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पूरा चाँद अधूरी बातें

पढ़ते-पढ़ते आँख लग गयी थी शायद… खुली तो देखा रात बहुत गहरा चुकी थी। उठकर कुछ और करने का साहस न था तो उसने सोचा कि वापस नींद की गिरफ़्त में खो जाना ही बेहतर होगा। टेबल लैंप बुझाया तो चाँद भीतर चला आया। नर्म रोशनी पसर गई उसके ऊपर। नज़र चाँद पर ठहर गई। चाँद पूरा सा था… उसे देखती सोचने लगी, ये पूरा है या पूरा सा है! जो पूरा दिखता है वह किसी के बिना कितना अधूरा होता है। अपने आप में क्या कभी पूरा होता है कुछ… सोचें तो किसी से मिलकर भी कहाँ पूरा हो पाता है, पूर्णता में दोष रहता ही है। बस एक ही तो है जो पूर्ण है! उसी से पूर्णता लेने के प्रयास में सब हैं और वह पूर्ण दे दे तब भी पूर्ण रहता है और हम सब कुछ लेकर भी अपूर्ण रहते हैं। 

जीवन में कितना कुछ रह जाता है। न चाहते हुए भी छूट जाता है और कभी तो जानबूझकर छोड़ना भी पड़ता है। अधूरी बातें एक-एक कर सामने पसरने लगीं। जब भी इन अधूरे टुकड़ों को समेटना चाहा है, उसे लगा है कि ये अधूरे टुकड़े अनन्त हैं। ये अनन्त चारों ओर गहमागहमी उत्पन्न करते हैं, फिर क्यों मन में एक शून्य व्याप्त हो जाता है। शायद अनन्त और शून्य एक ही हैं। शून्य, उसके आगे शून्य और, और आगे और भी बड़ा शून्य…  समझ नहीं आता कि क्या है ज़िंदगी में... जो है वो क्यों है और जो नहीं है वो क्यों नहीं है।

जाना ही नहीं है जब कहीं तो दौड़ते क्यों हैं?

क्या चाहिए? पता नहीं! क्यों चाहिए? पता नहीं। कभी उसने कुछ इसलिए चाहा कि वो होना चाहिए तो कभी इसलिए कि वो किसी और के पास था और कभी तो सिर्फ़ इसलिए कि सब कहते थे वह उसे नहीं मिल सकता। जब-जब किसी चीज़ पर रोक लगी उसे पाने की उत्कंठा और बढ़ी। उसने अपनी ज़िद पूरी की, ज़िद में भी, नाराज़गी में भी... जहाँ तक का उसे याद आता है एक वक़्त के बाद से उसने सिर्फ़ मन का सुना, मन का किया, आज़ाद कर लिया ख़ुद को बंदिशों से और पंख पसार दिए प्रेम के खुले आकाश में। यह ज़रूर बाद में जाना कि बन्दिशें कभी समाप्त नहीं होतीं सिर्फ़ रूप बदलती हैं, विशेष रूप से स्त्री जाति के लिए। ये बंदिशें कभी औरों की लगाई होती हैं तो कभी अपनी ही, कभी प्रेम की होती हैं तो कभी नाराज़गी की। बहुत किया मन का फिर भी कभी आँख मीच कर सोचा तो पाया कि  छोटी-छोटी कितनी ही बातें हैं जो नहीं की, कभी सभ्य होने के शग़ल में तो कभी अनजान, अनदेखी, अनचीन्ही बेड़ियों में जकड़े होने के कारण।

बहुत सी बातें हैं जो करने को दिल चाहता है लेकिन कर नहीं पाता, भीतर का ही कुछ रोकता है उसे, उस नुक्कड़ की गुमटी पर बैठकर चाय पीने से जहाँ दो बड़े-बड़े पत्थर पर लकड़ी का एक लंबा तख़्ता रखकर चायवाले ने उसे बेंच का आकार दे दिया है। उस चायवाले को स्टोव में पंप भरकर स्टोव की लौ और तेज़ करते हुए देखने और पीछे की ओर कप धोते लड़के को बैठकर देखना शायद उसकी क्लास स्वीकार नहीं करेगी। वो फेन मट्ठियाँ और यहाँ तक कि काँच के मर्तबान में रखी रंगबिरंगी मिठाइयाँ खाने को आज भी जी चाहता है लेकिन वह रोज़ उसके पास से सैर करते हुए आगे बढ़ जाती है, कभी रुककर चाय नहीं पी वहाँ उसने। 

अक़्सर ख़याल आता है कि काश अदृश्य होने की शक्ति होती उसके पास तो वहीं बैंच पर अदृश्य हो बैठ रहती और देखती व सुनती कि वहाँ जो एक हाथ में चाय और दूसरे में सिगरेट फसा कर खड़े होते हैं वो इतनी संजीदगी से किस मसले पर चर्चा कर रहे होते हैं। 

क्या ज़िन्दगी के संजीदा मसलों का हल नुक्कड़ की चर्चाओं में होता है? वह नहीं जानती लेकिन कई बार उसे लगता है कि शायद ये नुक्कड़ की चर्चा न हो तो देश की अर्थव्यवस्था तो डूब ही जाएगी। न जाने वो कौन सा दिन होगा कि वह उस गुमटी पर चाय बनने को कह कर वहाँ खड़े बुद्धिजीवियों से कह पाएगी कि सुनो, ये दुनिया ये देश तुम्हारे विमर्श से नहीं चलता। शायद ऐसा कभी हो ही न…

ज़िन्दगी के रेलमपेल में दौड़ते-भागते और रोज़ाना के रास्तों से गुज़रते कितने चेहरे सामने आते हैं, जिन्हें देखने के इस तरह अभ्यस्त हो जाते हैं कि कोई परिचय या बात न होने पर भी वह ज़िन्दगी का हिस्सा बन जाते हैं । कुछ को देख सहज ही एक स्मित उभर आती है, जिसके प्रत्युत्तर में मिली मुस्कान दिन रोशन कर देती है।

कुछ हफ़्ते पहले तक सुबह रसोई में काम करते देखती थी पीछे वाली बुज़ुर्ग महिला को। शायद अकेली रहती थी। नियम से 8 बजे तक उनका तौलिया बालकनी में सूखने आ जाता था।  शायद उनके घर के सामने वाली बालकनी में  धूप कम आती होगी तो सर्दियों में पीछे ही कुर्सी डालकर बैठ जाती थीं। छुट्टी होती तो  सारा दिन उसकी नज़रें वहीं घूमती रहतीं। बहुत बार मन किया कि उनसे जाकर मिले और उन्हें अपना फोन नंबर दे आये कि आंटी कभी भी ज़रूरत पड़े तो आप मुझे बुला सकती हैं। इस उम्र में भी उन्हें अपने सभी काम स्वयं करते देख एक गुनगुनी सी मुस्कान फैल जाती है उसके चेहरे पर। सुबह हाथ में अख़बार और दोपहर में कोई पुस्तक, शाम की ढलती धूप में चाय की प्याली। कभी वह पीछे की बालकनी में शाम को सूखे कपड़े उठाने जाती तो मुस्कुराहटों का आदान-प्रदान हो जाता था। अब कई दिनों से वह दिखाई न दी तो बेचैनी बढ़ती जा रही है उसकी। किससे पूछे कि आंटीजी कहाँ गई। फिर टहलने के बहाने पिछली गली में चली गयी थी एक रोज़ तो पता लगा था कि आंटीजी कुछ अस्वस्थ हुई तो उन्हें वृद्धाश्रम भेज दिया था। घर के आगे 'फ़ॉर सेल' का बोर्ड लगा था। उसका दिल रो उठा था… काश वह जाकर अपने मन की बात कह आई होती। वह कह भी आई होती तो क्या उनके लिए कुछ कर पाती? कितने दिन तक उस बालकनी की ख़ाली कुर्सी को देख मन में यही आता रहा था कि जीवन की परिणति कैसी होती है, कितने मन से उल्लास से परिवार बनाने वाले अकेले रह जाते हैं ख़ाली नीड़ में।

एक लंबी साँस लेकर करवट बदली तो खिड़की के बाहर के पेड़ की छाया से दीवार पर बन रही आकृतियों में उसे वो बुज़ुर्ग दंपती नज़र के आगे कौंध गए, जो रोज़ाना सामने वाले पार्क में कीर्तन में जाते थे। महिला जिस अदा से तैयार होती हैं, उन्हें देख दिल ख़ुश हो जाता है। बहुत बार मन चाहा कि आंटी को कहा जाए कि आंटी आप बहुत सुंदर दिखती हैं आज भी, ईश्वर करे आप दोनों सदा यूँ ही साथ रहें हमेशा। लेकिन उस रोज़ जब ऑफ़िस से लौटते हुए यह सोचकर खुल कर मुस्कुराई कि आज पक्का बोलना है और आंटी जी ने ब्लेंक सा लुक दिया तो शब्द भीतर ही जज़्ब हो गए। फिर एक सीख मिली कि ज़रूरी नहीं कि जैसा आप सोचते हैं सामने वाला भी वैसा ही सोचता हो। वह आपकी भावनाओं से अलहदा सिर्फ़ आपका आवरण देखता है और अपने भरम बुनता है। उसके भीतर अपनी ही कहानियाँ होती हैं। 

हर व्यक्ति अपने भीतर एक अलग संसार लिए घूमता है। आप उसकी दुनिया में वहीं तक पहुँचते हैं, जहाँ तक वह अनुमति दे। और बहुत बार तो सामने वाला द्वार खोल बैठा होता है तब भी आप उसके भीतर उतरने का साहस नहीं जुटा पाते कि आपको लगता है आप मन पर एक और बोझ नहीं उठा पाएँगे। मन हर बार किसी के दुख पर, बेज़ार होता है, आहत होता है और फिर उसका उपचार करने के लिए एक लंबी प्रक्रिया से गुज़रना पड़ता है। 

बस यही तो कारण था कि वह एक बार फिर छिलने का साहस न जुटा पाई थी।

कार्यालय परिसर के गेट पर खड़े गार्ड दिनचर्या में शुमार हैं, उनकी ड्यूटी बदलती रहती हैं, लेकिन कुछ चेहरे ऐसे रच बस गए हैं कि कुछ दिन न दिखें तो बेचैनी होने लगती है। राजस्थान वाली मुस्कुराती हुई गार्ड जिसे हेलो बोलने की आदत पड़ गई थी जब कई दिन बाद दिखी, और वह भी कुछ बुझी-बुझी सी तो पूछने का बहुत मन था कि इतने दिन कहाँ थीं लेकिन मुस्कुराहट में सिमटे रिश्ते को शब्द न मिले। फिर वही चौड़ी मुस्कान के बीच से दोनों गुज़र गए थे और उस दिन के बाद वह फिर नज़र न आई। अब कहाँ खोजे उसे, बस प्रार्थना में याद करती है उसे कि जहाँ हो वह मुस्कुराती रहे।

वह पान वाला जिससे क़रीब 10-12साल पहले बड़े बेटे के लिए चिप्स ख़रीदती थी। बरसों हो गए उससे कुछ भी ख़रीदे लेकिन उसकी मुस्कान वैसे ही खिलती है। कभी-कभी यूँही जाकर उससे कुछ टॉफी और चिप्स खरीद लेती थी… उन टॉफियों में बचपन नहीं मिलता लेकिन उस बुज़ुर्ग की मुस्कान मिल जाती। फिर जब लम्बी छुट्टी के बाद बहुत दिन बाद गुज़री उधर से तो वहाँ से उसका खोका ग़ायब था…  गार्ड से पूछा तो पता लगा वह भी नया था, उसे कुछ नहीं मालूम। ऐसी न जाने कितनी मुस्कानें चलते-चलते मिलीं जीवन में और फिर खो गईं।

वो रिक्शावाला जिसके रिक्शे में बमुश्किल चार-पाँच बार बैठी होगी लेकिन फिर भी वो हर दिन आवाज़ लगता है यह जानते हुए भी कि ज़रा सा आगे खड़ी गाड़ी उसे ही लेने आई है। उसकी गुहार सुन मन करता है रोज़ का रिक्शा लगा ले, लेकिन वह ऐसा नहीं कर पाती। क्या एक को बाँध देना अन्य से अन्याय न होगा, तो चलती रहती है। जब गाड़ी नहीं आती तो जो सामने मिलता है वही ऑटो या रिक्शा ले लेती है। आज ही तो,  ऑटो लिया तो देखा चालक बहुत बुज़ुर्ग थे। मन कर रहा था उन्हें एक ओर बिठाकर पूछे कि क्या मजबूरी है कि वह इस उम्र में भी काम कर रहे हैं। नहीं कह पाई, वो जो आगे इंतज़ार कर रहा था उस तक पहुँचने को देर हो रही थी।

बस प्रारब्ध खींचता जाता है और नियति की डोर से खिंचते हुए न जाने कितनी बातें छूट जाती हैं पीछे। कितने लम्हे यूँ खो जाते हैं संकोच में, फिसल जाते हैं, पर मन पर एक छाप एक मलाल छोड़ जाते हैं… और मन भटकता, उड़ता फिरता है अधूरी चाहतों में। 

सोने की कोशिश में उसने फिर आँखें बन्द कर लीं और फिर उसकी बन्द आँखों में रोशनी के दो टुकड़े तैर गए। वह अक़्सर सोचती है कि बन्द आँखों में जो दो रोशनी के टुकड़े, रहते हैं आँखें खोलने पर बिखर ग़ायब क्यों  हो जाते हैं… यही जीवन है शायद, हर पल कुछ छोड़ता बिखरता दूर जाता सा… इसी एहसास के साथ आँख फिर बंद हुई और नींद ने आँचल में समेट लिया उसे। शायद नींद में ही पूर्णता है!

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