अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

पुरुष के जीवन में स्त्री की पात्रता

अनादि काल से सृष्टि के केंद्र में स्त्री रही है। स्त्री मनुष्य के रूप में एवं एक तत्व के रूप में सृजन का पर्याय है। स्त्री सर्जक और संहारक है, तथा उसका स्वरूप दैवीय और मानवीय दोनों धरातलों पर स्वीकृत है। पौराणिक गाथाओं में स्त्री जननी, पोषक, संरक्षक और संहारक के रूप में वर्णित है। दुर्गा और काली के प्रचंड दैवीय स्वरूपों में वह दुष्टों का संहार कर, अपरिमित शक्ति धारणी दिव्य रूपा अखिल ब्रह्मांड रक्षक है। भारतीय संस्कृति में स्त्री को शक्ति स्वरूपिणी मानकर उपरोक्त तीनों भूमिकाओं को दैवीय स्वरूप प्रदान कर सम्पूर्ण भक्ति भाव से आराध्य माना गया है। भारतीय संस्कृति का मूल आधार स्त्री के प्रति इस भूखंड की श्रद्धा और भक्ति का भाव है। साहित्य और इतर कला माध्यमों में सर्वाधिक चित्रण और वर्णन स्त्री का ही हुआ है। विश्व साहित्य के केंद्र में स्त्री ही सभी युगों में विद्यमान रही है। चित्रकला और शिल्पकला में संसार की पुरातन से अधुनातन सभ्यताओं ने नारी सौन्दर्य की ही कलात्मक अभिव्यक्ति की है। रोमन सभ्यता का समूचा सौन्दर्य बोध स्त्री के अंग सौष्ठव की प्रतिलिपि है जो वहाँ की शिल्प कला में माइकेल एंजिलों जैसे शिल्पी द्वारा उकेरी गयी है। इन कलाकृतियों को देखकर कलाप्रेमी विस्मयपूर्ण भावावेश से भर जाते हैं। ग्रीस की वास्तुकला, चीन की शिल्पकारी तथा भारतीय कला और पुरा वस्तुओं का मनमोहक आधार नारी सौन्दर्य ही है। इन सभी कला माध्यमों में नारी के दैवीय और मानवीय रूपों की कल्पना को ही कलात्मक सौन्दर्य सहित चित्रपटों तथा शीला खंडों पर उकेरा गया है। ग्रीस की एफ्रोडाइट, वीनस और हेलेन, रोम की शाही घरानों की सुंदरियाँ, भारतीय महाकाव्यों की नायिकाएँ - उर्वशी, मेनका, रंभा, द्रौपदी, शकुंतला, दमयन्ती, मंडोदरी आदि सुंदरांगनाएँ अपने अप्रतिम सौन्दर्य को विभिन्न कला माध्यमों के द्वारा विश्व में बिखेरती रहीं हैं। स्त्री ही कलाकारों के सौन्दर्य बोध को व्यक्त करने का माध्यम बनी है। स्त्री का महिमा मंडन भारतीय गाथाओं, महाकाव्यों, और पुराणों में प्राचीन काल से होता रहा है। प्राचीन काल में भारत में स्त्री का स्थान समाज में अत्युन्नत माना गया। उसे देवी का दर्जा दिया गया और उसे पूजनीय की संज्ञा दी गयी। उसके गुणों का बखान करने के लिए कवियों के द्वारा नई नई प्रयुक्तियाँ निर्मित की गईं।

मनुस्मृति में स्त्री के लिए "भोज्येषु माता, रूपेच लक्ष्मी। शयनेषु रंभा, क्षमया धरित्री" कहा गया है।

भारत में अनादि काल से स्त्री का उदात्तीकरण साहित्य और कलाओं में निरंतर होता रहा है। जहाँ एक और भारतीय संस्कृति में स्त्री और पुरुष को एक दूसरे का पूरक मानकर पुरुष को अर्धनारीश्वर की संज्ञा दी गयी और साथ ही स्त्री को पुरुष का पूरक तत्व माना गया हो वहीं वास्तविक व्यवहार में इसके विपरीत समाज में स्त्री लांछित, अपमानित और पीड़ित है। यह आज की वास्तविकता है। स्त्री के प्रति भोगवादी प्रवृत्ति का विकास मध्य युग में हुआ जो आज भी विद्यमान है।

मानव समाज में पुरुष को एक विशेष दर्जा, प्राचीन काल से हासिल है। यह उसके जैविक (शारीरिक) श्रेष्ठता के सिद्धान्त से संकल्पित है तथा पुरुष वर्चस्व को सर्वोपरि स्थापित करने के लिए किया गया प्रयास है। उसी क्रम में स्त्री को पुरुष की आश्रिता घोषित करने हेतु मनुस्मृति के कथन को स्वीकार किया गया -

"पिता रक्षति कौमार्ये, भर्ता रक्षति यौवने, सुत: रक्षति वार्धक्ये, न स्त्री स्वातंत्र्यम् अर्हसि"।

