गया और उसे पुरुष के समान ही एक मनुष्य बताया गया है, जिसके लिए स्त्री आज भी संघर्षरत है। जयशंकर प्रसाद इस संदर्भ में कहते हैं कि  –

तुम भूल गए पुरुषत्व मोह में
कुछ सत्ता है नारी की
समरसता ही संबंध बनी
अधिकार और अधिकारी की

पुनर्जागरण की चेतना से अनुप्राणित यही वैयक्तिकता यही स्वतंत्रता यही प्रणय अनुभूति और यही राष्ट्रीयता छायावाद की मौलिक विशेषता है।
 

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