अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

आर. बी. भण्डारकर – डायरी 001 : घर-परिवार

24 अक्टूबर 2020

मेरे ठीक सामने जो दीवाल घड़ी टँगी है उसमें इस समय सवेरे के 9 बज रहे हैं। यह घड़ी 15 मिनट आगे है। घर पर कहा जाता है कि ऐसा इसलिए किया गया है ताकि स्कूल/ऑफ़िस जाने वाले जल्दी तैयार हो जायें, उन्हें जाने में देर न हो। पर आलम यह है कि सबको मालूम है कि यह घड़ी 15 मिनट आगे है।

"बिटिया तुम्हारा ऑफ़िस का टाइम हो रहा है, जल्दी तैयार होओ।"

"अभी देर है पापा जी;जो घड़ी आप देख रहे हैं वह 15 मिनट आगे है।"

अब जब आप सब यह मानकर ही चल रहे हैं कि घड़ी 15 मिनट आगे है, तो घड़ी आगे रखी ही क्यों?

(यह सच्चाई है कि अब ये लोग घड़ी में ठीक समय कर देंगे तो भी इनके दिमाग़ में रहेगा कि घड़ी तो 15 मिनट आगे है और पक्के तौर पर स्कूल/ऑफ़िस जाने में लेट होंगे।)

मैं बेड टी (bed tea) तो नहीं पीता पर पूर्वाह्न 8:30 पर चाय पीता हूँ।... मेरी इस चाय को आप शायद ही चाय स्वीकार करें... मग्गा भर (लगभग 200 मि.ली.) दूध में नाम मात्र की चाय पत्ती, उससे दुगुना, तिगुना कोरोना कालीन काढ़ा-चूर्ण और पर्याप्त चीनी। (मैं ख़ूब मीठी चाय पसंद करता हूँ न)

इस चाय के साथ 11छिले हुए बादाम (रात भर पानी में भीगे हुए) और चार-पाँ बिस्कुट। (पता नहीं ये लोग 11 बादाम ही क्यों देते हैं; कोई शगुन है क्या? वैसे मैंने यत्र-तत्र 4-5 से लेकर मुट्ठी भर बादाम दिए जाने की बात पढ़ी है।)
9:30 बजे नाश्ता। ये लोग कहते हैं नाश्ते में ओट्स हैं। मुझे लगता है कि वह बेझर (जौ/Barley) का चपटा दलिया है जिसे मेरे घर के ये लोग 200/250 ग्राम दूध में हल्की चीनी डालकर पका देते हैं। ओट्स... सम्भव है यह जई हो या इसी समूह का कोई अन्न। बिटिया जी कहती हैं कि इसमें मुख्य घटक तो जई होता है पर कुछ और भी खाद्य पदार्थ मिला कर बनता है ओट्स। जो भी हो पर मेरा निश्चित मानना है कि जौ का दलिया भी इससे न तो स्वाद में कम ठहरेगा और न पौष्टिकता में; पर . . . "गाँव का जोगी जोगना, आन गाँव का सिद्ध" लोकोक्ति ऐसे ही थोड़े बन गई है।

12:30 के आसपास दोपहर का पूरा खाना बनता है। मैं प्रायः केवल दो चपाती कभी केवल दाल से तो कभी केवल सब्जी से खाता हूँ। (घर भर को शिकायत रहती है, पापा जी खाना बहुत कम खाते हैं। . . .इनकी नज़र में सवेरे का 400-450 मिलीलीटर दूध, बादाम, बिस्कट, ओट्स मानो पापा जी के पेट में न जाकर कहीं और चले गये हैं।)

ऊँ . . . अरे गाड़ी पटरी से उतर गयी . . . मुझे तो 9 बजे की डायरी लिखनी है !