इसके अनुसार पुरुष को पिता, पति और पुत्र के रूप में स्त्री की रक्षा का दायित्व सौंपा गया है। उपरोक्त सूक्ति का विश्लेषण विभिन्न दृष्टि कोणों से किया जाता है। इसकी अनगिनत व्याख्याएँ मिलती हैं। उपरोक्त सूक्ति के अनुसार स्त्री स्वतन्त्रता के योग्य नहीं है जो कि आपत्तिजनक भाव है। इस कथन को आज कैसे स्वीकार किया जा सकता है? इसीलिए स्त्री को हर समय पुरुष के अधीन बंदी बनाकर रखे जाने को उचित ठहराया गया। उसे आश्रिता घोषित कर दिया गया। प्राचीन से लेकर वर्तमान तक हर युग में इस सिद्धान्त को युगानुरूप सामाजिक संदर्भों में स्वीकार किया गया। आधुनिक युगीन स्त्री चेतना के परिप्रेक्ष्य में उपरोक्त भाव को सिरे से खारिज किया गया है। इस उक्ति में स्त्री को पुरुष के बिना असुरक्षित बताया गया है जो स्वयं में अनुचित धारणा है। अर्थात स्त्री की दैहिक सुरक्षा अनिवार्य है और यह केवल पुरुष ही प्रदान कर सकता है, क्योंकि उसका अस्तित्व उस पुरुष के लिए बहुमूल्य है जो कि उसका स्वामी है, मालिक है, उपभोक्ता है तथा शरणदाता है। इस उक्ति में स्त्री की अधीनस्थता की स्थिति स्पष्ट परिलक्षित होती है। इस धारणा के अनुसार स्त्री का पुत्री, पत्नी और माता के रूप में पुरुष के अधीन रहना ही उचित और अनिवार्य है। यह विचारधारा स्त्री को सदैव पुरुषाश्रित बनाए रखने के सिद्धांत को विकसित करता है। उपयोगितावादी दृष्टि से स्त्री, पत्नी के रूप में शयनसुख प्रदान करने वाली तथा माता के रूप में संतान की पालन पोषण करने वाली परिचारिका नज़र आती है। इसी कारण ऐसी अमूल्य धरोहर की सुरक्षा के लिए पुरुष स्वयं को उसका संरक्षक घोषित कर उसका का अधिकारपूर्वक शोषण करता है। स्त्री मात्र दासी बनकर पुरुष की आवश्यकताओं की पूर्ति करती है। पुरुष का अधिकार हर परिस्थिति में स्त्री पर स्वामी या मालिक का ही दिखाई देता है। इसीलिए वह हर स्थिति में पुरुष के अधीन ही रहती है। स्त्रियाँ को भारतीय परंपरा में बाल्यावस्था से ही यह शिक्षा दी जाती है कि उसे एक न एक दिन पति नामधारी पुरुष के अधीन ही जाना है, इसलिए उसे एक भावी, अज्ञात काल्पनिक पुरुष की अभिरुचियों के अनुकूल स्वयं को शारीरिक और मानसिक स्तर पर रूपायित करना होगा। हमारा समाज (स्त्री-पुरुष) ही उसे अज्ञात पुरुष (भावी पति के) के अनुकूल बनाने हेतु बचपन से ही उसे मानसिक रूप से तैयार किया जाता है। उस पर स्त्री संस्कारों का भारी बोझ बलात् लाड़ दिया जाता है। वह उन संस्कारों को स्वीकार कर, जीवन को उसी दिशा में मोड़ लेती हैं। धीरे-धीरे ये बालिकाएँ उन्हीं संकीर्ण प्रतिबंधित संस्कारों में पलकर बड़ी होती हैं। कालांतर में समाज द्वारा निर्धारित पुरुष वर्चस्व के बंधन में बँधकर आजीवन अपनी अस्मिता बोध से बेखबर होकर अपना बंधुआ जीवन गुजारने के लिए अभिशप्त होती हैं। बचपन से प्राप्त स्त्री संस्कारों के परिणामस्वरूप वह पुरुष को अपना स्वाभाविक संरक्षक एवं अभिभावक स्वीकार कर लेती है। इसी संदर्भ में प्रख्यात फ्रांसीसी स्त्रीवादी विचारक सीमोन द बोवुआर ने अपनी प्रसिद्ध कृति "सेकेंड सेक्स" ("स्त्री उपेक्षिता" - हिंदी अनुवाद) में कहा है कि "स्त्री पैदा नहीं होती, बना दी जाती है"। अर्थात कोई भी शिशु जन्म से केवल शारीरिक (जैविक) संरचना के आधार पर बालक या बालिका नहीं होता बल्कि उसे बालिका के संस्कार प्रदान कर बालिका घोषित किया जाता है। यही स्थिति बालक की भी होती है। यह एक निर्विवाद सत्य है कि मानव समाज आरंभ से ही पुरुषवादी, पितृसत्तात्मक समाज रहा है। कहीं-कहीं मातृसत्तात्मक परिवार के उदाहरण मिलते हैं जो कि बहुत ही नगण्य हैं और वास्तव में केवल नाम मात्र के लिए ही हैं। उन तथाकथित मातृसत्तात्मक समाजों में भी निर्णय लेने का अधिकार पुरुष के पास ही आरक्षित रहता है, जिसे स्त्रियाँ बिना किसी आपत्ति के स्वीकार कर लेती हैं।

