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पुस्तक: हिंदी साहित्य के पुरोधा

पुस्तक: हिंदी साहित्य के पुरोधा (आलोचना संग्रह; तीन महत्वपूर्ण समीक्षा सहित)
समीक्षक:ब्रजेन्द्र त्रिपाठी
लेखक: डॉ. आरती स्मित
संस्करण:  द्वितीय, 2020
प्रकाशक:  वर्जिन साहित्यपीठ, दिल्ली
मूल्य:  ईबुक: 88 रु/-; पेपर बैक 225 रु/-
कुल पृष्ठ संख्या: 198


प्रस्तुत कृति 'हिंदी साहित्य के पुरोधा' हिंदी रचना जगत के तेरह महत्वपूर्ण साहित्यकारों के रचनाकर्म को केंद्र में रख कर लिखी गई एक विशिष्ट कृति है। ये रचनाकार हैं... भारतेंदु हरिश्चंद्र, महावीर प्रसाद द्विवेदी, प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, महादेवी वर्मा, नागार्जुन, भीष्म साहनी, अमरकांत, विद्यानिवास मिश्र, मधुकर गंगाधर, हरीश नवल, प्रकाश मनु और ओमप्रकाश वाल्मीकि। पुस्तक की लेखिका डॉ. आरती स्मित ने उपर्युक्त लेखकों के कृतित्व के कुछ विशिष्ट पक्षों का विवेचन-विश्लेषण करने के साथ उनके व्यक्तित्व के रूपाकारों को भी बड़ी आत्मीयता से उकेरा है। रचनाकारों के चयन को लेकर उनकी अपनी सुचिंतित दृष्टि है, जिसे उन्होंने अपनी भूमिका में स्पष्ट किया है। इन सभी रचनाकारों के साथ उन्होंने एक आत्मीय संबंध बनाया है, उनसे भी जो दिवंगत हैं और उनसे भी प्रत्यक्षतः एक प्रविष्ट रिश्ता जो हमारे बीच हैं। इस नाते इन रचनाकारों पर लिखे गए समीक्षात्मक शोधपत्रों में एक लालित्य भाव भी दिखाई देता है और कहीं-कहीं ये ललित निबंध का-सा आनंद देते हैं।

भारतेंदु हरिश्चंद्र को युग प्रवर्तक बताते हुए लेखिका का मत है कि उन्होंने हिंदी साहित्य को नया रूप देकर उसे जन-जीवन से जोड़ा, वहीं आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने खड़ी बोली को परिष्कृत एवं परिमार्जित कर उसे एक मानक रूप दिया। प्रेमचंद के उपन्यास 'कर्मभूमि' को केंद्र में रखते हुए उनके व्यापक सरोकारों पर चर्चा की गई है, वहीं प्रसाद के नाटक 'ध्रुवस्वामिनी' एवं अन्य नाटकों पर विचार करते हुए लेखिका यह निष्कर्ष निकालती हैं कि प्रसाद के अधिकतर नाटकों में नारी अपनी सम्पूर्ण जटिलताओं के साथ उपस्थित है। 'महादेवी की अंतर्वेदना' के अंतर्गत चर्चा करते हुए लेखिका ने कहा है कि यह उनकी वैयक्तिक पीड़ा नहीं, बल्कि समाज के प्रत्येक उपेक्षित व्यक्ति, वस्तु और समुदाय की पीड़ा है।

एक लेख में नागार्जुन के कवि कर्म की चर्चा करते हुए, उनके मानवीय और सामाजिक सरोकारों को रेखांकित किया गया है और उन्हें देश, जनता तथा धरती का कवि कहा गया है। भीष्म साहनी की कहानियों के स्वरूप पर विचार करते हुए उन्हें वास्तविकता की ज़मीन पर जीवन के यथार्थ को रूपायित करनेवाला बताया गया है। अमरकांत को प्रेमचंद की परंपरा का कथाकार मानते हुए उन्हें क़स्बाई और नगरीय निम्न मध्यवर्गीय जीवन का अनुपम चितेरा बताते हुए उनकी तमाम चर्चित कहानियों को विमर्श के केंद्र में रखा गया है।

एक लेख में पंडित विद्यानिवास के ललित निबंधों से उनके संवेदनशील मन को लेखिका ने परत-दर-परत खोला है और भाषा, राष्ट्र और समाज के प्रति उनकी चिंताओं और सपनों के पूरा न हो पाने की उनकी पीड़ा को अभिव्यक्ति दी है। जाने-माने दलित लेखक ओमप्रकाश वाल्मीकि की आत्मकथा 'जूठन'  और उनकी कहानियों का विवेचन करते हुए उन्हें दलित जीवन की मार्मिक व्यथा और दलितों के प्रति होने वाले अत्याचार, शोषण को बड़ी ही बेबाकी से व्यक्त करनेवाले चित्रकार के रूप में प्रस्तुत किया गया है।
     
प्रस्तुत पुस्तक में तीन जीवित रचनाकारों को भी शामिल किया गया है... मधुकर गंगाधर (हाल ही में दिवंगत), हरीश नवल एवं प्रकाश मनु। इन तीनों रचनाकारों को लेखिका ने बहुत ही आत्मीयता और निजता के साथ याद किया है। जहाँ मधुकर गंगाधर के कथाकार के रूप में पड़ताल की है, वहीं हरीश नवल के व्यंग्यकार रूप का विवेचन। प्रकाश मनु के बाल रचनाकार रूप की विशिष्टताओं का ख़ुलासा किया गया है। इतनी विविधताओं को समेटे यह पुस्तक निश्चय ही पठनीय बन गई है।

ब्रजेन्द्र त्रिपाठी
(पूर्व उपसचिव, साहित्य अकादेमी, दिल्ली)

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