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क़लमकार की पीड़ा

"वर्षों पहले मैं मेटाबोलिक अस्थि रोग की चपेट में आ गया, जिससे सामान्य व्यक्ति की तरह चलने-फिरने, उठने-बैठने में असमर्थ हो गया। मेरी हड्डियों में छोटे-छोटे फ्रेक्चर हैं। लेकन दिमाग़ मेरा साथ दे रहा है। मेरी स्मृतियाँ सजग हैं। मैं अभी कुछ और उपन्यास तथा कहानियाँ लिखना चाहता हूँ। मैं फिर कहता हूँ कि यह किसी के विरुद्ध नहीं, बल्कि व्यवस्था का रूप है, जिसमें मेरे जैसा हिन्दी का लेखक फँसकर निरूपाय अवस्था में आ गया है। मेरे सामने यह समस्या है कि कैसे स्वाभिमान की ज़िंदगी बिताकर अपनी समस्याएँ हल कर सकूँ।" — अमरकांत 

उक्त पंक्तियाँ कीर्तिशेष कथाकार अमरकांत (1925 - 17 फ़रवरी 2014) की उस पीड़ा भरी पाती से ली गयी हैं जिसमें इस अस्वस्थ एवं घोर आर्थिक संकट से जूझ रहे क़लमकार की कारुणिक स्थिति उजागर होती है। इन पंक्तियों से सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि अपने समय का यह महान कथाकार विषम स्थितियों में बुरी तरह से फँसा होने के बावजूद भी सामाजिक ज़िम्मेदारियों का निर्वहन करने के लिए संकल्परत तो रहा ही, प्रयत्न भी करता रहा कि उसका शेष जीवन स्वाभिमान एवं सम्मान से साहित्य सेवा करते ही बीते। अपने समय की जटिलता एवं वीभत्सता से जूझते हुए अमरकांत द्वारा लिखते-पढ़ते रहने की बात करना उनके अटूट साहित्य प्रेम एवं सामाजिक सरोकारों को व्यंजित करने की प्रबल इच्छा तो दर्शाता ही है, इससे यह भी परिलक्षित होता है कि वह इस निरूपाय स्थिति में भी सकारात्मक सोच रखते रहे, जोकि असाधारण है। ऐसा साहस, ऐसी भावना, ऐसा समर्पण उन्हें वर्तमान समय के महानायकों की पंगत में बड़े गर्व से बिठाने के लिए काफ़ी है। उनकी वैचारिकी कीर्तिशेष गीतकवि एवं 'नये-पुराने' पत्रिका के यशस्वी संपादक दिनेश सिंह (14 सितम्बर 1947 - 2 जुलाई 2012) के चिन्तन-मनन एवं सोच से काफ़ी मेल खाती है।

दिनेश सिंह 'सरवाइकल प्रॉब्लम्स' के कारण जीवन के अंतिम वर्षों में हाथ-पैर से ठीक से कोई काम नहीं कर पाया करते थे। काम कर पाना ही नहीं उन दिनों उनके लिए क़लम चला पाना भी संभव नहीं था, जबकि उनका मस्तिष्क पूरी तरह से काम कर रहा था। ऐसी दयनीय स्थिति में भी उन्होंने अपने सहायक (अवनीश सिंह चौहान) के सहयोग से नये-पुराने का "कैलाश गौतम स्मृति अंक" (जुलाई 2007) निकाला, जिसकी साहित्य समाज ने भूरि-भूरि प्रसंशा की। इस अंक के प्रकाशन के बाद उनका स्वास्थ्य पहले से काफ़ी अधिक ख़राब हो गया— न तो वह चल-फिर सकते थे और न ही बोल-बतिया सकते थे। ऐसे में अमरकांत की तरह ही उनको भी उतना स्नेह एवं सहयोग नहीं मिल सका जितना कि मिलना चाहिए था। 

अमरकांत अपनी उपर्युक्त पाती में वर्तमान सामाजिक व्यवस्था के कोढ़— भ्रष्टाचार एवं शोषण की बात खुलकर करते हैं, जिसका सामना उन्हें अपनी असल ज़िंदगी में भी करना पड़ा। इन विसंगतियों के मूल में जाने पर धन एवं वैभव पाने की आज के आदमी की तीव्र लालसा साफ़ झलकती है— इसके चलते उसके लिए पैसा ही सब कुछ हो गया है और मानवीय आयमों के प्रति उसकी आस्था कम होती चली जा रही है। आज पैसे के अभाव में अच्छा काम करने वाला व्यक्ति जीते-जी अपने समाज में पर्याप्त मान-सम्मान और स्नेह प्राप्त नहीं कर पाता है। ऐसे में बुद्धिजीवी भले ही बाज़ारवाद के बढ़ते प्रभाव एवं पैसे की 'खुदाई' पर बहुत कुछ अच्छा लिखते-बोलते हों, उनके इन शाब्दिक प्रयासों से इस दिशा में बदलाव की कोई संभावना दूर-दूर तक दिखाई नहीं पड़ रही है।

ऐसा इसलिए भी है कि आज संसार में अच्छी-अच्छी बातें करने वाले तो बहुत मिल जायेंगे किन्तु उस पर अमल करने वाले कम ही हैं और जब इस अल्पसंख्यक समुदाय के लोग आदर्श जीवन जीने का प्रयत्न करते हैं तो उन्हें कई बार ऐसी दुखद स्थितियों से गुज़रना पड़ जाता है कि वे अन्दर तक टूट जाते हैं। उनके दुर्दिनों में विरला ही कोई उनके साथ दिखाई पड़ता है। तब यह बात बहुत मायने रखती है कि जहाँ एक सच्चा साहित्यकार दूसरों की पीड़ा को अपनी पीड़ा समझकर अपनी लेखनी से, अपने शब्दों से अपनी संवेदना व्यक्त करता है, वहीं उसकी स्वयं की विषम स्थिति में लोग उसके प्रति संवेदित क्यों नहीं होते? ऐसे अवसरों पर अपना निजी स्वार्थ छोड़कर और आपसी भेदभाव तथा कटुता आदि को भुलाकर कम से कम बुद्धिजीवियों को एक मंच पर आकर पीड़ित लेखक-साहित्यकार की समस्याओं का हल खोजने का दायित्व निभाना चाहिए और उनके अच्छे साहित्य को 'प्रमोट' कर ऐसे प्रयास किये जाने चाहिए जिससे उन्हें फटेहाली का जीवन जीने के लिए मजबूर न होना पड़े। इस हेतु उनके साहित्य के प्रकाशन एवं वितरण का काम ऐसे लोगों को सौंपा जा सकता है जो उनको उनका पूरा हक़ दिला सकें।

ऐसी साहित्य सेवी संस्थाएँ भी स्थापित की जा सकती हैं जो दानदाताओं से पैसा ओर अन्य संसाधन जुटाकर ज़रूरतमन्द रचनाकारों की मदद कर सकें। मीडिया, सरकार, डॉक्टर्स एवं सुधी समाज-सेवकों को भी इस ओर ध्यान देना होगा तभी ऐसे साहित्यकारों का कुछ भला हो सकता है और तभी पीड़ित-व्यथित क़लमकार द्वारा की जाने वाली किसी 'अपील' का कोई माने निकल पायेगा। यहाँ यह भी विचारणीय हो जाता है कि क़लमकार के प्रति समाज का नजरिया कैसा है? समाज का एक बड़ा तबका इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, विशेषकर चेनलों के वशीभूत होकर, साहित्य के पठन-पाठन में अपनी रुचि खो चुका है, उसके लिए रचनाधर्मिता/ साहित्यिक सृजन फ़ालतू का काम भर हो गया है। वहीं धनाढ्य वर्ग रचनाकार को 'पागल' या 'बहुत फ़ुर्सत में है' समझकर उससे अपना पल्ला झाड़ लेता है। घर-परिवार के लोग उसे 'किसी काम का नहीं' या 'किताबी-कीड़ा' मान बैठते हैं। बौद्धिक वर्ग भी कई खेमों में बँटा हुआ है— इसलिए जब वह उस खेमे से नहीं जुड़ पाता तब वह अपनी आत्ममुग्धता में उसकी आलोचना एवं निन्दा करने लगता है, उसकी रचनाधर्मिता पर चुप्पी साधकर उसकी उपेक्षा करने का प्रयत्न करता है या तीखी प्रतिक्रिया कर उसके साहित्य को कमतर आँकने की बौद्धिक क़वायद करता है।

प्रकाशन तथा व्यावसायी वर्ग को साहित्य से माथापच्ची करने की कहाँ फ़ुर्सत? उसे तो इससे पैसा बनाना है और वह बना भी लेता है। लेखक की पीड़ा एवं परिश्रम की किसे परवाह— वह चलता है तो चले, मरता है तो मरे, किसी को क्या लेना-देना? ऐसा ही अमरकांत एवं दिनेश सिंह के साथ यह सब देखा ही गया है। केवल उनके साथ ही नहीं ऐस बहुत से क़लमकार हुए हैं और आज भी हैं जिनका जीवन सामाजिक व्यवस्था में फंसकर दूभर हो गया। कबीर को ही लें— बादशाह सिकन्दर लोदी के आदेश पर उन्हें जानलेवा प्रताड़ना दी गई, सिर्फ़ इसलिए कि उन्होंने सच बोल दिया था। जायसी शेरशाह सूरी द्वारा अपमानित किये गये, तो कुंभनदास ने ‘संतन को कहाँ सीकरी सो काम‘ कहकर मुगल बादशाह की नाराज़गी मोल ले ली थी। आधुनिक कथाकार मोहन राकेश को अपने पिता की अर्थी तब उठाने को मिली जब उन्होंने अपनी माँ का कंगन बेचकर मकान मालिक को किराया चुका दिया। महाप्राण निराला जीवन-भर दर-दर की ठोकरें खाते रहे, तो शैलेश मटियानी अपना साहित्य बेचकर और एक साहित्यिक पत्रिका निकालकर जैसे-तैसे अपनी रोज़ी-रोटी जुटाते रहे। कुछ इसी प्रकार अमरकांत तथा दिनेश सिंह भी किश्तों में जीवन जीते रहे। 

इन तमाम कहे-अनकहे तथ्यों की तह में जाने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि इतने बड़े स्तर पर चिन्तन-मनन करने वाले अनुकरणीय व्यक्तित्व अपने व्यक्तिगत जीवन में आर्थिक दृष्टिकोण से अगर सफल नहीं हो पाते, तो कहीं न कहीं इसके पीछे उनके सिद्धांत रहे हैं— स्वाभिमान रहा है, सच्चाई रही है, किसी के सामने हाथ न फैलाने का दृढ़संकल्प रहा है। उनके जीवन में कितनी भी फटेहाली रहे, कितना ही कष्ट आये, परन्तु ये लोग अपने जीवन मूल्यों से कभी समझौता नहीं कर पाते और समाज भी इनसे अपनी क़दमताल मिलाना मुनासिब नहीं समझता। शायद इसीलिए इस दिशा में सोचने और उस पर अमल करने की आज विशेष आवश्यकता है।

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