भारतीय समाज-शास्त्र एक ओर सैद्धान्तिक तौर पर नारी को आदर और सम्मान का पात्र घोषित करता है और "यत्र नार्यन्ति पूज्यंते तत्र रमन्ते देवता" जैसी उद्घोषणाएँ करता है तो दूसरी ओर उसे दासता की बेड़ियों में बाँधकर रखता है। स्त्रियों के प्रति वस्तुवादी और भोगवादी मानसिकता से ग्रस्त पुरुष समाज उसके लिए ऐसी ही भाषिक अभिव्यक्तियाँ भी गढ़ लेता है जो उसे उसे महज एक उपभोग की वस्तु की पहचान दिलाता है। स्त्री उपरोक्त आदर्शमूलक घोषणाओं के बावजूद भी विश्व समाज में स्वतन्त्रता के मौलिक अधिकार से वंचित है। न केवल भारतीय समाज बल्कि अन्य विदेशी समाजों में भी कमोबेश नारी, पुरुष वर्चस्ववाद की स्वीकृत दासता से अभिशप्त है। यही आपत्ति आधुनिक जीवन दृष्टि को प्रभावित करती है। स्त्रीवादी बहस और विवाद का केंद्र बिन्दु स्त्री की स्वायत्तता, व्यक्तिगत स्वेच्छा तथा उसकी स्वतन्त्रता का मुद्दा है। आधुनिक युग में स्त्री ने अपने अधिकारों के लिए लड़ना शुरू कर दिया है। इस मुहिम को प्रारम्भ करने वालों में कुछ पुरुष स्त्रीवादी चिंतक भी उल्लेखनीय हैं। इंग्लैंड के जॉन स्टुअर्ट मिल स्त्रीवादी संघर्ष के पुरोधा रहे हैं। इन्होंने अपनी विख्यात कृति स्त्री की पराधीनता (subjection of women) में नारी को सभी तरह के सामाजिक बंधनों से मुक्त होने के लिए प्रेरित किया और उनकी स्वतन्त्रता की मुहिम में वे शामिल हुए। नारी कूकती आन्दोलन का प्रारम्भ पश्चिम में प्रारम्भ हुआ और धीरे-धीरे यह विश्व के सभी हिस्सों में फैल गया। जर्मन ग्रीयर, वोलस्टन क्राफ्ट, साइमन द बुवार आदि महिला लेखिकाओं ने इस मुहिम को आगे बढ़ाया और इसे विश्वव्यापी बनाया। आज यह संघर्ष तीव्र से तीव्रतर होता जा रहा है। आधुनिक महिला जगत अपनी अस्मिता की तलाश में निकला पड़ा है और वह अपने अधिकारों की लड़ाई स्वयं लड़ रहा है। किन्तु भारतीय समाज की पुरुष पक्षधर मानसिकता स्त्री को उसके अधिकारों से वंचित रखकर उसका शोषण करने में ही विश्वास करती है। वैसे नारी के इन संघर्षों का समर्थन कतिपय पुरुष संगठनों ने भी की है और आज भी कर रहा है। नारी स्वाधीनता चाहती है और यह उसका जायज़ हक है। यह उसका जन्म सिद्ध अधिकार है, उतना ही जितना कि पुरुष का। स्त्रियों की स्वायत्तता की माँग से पुरुष समाज क्यों घबराता है? क्या इसलिए कि स्त्री उसके हाथ से निकल जाएगी और वह उस पर शासन नहीं कर पाएगा, या उसके अधीनस्थ उसकी प्रजा (शासित और शोषित नारी) स्वतंत्र होकर बगावत कर देगी तो उसका जीना दूभर हो जाएगा? एक तरह से स्त्री को पुरुष पर आर्थिक और मानसिक रूप से आधारित समझा जाता है जब कि पुरुष ही स्त्री पर घरेलू और दाम्पत्य जीवन की सार्थकता और दैहिक तृप्ति के लिए पूरी तरह से आश्रित होता है। पुरुष इस स्थिति को स्वीकार नहीं करना चाहता क्योंकि इससे उसका पुरुषवादी अहं आहत होता है। वह अपनी दैहिक तुष्टि के लिए स्त्री का उपभोग करता है जिसे वह अपना अधिकार मानता है, इसीलिए वह स्त्री को अपने अधीन रखता है। पुरुष वर्चस्ववादी अहंकार ही उसे स्त्री को अपने अधीन उपभोग की सामग्री बनाकर रखने की मानसिकता को जन्म देती है।

पुरुष की प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रताड़नाओं से मुक्त होने की कामना प्रत्येक स्त्री अपने अचेतन मस्तिष्क में पालती है। स्त्री की मनोवैज्ञानिकता इस सत्य का उद्घाटन करती है। पुरुष के प्रत्यक्ष एवं परोक्ष शोषण, उत्पीड़न और अवमानना से स्त्री मुक्ति चाहती है। पुरुष की मानसिकता प्रधानत: भोगवादी होती है। उसके लिए नारी देह, सहज आकर्षण का केंद्र होती है। पुरुष की भोगवादी कामनाएँ उसके अचेतन में स्थित 'इड' नामक मनोग्रन्थि से संचालित होती रहती है इसीलिए चेतन अवस्था में सामाजिक नियमों के अनुसार स्त्री के प्रति मर्यादापूर्ण आचरण का अभ्यस्त पुरुष, अवसर प्राप्त होते ही नारी देह पर आक्रमण कर देता है। पुरुष की मानसिकता देहवादी भोग की कामना से युक्त होती है। वैज्ञानिकों ने इसे प्रकृति सहज प्रोग्रेमिंग कहा है। पुरुष समाज का इस भोगवादी मानसिकता से मुक्त होना, सामाजिक संतुलन तथा स्त्री की सुरक्षा के लिए नितांत आवश्यक है।