ख़ैर . . . कल मेरा चश्मा गुम गया; परेशानी ही परेशानी; जिस इलाक़े में अच्छे चश्मे बनते हैं, उधर कोरोना का संवेदनशील इलाक़ा है।. . . नया चश्मा बनने तक काम चलाने के लिए "यह" पुराना चश्मा ढूँढ़ लायीं। मैंने अभी हाथ में लिया ही था कि मेरे चार वर्षीय दौहित्र जी ओम भैया आ टपके।

"नाना जी मार्किट (market ) से न्यू (new) चश्मा लाये हैं?"(उत्तर की प्रतीक्षा किये बिना) "नाना जी लगाकर तो देखिए" . . . इतना कहकर, मेरे हाथ में से चश्मा लेकर, मेरी नाक और कानों पर रख दिया जाता है।

"नाना जी वेरी गुड (very good) ये तो सही बन गया, फिट (fit)।"

(मेरी दोनों पोतियाँ अपनी दादी को दादी कहती हैं। सो देखी देखा ये महाशय भी उन्हें नानी न कहकर दादी ही कहते हैं।). . . "दादी! नाना जी का न्यू (new) चश्मा फिट (fit) बन गया, ग्रेट (great)।"

(इन्हें इस बात से कोई लेना-देना नहीं कि इनके न्यू (new) व फिट (fit) चश्मे से इनके नाना जी को कुछ दिखेगा भी कि नहीं . . .)

(मेरी छोटी बेटी को मेरी दोनों पोतियाँ बुआ कहती हैं सो ये जनाब भी अपनी इस मौसी को बुआ कहते हैं।)

इनकी यह बुआ बीच में बोल पड़ीं – "ओम भैया यह न्यू (new) चश्मा नहीं है ओल्ड (old) है। नाना जी का चश्मा कल गुम हो गया, तो दादी ने पुराना चश्मा ढूँढ़कर दिया है नाना जी को।"

"आउल (Owl), न्यू (new) चश्मा है। नाना जी कल मार्किट (market) से लाये हैं।"

"यू आउल (You owl)। यह न्यू (new) नहीं ओल्ड (old ) चश्मा है। नाना जी मार्केट से नहीं लाये; दादी ने अंदर से ढूँढ़ कर दिया है।"

"यू आउल (You owl) बुआ . . ."

(4 वर्षीय ओम भैया और उनकी 25 वर्षीय इन बुआ की नोंक-झोंक इसी तरह होती है।)

ओम भैया को लगा कि शायद उनका पक्ष कुछ कमज़ोर पड़ रहा है सो नाना जी को बीच में ले लिया।

"नाना जी न्यू (new) है न?"

अब नाना जी क्या कहते? बोले, "हाँ.. आँ... भैया इससे ठीक से दिखता नहीं है सो दूसरा चश्मा लेना पड़ेगा।"

"ओ के (Ok) नाना जी, डोंट वरी (dont worry) मैं मास्क लगाकर माँ के साथ मार्किट (market) जाऊँगा और आपके लिए दूसरा चश्मा लाऊँगा, ओ के (ok)?"

"ओके भैया।"

ओम भैया–(बुआ की तरफ अजीब मुखाकृति बनाकर) बोले, "ओए ओए बुआ, आपको मार्केट (market) नहीं ले जाऊँगा।"

अब मैं . . . यह डायरी लिख रहा हूँ। पास में पड़े दीवान पर ओम भैया की धमा चौकड़ी चल रही है। उनकी दादी (यानी नानी) माँ और बुआ (यानी मौसी) अपने अपने काम में लग गए हैं।
– 000 –
(लेखक दूरदर्शन के सेवा निवृत्त उपमहानिदेशक और वरिष्ठ पत्रकार हैं।)
 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

01 - कनाडा सफ़र के अजब अनूठे रंग
|

8 अप्रैल 2003 उसके साथ बिताए पलों को मैंने…

02 - ओ.के. (o.k) की मार
|

10 अप्रैल 2003 अगले दिन सुबह बड़ी रुपहली…

03 - ऊँची दुकान फीका पकवान
|

10 अप्रैल 2003 हीथ्रो एयरपोर्ट पर जैसे ही…

04 - कनाडा एयरपोर्ट
|

10 अप्रैल 2003 कनाडा एयरपोर्ट पर बहू-बेटे…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

पुस्तक समीक्षा

कविता

चिन्तन

कहानी

लघुकथा

कविता - क्षणिका

बच्चों के मुख से

डायरी

कार्यक्रम रिपोर्ट

शोध निबन्ध

बाल साहित्य कविता

स्मृति लेख

किशोर साहित्य कहानी

सांस्कृतिक कथा

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं