प्यार का रंग
काव्य साहित्य | कविता डॉ. सरिता मेहता15 Jan 2012
आए गए देखो कितने बसंत,
न मन से छूटा वो होली का रंग।
वो बाली उमरिया के अन्तिम पहर में,
वो चढ़ती जवानी के पहले बसंत।
जब लगाया था साजन ने होली का रंग।
शर्मो हया से झुक गई थी नज़र,
थरथराने लगा था, नाज़ुक बदन।
दुपट्टे का कोना उँगली पे लपेटे,
तिरछी नज़रों से देखा था अपना सजन।
वो बाली उमरिया के अन्तिम पहर में....
उसकी छुअन ने दिल पे लिखी इक नज़्म,
बिना डोरी के बाँधा उसने मेरा मन।
मेरे चेहरे पे कितना था नूर आ गया,
प्यार का रंग कैसा ग़ज़ब ढा गया।
वो बाली उमरिया के अन्तिम पहर में......
बंद होंठों में गीत गुनगुनाने लगे,
वादियों में भी गूँजी थी बंसी की धुन।
और बागों में फूलों की रुत आ गई,
चटकने लगी कलियाँ, खिले थे गुलाब।
वो बाली उमरिया के अन्तिम पहर में.....
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