सभ्यता और सामाजिकता का भले ही विकास नई शताब्दी के प्रोद्योगिक युग में हो गया हो, मनुष्य ने विज्ञान और प्रौद्योगिकी की सहायता से पृथ्वी को जीत लिया हो और वह कितना ही ग्रहाँतरगामी क्यों न हो गया हो तथा उसका बौद्धिक विकास भी चरमोत्कर्ष पर क्यों न हो, वह स्त्री के विषय में उसकी मानसिकता प्रागैतिहासिक युग की ही है। पुरुष की आक्रामक कामेच्छा को स्त्री के प्रति एक विशेष सम्मान का भाव विकसित कर, स्त्री - पुरुष संबंधों को अधिक सहज सामाजिकता प्रदान कर, इस विकृति का समाधान किया जा सकता है। स्त्री - पुरुष संबंधों में असहजता और प्रतिबंधित सामाजिक आचरण से स्त्री के प्रति आक्रामक मानसिकता संभव हो जाती है, इस स्थिति को नियंत्रित किए बिना स्त्रियाँ पर लैंगिक हमले नहीं रोके जा सकते। पुरुष की कामुक मानसिकता की तुष्टि 'विवाह' द्वारा होती है, विवाह एक सामाजिक व्यवस्था है जहाँ पुरुष और स्त्री परस्पर एक दूसरे को सुख और संतोष प्रदान कर, परस्पर समरसता को प्राप्त करते हैं।

स्त्रीवादी आंदोलन का लक्ष्य मूलत: स्त्री की अस्मिता को पुरुष निरपेक्ष बनाने का रहा है। लेकिन इसका अर्थ कदापि यह नहीं कि स्त्री पुरुष के प्रति घृणात्मक एवं प्रतिहिंसात्मक रुख अख़्तियार करे। स्त्री और पुरुष दोनों के लिए परस्पर नकारात्मक एवं निषेधात्मक रवैया समाज के लिए घातक और हानिकारक होगा।

स्त्री का संघर्ष स्त्रीवादी विचारधारा की दृष्टि से उन्मुक्त जीवन जीने की स्वतन्त्रता, सशक्तीकरण, आर्थिक आत्मा निर्भरता और निजी स्वेच्छा के लिए ही है। स्त्री के लिए उसका निजी 'स्पेस' (जगह) वैयक्तिक और सामाजिक धरातल चाहिए जिसमे उसकी अपनी निजता (प्राइवेसी) सुरक्षित रहे। उसकी निजता उससे नहीं छिने और और कोई भी उस प्राइवेसी पर हमला न करे। यह उसका अपना बहुत ही निजी क्षेत्र होता है जिसकी प्रतिरक्षा का दायित्व उसके साथी (पार्टनर) पर भी होना चाहिए। यही नियम पुरुष की निजता के लिए भी लागू होता है, किन्तु पुरुष अपनी निजता के अधिकार का प्रयोग शताब्दियों से करता रहा है। वह ऐसे किसी अधिकार को स्त्री के लिए नहीं देना चाहता, यही स्त्री पुरुष संबंधों को प्रभावित करती है। परिणामस्वरूप स्त्री एकांत की अँधेरी गुफा में जीने के लिए अभिशप्त हो जाती है। नारी मुक्ति का अर्थ पुरुष से मुक्ति नहीं बल्कि पुरुष और स्त्री दोनों के शोषण, अपमान एवं दमनपूर्ण व्यवहार से मुक्ति की आकांक्षा है। स्त्री को उसका निजत्व (सेल्फ) देना होगा, जब तक वह अपने उस निजत्व को प्राप्त नहीं करेगी, उसका संबंध पुरुष के साथ सहज नहीं हो पाएगा।

भारतीय संस्कृति में स्त्री को पति के उत्पीड़न, अत्याचार, घरेलू हिंसा जैसे शोषण को सहना सिखाया जाता है। स्त्री को पति के अत्याचार का विरोध करने का अधिकार भारतीय समाज में नहीं है। पति (पुरुष) का विरोध स्त्री की दुश्चरित्रता की निशानी बन जाती है और वह इसके लिए परिवार से निष्कासित हो सकती है। स्त्री- पुरुष मे वर्चस्व की समानता का बोध परम आवश्यक है। पुरुष की श्रेष्ठता का सिद्धान्त जो बलात् स्त्रियों पर थोपा जाता है वही स्त्री के प्रति समाज के आक्रामक रवैये के लिए ज़िम्मेदार है। समाज को इस पुरुष श्रेष्ठतावादी मानसिकता से मुक्त होना होगा।

स्त्री के लिए यह आवश्यक है कि वह अपने आत्म विश्वास को सुदृढ़ बनाए रखे और स्वयं को समसामयिक स्थितियों में आर्थिक और सामाजिक स्तर पर आत्मनिर्भरता हासिल करने के लिए शिक्षा एवं रोज़गार के माध्यम से स्वयं को समाज के शोषण-चक्र से बचाकर, आवश्यकता पड़ने पर संघर्ष के लिए तैयार रहे। इसके लिए स्त्री शिक्षा और स्त्री सशक्तीकरण की आवश्यकता बहुत महत्वपूर्ण है। इसके लिए सामाजिक और अन्य गैर सरकारी संगठनों को पहल करनी होगी, जिससे शोषण एवं यौन अत्याचार (बलात्कार) आदि के मामलों में स्त्रियों को जल्द से जल्द न्याय मिले और अपराधी दंडित हों। जब तक दोषियों को दंड की कठोरता का भय नहीं होगा, अपराध की प्रवृत्ति में बदलाव नहीं आयेगा। खाड़ी के देशों में दंड विधान की भयावहता ही उनके समाज को अपराध रहित बनाने में सफल हुई है। स्त्री के प्रति होने वाले अपराधों में सबसे अधिक बलात्कार और घरेलू हिंसा के मामले, हमारे देश में सबसे अधिक होते हैं। लेकिन इन्हीं अपराधों की जाँच प्रक्रिया अत्यंत धीमी होती है। न्याय प्रक्रिया को पूरा होने में बरसों लग जाते हैं जिसके कारण पीड़ित महिलाएँ आत्महत्या कर लेती हैं अथवा वे परिवार एवं समाज से कट जाती हैं। ऐसी पीड़ित स्त्रियों के प्रति हमारा समाज बहुत ही अनुदार और असंवेदनशील है। वे निर्दोष होकर भी अकसर परिवार से निष्कासित होकर टूटकर बिखर जाती हैं। हमारे देश का कानून कछुवे की चाल से चलता है और भ्रष्ट व्यवस्था के अधीन हमारा सारा शासन तंत्र और न्याय व्यवस्था भी अंत में अपराधी के प्रति नरमी ही बरतती है। बलात्कार के मामलों में पीड़ित स्त्री की चेतना को अदालत में जिस तरह के सवालों से छलनी किया जाता है, उसे देखकर कोई भी पीड़ित स्त्री अदालत का दरवाज़ा नहीं खट-खटा सकती। ऐसे मामलों के लिए विशेष अदालतों का गठन आवश्यक है जहाँ पीड़ित स्त्री के स्वाभिमान की रक्षा हो सके और उसे अपमानित न किया जाये। उसके साथ सम्मान पूर्वक व्यवहार हो। बलात्कार के मामलों में पीड़ित स्त्री को लज्जित होने की आवश्यकता नहीं है। समाज को उस स्त्री के पक्ष में खड़ा होना चाहिए और उसे भरपूर नैतिक बल और सामाजिक समर्थन मुहैया कराना मानवीयता की दृष्टि से न्यायसंगत है। इस संदर्भ में समाज की मानसिकता, विशेष रूप से पुरुषों की मानसिकता में बदलाव की नितांत आवश्यकता है। साधारणतया बलात्कारित स्त्री को दुश्चरित्र घोषित कर उसे तवायफ़ों की श्रेणी में खड़ा कर दिया जाता है। कुछ लोग तो ऐसे मामलों की अदालती कार्यवाही को देखकर भरपूर आनंद लेते हैं, जो कि दुर्भाग्यपूर्ण है। वास्तव में लज्जित तो उस पुरुष पुंगव को होना चाहिए जो इस घोर पाशविक कृत्य को अंजाम देता है। उसे समाज से बहिष्कृत कर देना चाहिए। बलात्कार को अक्षम्य अपराध की श्रेणी में रखकर अपराधी को कड़ी से कड़ी सज़ा जल्द से जल्द देनी चाहिए।

आज के तथाकथित सभ्य समाज के संभ्रांत वर्ग के कुछ राजनेता और अध्यात्मिक गुरु जिस तरह से स्त्रियों के पहनावे और उनकी जीवन शैली और चाल चलन के प्रति गैरज़िम्मेदार फतवे ज़ारी करते हैं, ये बहुत ही चौंकाने वाले और दुर्भाग्यपूर्ण हैं। ये नैतिकता के छद्म संरक्षक मनु स्मृति के आधार पर स्त्रियों को अपने पहनावे पर ध्यान देने का उपदेश देते हैं। बलात्कारियों से शील की भीख माँगने की राय दे देते हैं। किन्तु इनमें से किसी ने बलात्कारी पुरुषों की विकृत कामुक मानसिकता की निंदा नहीं की और न ही ऐसे आचरण का खंडन ही किया। इसके विपरीत इन महानुभावों ने महिलाओं के चाल चलन पर ही संदेह व्यक्त कर डाले। आज के संघर्षशील माहौल में स्त्रियों को कामकाजी दायित्वों के निर्वाह के लिए रात और दिन दोनों ही समयों में घर से निकालना पड़ता है और अकेले ही अपने काम से देर रात घर का रास्ता लेना पड़ता है। ऐसे में यदि वे विकृत मानसिकता वाले पुरुषों के हिंसात्मक हमलों का शिकार होती रहें तो दोष महिलाओं का कैसे होगा? जब कि हमारी तथा कथित रक्षा व्यवस्था और सरकारी तंत्र दोनों इन मामलों की रोकथाम में विफल साबित हो चुके हैं। आक्रमणकारी की मानसिकता को कैसे बदला जा सकता है? आज यह अहं सवाल समूचे देश वासियों को विचलित कर रहा है।इस संदर्भ में स्त्री की मानसिकता में भी एक विशेष प्रकार के बदलाव की आवश्यकता है। भारतीय मानसिकता स्त्री में आत्मसमर्पण के भाव को कूट-कूटकर भर देता है। यह मानसिकता व्यक्ति की अन्याय का विरोध करने की शक्ति को क्षीण कर देती है। संकट के समय में स्त्री को अपने बचाव के लिए मानसिक और नैतिक रूप से बलवान होना चाहिए। पुरुष के प्रति एक विशेष प्रकार के आदर और सम्मान का भाव प्राय: अधिकांश स्त्रियाँ रखती हैं। स्त्रियाँ में अत्याचारी पुरुष का विरोध करने की मानसिक और शारीरिक क्षमता विकसित करने की आवश्यकता है। स्त्री की पुरुष के प्रति स्वाभाविक संकोच का भाव उसे कमज़ोर बना देता है जिससे वह हमलावर के लिए सॉफ्ट टारगेट (सुकोमल निशाना) साबित हो जाती हैं।

भारतीय समाज में स्त्रियों के प्रति पुरुषों की सोच और मानसिकता में आमूल-चूल परिवर्तन की आवश्यकता है। पुरुष जो समर्पण, त्याग और सेवा का भाव स्वयं के प्रति स्त्रियों से अपेक्षा करता है, वही भाव उसे भी स्त्री के प्रति होना चाहिए। पुरुष - श्रेष्ठतावादी सिद्धान्त का आचरण करने वाला समाज आज भी स्त्री के प्रति अनुदार भाव ही रखता है। आज भी भारतीय समाज में स्त्रियों को पुरुषों के संबल और समर्थन की आवश्यकता है। स्त्री-पुरुष समानता के सिद्धान्त के नेपथ्य में स्त्रियों के कार्य में और उनके जीवन को अधिक स्वतंत्र बनाने की प्रक्रिया में पुरुषों को अधिक उदारवादी सोच अपनानी होगी। उनके विकास के मार्ग में अवरोध पैदा न करते हुए उन्हें शैक्षिक और कामकाज के क्षेत्र में प्रवेश के लिए प्रेरित और प्रोत्साहित करना होगा। यदि पुरुष समाज नि:स्वार्थ भाव से स्त्रियों को आर्थिक आत्मनिर्भरता प्रदान कर उनके सशक्तीकरण का मार्ग प्रशस्त कराते हैं तो निश्चित रूप से भारतीय समाज में स्त्रियों का जीवन अधिक संतोषप्रद और खुशहाल होगा। उनमें आत्मविश्वास जागेगा और वे स्वयं अन्याय और अत्याचार का सामना करने का साहस जुटा पाएँगी। पुरुषों के इस सहयोग से स्त्रियों का मनोबल बढ़ेगा, वे स्वतंत्र होकर उन्मुक्त वातावरण में अपनी अस्मिता खुद स्थापित करेंगी। स्त्रियों को विकास के अवसर यदि मुहैया कराए जाएँ तो वे सुंदर घर, परिवार और देश का निर्माण करने में समर्थ होंगी।

भारतीय नवजागरण आंदोलन का घोषणापत्र मुख्य रूप से स्त्रियों को शोषण से मुक्त करने की संकल्पना पर ही आधारित है। यह मुक्ति पारिवारिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक क्षेत्र में स्त्रियों की समुचित भागीदारी को ही प्रतिपादित करती है जिसकी परिकल्पना नवजागरण के पुरोधाओं ने की। नवजागरण आंदोलन के केंद्र में स्त्रियों की ही समस्याएँ प्रमुख थीं। तदयुगीन सामाजिक - धार्मिक सुधारों का लक्ष्य स्त्रियों के जीवन में सामाजिक कुरीतियों के कारण व्याप्त अंधकार को मिटाकर एक नव्य समाज के निर्माण की थी, जिसमें नारी स्वतंत्र और आत्मा निर्भर होकर, घरेलू हिंसा, दहेज प्रथा, अनेमल विवाह, बहु -विवाह और सतीप्रथा जैसी अमानवीय कुरीतियों से मुक्त हो जाये। वह पुरुष के समकक्ष अपने व्यक्तित्व का विकास अपनी इच्छानुसार कर सके। उपरोक्त कुरीतियाँ स्त्रियों के जीवन में आज भी कमोबेश विद्यमान हैं जिन्हें दूर करने के लिए एक और नवजागरण अभियान की आवश्यकता है। पुरुष के व्यवहार में स्त्रियों के प्रति जो कृत्रिमता और दिखावा है उसे समाप्त कर, ईमानदारी से स्त्रियों के जीवन को दमन और दोहन के दुष्प्रयासों से मुक्त करने का प्रयास करना होगा। घरेलू हिंसा आज भारतीय दांपत्य जीवन का एक विडंबनापूर्ण अभिशाप है जो औसतन घर परिवारों में व्याप्त है, जिसे पुरुष वर्ग बाहर झुठला देता है किन्तु घर में उसका आतंक चरम पर होता है। स्त्रियाँ ऐसे अत्याचारों को सहती हुईं चुपचाप अपने भाग्य को कोसती हुई जीवन बिताती हैं। महादेवी वर्मा घरेलू हिंसा में लिप्त पुरुषों के अन्याय और अत्याचार का बेबाकी और कठोरता से खंडन करती हैं। उनकी संवेदना ऐसे अनेकों स्त्रियों के साथ जुड़ी है जो घर में पति की उपेक्षा सहती हुई अन्याय और अत्याचार का सामना करती हैं। पुरुषों द्वारा पत्नी का निरंतर अपमान और अपनी कमज़ोरियों को छिपाने के लिए पत्नी को ठहराकर अन्य स्त्री से संबंध जैसी घटनाएँ हर वर्ग के दांपत्य जीवन में घटती हैं किन्तु पुरुष अपने वर्चस्व को बनाए रखने के लिए पत्नी पर अत्याचार करता रहता है। महादेवी के शब्दों में - "पुरुष भी विचित्र है। वह अपने छोटे से सुख के लिए स्त्री को बड़ा से बड़ा दु:ख दे डालता है और ऐसी निश्चिंतता से, मानो वह स्त्री को उसका प्राप्य ही दे रहा है। सभी कर्तव्यों को वह चीनी से ढकी कुनैन के समान मीठे-मीठे रूप में ही चाहता है। जैसी ही कटुता का आभास मिला कि उसकी पहली प्रवृत्ति सब कुछ जहाँ-का-तहाँ पटक कर भाग खड़े होने की होती है।" (अतीत के चलचित्र)

शील और चरित्र की पवित्रता और शुचिता के मानदंड स्त्री और पुरुष के लिए भिन्न भिन्न होते हैं। पुरुष दुराचारी और व्यभिचारी होकर भी सद्चरित्र बना रहता है किन्तु स्त्री का शील और उसकी चारित्रिक शुचिता हमेशा पुरुष के मापदंड से मापी जाती है जो कि हमेशा पक्षपात पूर्ण होती है। शील की परिभाषा हमारे समाज में स्त्री के कुंवारेपन से होती है जब कि पुरुष के लिए यह अनावश्यक है और इसलिए असंगत है। अब समय आ गया है जब शील और चरित्र की व्याख्या केवल पुरुषवादी दृष्टि से नहीं बल्कि एक तटस्थ भाव से विकसित हुआ है। इसके अनुसार शीलवादी धारणा से स्त्री की मुक्ति महत्वपूर्ण है। स्त्री की यौनिकता उसकी निजी और नितांत व्यक्तिगत अवधारणा है जिसे अन्य कोई व्याख्यायित और परिभाषित नहीं कर सकता। स्त्री के यौनिक पक्ष का सामान्यीकरण (generalization) आज स्त्रियों के लिए अस्वीकार्य है। स्त्री से पुरुष सदैव शुचिता (chastity) की अपेक्षा और कामना करता है किन्तु स्त्री को पुरुष से इस प्रकार की अपेक्षा का अधिकार नहीं है। इस तरह के अनेक दोहरे मानदंड स्त्री मानसिकता को चोट पहुँचाते हैं। जिससे स्त्री स्वयं को पराजित अनुभव करती है। आज की नारी पुरुष से सवाल करती है - "सीता की माँग करने वाले से यह भी तो पूछा जाएगा कि क्या वह राम बन सका?"

महादेवी की स्वानुभूति यह कहती है "जीवन से अनजान किशोरों की संख्या कम नहीं, जो सुख के साधनों के लिए उस माँ से झगड़ते हैं, जिसकी उँगलियों के पोर सिलाई करते-करते चलनी हो चुके हैं। कुलवधुओं के समान आँसू पीने वाले युवकों का अभाव नहीं जिनका पौरुष न दरिद्र पिता का सब कुछ छिन लेने में कुण्ठित होता है और न भिक्षावृत्ति से मूर्च्छित। अपनी पराजय को विजय मानने वाले ऐसे पुरुषों से भी समाज शून्य नहीं, जो छोटे बच्चों को छोड़कर दिन-दिन भर परिश्रम करने वाली पत्नियों के उपार्जित पैसों से सिनेमा घरों की शोभा बढ़ा आते हैं।" (अतीत के चलचित्र)

हमारे समाज में विवाह के लिए पुरुष द्वारा वधू का चयन किया जाता है अर्थात वर पक्ष वधू का चयन 'देखो और छोड़ो' पद्धति से करता है यानी पुरुष अपनी पसंद की लड़की चुनने के लिए कई लड़कियों का साक्षात्कार लेकर उनमें से किसी एक पर वह अपनी स्वीकृति की मुहर लगाता और तब वे दोनों स्त्री - पुरुष विवाह के शाश्वत बंधन में बँध जाते हैं। इसीलिए स्त्री को बाल्यावस्था से ही अपने भावी वर के योग्य बनने के सारे उपाय सिखाये जाते हैं जिसका पालन स्त्री आज्ञाकारी पुत्री के रूप में करती है। यह परंपरा आज भी कुछ थोड़े से संशोधित संस्करण में विद्यमान है। समाज के सभी वर्ग इस प्रक्रिया का पालन पूरी श्रद्धा-भक्ति के साथ करते हैं और स्वयं को रूढ़ि मुक्त और अत्याधुनिक घोषित करते हैं। विडम्बना यही है कि स्त्री को आज तक अपनी इच्छा से अपने जीवन साथी को चयन करने का अधिकार प्राप्त नहीं हुआ है। अपने पुरुषवादी वर्चस्व को अविचलित रखने के लिए हमारा समाज उसे इस अधिकार से वंचित ही रखना चाहता है। आज की स्त्रीवादी अवधारणा को हिंदी के सुविख्यात कवि जयशंकर प्रसाद ने आधुनिक काल के प्रारम्भ में ही विख्यात महाकाव्य "कामायनी" (1936) में पुरुष को यह उपदेश दे दिया था कि यदि उसे अपने लिए जीवन संगिनी को चयन करना हो और यदि उसे (महाकाव्य का नायक - मनु) अपनी प्रेमिका "श्रद्धा" का वरण करना हो तो उसे ही (मनु को) श्रद्धा (स्त्री) के योग्य बनना होगा, तभी श्रद्धा उसका वरण करेगी। "कामायनी" में जयशंकर प्रसाद की निम्नलिखित पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं -

"जड़ चेतनता की गाँठ वही, सुलझन है भूल-सुधारों की
वह शीतलता है शांतिमयी, जीवन के उष्ण विचारों की।
उसके पाने की इच्छा हो, तो योग्य बनो - कहती;
वह ध्वनि चुपचाप हुई सहसा, जैसे मुरली चुप हो रहती।"

आधुनिक युग के प्रारम्भ में ही हमारे कवियों और विचारकों ने स्त्री की स्वेच्छा और स्वतन्त्रता के अधिकारों की उद्घोषणा कर दी थी। किन्तु हमारा समाज स्त्री विरोधी वैचारिकता से मुक्त नहीं हो पा रहा है। पुरुष को अपनी जीवन संगिनी प्राप्त करने के लिए स्वयं को स्त्री के विचारानुकूल ढलने की यह संकल्पना आज की वास्तविकता के विपरीत है। विवाह की पुरुषवादी परंपरा, स्त्री की अधीनस्थता की स्थिति को पुष्ट करती है। "कामायनी" में पुरुष (मनु) की चिंता का कारण जानने के लिए जो पहल स्त्री "श्रद्धा" करती है वह आधुनिक युग की स्त्रीवादी अवधारणा के विकास का संकेत है। चिंता मग्न 'मनु' को एकांत में बैठा देखकर श्रद्धा अपनी और से उस अपरिचित पुरुष से पूछती है -

"कौन तुम? संसृति - जलनिधि तीर, तरंगों से फेंकी मणि एक,
कर रहे निर्जन का चुपचाप, प्रभा की धारा से अभिषेक?
मधुर विश्रांत और एकांत - जगत का सुलझा हुआ रहस्य
एक करुणामय सुंदर मौन, और चंचल मन का आलस्य !"

सामान्यत: भारतीय समाज में स्त्री-पुरुष दोनों में प्रथम पहल पुरुष करता है लेकिन यहाँ स्त्री, पुरुष से उसकी व्यथा एवं व्याकुलता का कारण पूछती है और फिर उसकी सहायता करने के लिए तत्पर हो जाती है। पुरुष के लिए आवश्यक है कि वह स्त्री की अंतर्निहित शक्ति को पहचाने और उसे विकसित होने का अवसर दे। भारतीय समाज के लिए यह परम आवश्यक है कि वह स्त्रियाँ को शैक्षिक, आर्थिक धरातल पर उसके व्यक्तित्व के संवर्धन और प्रगति के लिए अधिक से अधिक अवसर विकसित करे। स्त्री की ममता, दया, माया, मोह, प्रेम और समर्पण के गुणों का तो पुरुष दोहन करता है किन्तु अंत में वह उसे अपनी दासी ही बनाकर रखना चाहता है।

नारी पुरुष के जीवन को अपने समर्पण की मधुरिमा से भर देती है। उसमे प्रेम और समर्पण का भाव प्रकृति ने सहज रूप से भर दिया है जिसे वह स्वयं जानती है इसीलिए कहती है -

"समर्पण लो सेवा का सार, सजल संसृति का यह पतवार,
आज से यह जीवन उत्सर्ग, इसी पद ताल में विगत विकार।
दया, माया, ममता लो आज, मधुरिमा लो, अगाध विश्वास;
हमारा रत्न निधि स्वच्छ, तुम्हारे लिए खुला है पास।"

स्त्री को उसके हिस्से के सामाजिक कर्तव्य को सम्पन्न करने की स्वतन्त्रता दी जानी चाहिए, तभी समाज में संतुलन बना रहेगा और नारी उत्पीड़ित नहीं होगी। इस संदर्भ में महादेवी के निम्नलिखित विचार दृष्टव्य हैं –

"हमारे यहाँ का पुरुष उसे (स्त्री को) किस अंश तक समझ सकेगा, यह कहना कठिन है। पुरुष की उग्र तपस्या और अखंड साधना स्त्री के द्वारा प्राय: भंग होती रही है, इसी से उसने इस मायावनी जाति के स्वभाव की व्याख्या करने के लिए पोथे रच डाले हैं।"

"स्त्री जब किसी साधना को अपना स्वभाव और किसी सती को अपनी आत्मा बना लेती है, तब पुरुष उसके लिए न महत्व का विषय रह जाता है, न भय के कारण, इस सत्य को सत्य मान लेना पुरुष के लिए कभी संभव नहीं हो सका। अपनी पराजय को बलात् जय का नाम देने के लिए ही संभवत: वह अनेक विषम परिस्थितियों और संकीर्ण सामाजिक, धार्मिक बंधनों में उसे बाँधने का प्रयास करता रहता है। साधारण रूप से वैभव के साधन नहीं, मुट्ठी भर अन्न भी स्त्री के सम्पूर्ण जीवन से भारी ठहरता है। फिर भी स्त्री का हारा हुआ मेरा मन कैसे स्वीकार करे, जब तक उसके परिस्थितियों से चूर चूर हृदय में भी आलोक की लौ जल रही है।" (अतीत के चलचित्र)

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

शोध निबन्ध

पुस्तक समीक्षा

साहित्यिक आलेख

सिनेमा और साहित्य

यात्रा-संस्मरण

अनूदित कहानी

सामाजिक आलेख

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं