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आर. बी. भण्डारकर – डायरी 010 – और चश्मा गुम हो गया

दिनांक  24 जुलाई 2021

अपराह्न के तीन बजे हैं। आज के विशेष दिवस के पूजन-पाठ आदि कार्यक्रम सम्पन्न होने के पश्चात अब डायरी लिखने बैठा हूँ।

आज गुरु पूर्णिमा है। गुरु पूर्णिमा भगवान वेदव्यास जिन्हें  कृष्णद्वैपायन भी कहा जाता है, का जन्मदिन है इसलिए इस पर्व को व्यास पूर्णिमा भी कहा जाता है। कहीं-कहीं इसे आषाढ़ पूर्णिमा, मुड़िया पूनों भी कहा जाता है। मौलिक रूप से यह गुरु पूजा का दिन है।

हमारे यहाँ गाँवों में इसे "कुन पुजू" कहा जाता है। इस दिन ग्रामीण कृषक स्नान-ध्यान कर कृषि और पशुधन की रक्षा के लिए स्थानीय पकवानों से स्थानीय देवी-देवताओं की विधिपूर्वक पूजा करते हैं। घर की महिलाएँ घर के कोनों की पूजा करती हैं। प्रायः घर के बड़े बुज़ुर्ग एकाशना रखते हैं, पूजा करने के बाद दिन के तीसरे पहर में ही भोजन करते हैं। मैं इस दिन को बचपन से ही इसी रूप में देखता आया हूँ।

घर के कोनों की पूजा?

जिज्ञासा का समाधान कुछ यूँ मिला–

(मेरी पुस्तक 'संचयिता' में संगृहीत मेरी ही लघुकथा "कुन पुजू" में से–)

"अइया और बात तौ समझ में आय गई अकेलें ज समझ में नईं आई  कै कोंनिन की पूजा काय करी जात है?"

"लला कौनिन मेंई तौ रहात हैं चुखरा(चूहा), छिपकुलीं, निनन(अन गिनत) कीड़ा मकोड़ा।"

"अइया रोज रोज तौ तुम इन्हें भगाउतीं हौ?"

"रोज रोज की बात और है। आज तौ तौहार है। बेऊ जीव कबहुँ कबहुँ हमाये कामें आउत हैं तासें, आज उनकी पूजा करकें उन्हें भरपेट भोजन दओ जात है।"

"लोक की इस सोच के आगे मैं नतमस्तक।"

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अब, आजकल देखता हूँ कि इस पर्व के प्रति जैसी उत्सव-धर्मिता गाँवों में पहले थी, अब वैसी भावना नहीं दिखती है। मन उदास हो जाता है।

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उदास मन अब कुछ उद्विग्न-सा है। . . . कोरोना की दूसरी लहर के आतंक से अभी ढंग से उबरे भी नहीं हैं कि तीसरी लहर की चर्चाएँ होने लगी हैं। यद्यपि कोरोना से बचाव के लिए वेक्सीनेशन तेज़ी से चल रहा है और संभावना है कि तीसरी लहर आने तक विश्व की 18+ की बहुत बड़ी आबादी को टीके लग चुके होंगे पर चिंता भावी विश्व यानी बाल-गोपालों की है क्योंकि विश्व के अधिकांश देशों में 12-18 वर्ष तक के किशोरों के टीके या तो अभी तक उपलब्ध ही नहीं हैं, या कम मात्रा में हैं। यह भी कि अभी तक 0-12 वर्ष तक के नौनिहालों के लिए भी टीके कम ही देशों में हैं।

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प्रकृति में तमाम सम्पदा का, विभिन तत्त्वों का, ठोस, तरल गैस रूप पदार्थों आदि का अकूत, अक्षय भण्डार है। जीवाणु और विषाणु भी इन्हीं में से हैं। प्रकृति हमें उत्तम और उपयोगी ही देती है, जो हानिकर सामने आते हैं, जो तरह-तरह के प्राकृतिक प्रकोप या विषाणु (virus) सामने आते हैं, यह मानव की ही सायास या अनायास क्रियाओं के  परिणाम/दुष्परिणाम होते हैं। इस कोविड-19 के साथ भी यही स्थिति है।

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23 अक्टूबर 2020 का वाक़या आज फिर याद हो आया। . . . पहला कोरोना काल कुछ थमा-थमा-सा लग रहा था सो 22 मार्च 2020 के बाद उस दिन मैं पहली बार 11 पूर्वाह्न घर से बाहर निकला। घर से बाहर यानी सचमुच ही घर के बाहर; लगभग 7 माह हो गए थे उस दिन से पहले कभी घर के मुख्य दरवाज़े के बाहर मैंने क़दम ही नहीं रखा था; दिसम्बर 2020 की 31 तारीख को मैं 69 वर्ष का हो रहा था। आशय यह कि बुज़ुर्गों की श्रेणी में था, इसलिए कोरोना-काल में बाहर लगभग न निकलने की सलाह मिली थी, सो नहीं निकला घर से बाहर।

पूरे घर के न चाहते हुए भी मैं उस दिन यानी 23 अक्टूबर 2020 को घर से निकल ही पड़ा, मास्क लगाए, एक हाथ में कुछ काग़ज़-पत्तर तो दूसरे हाथ में सेनेटाइज़र की छोटी सी शीशी लिए। पहले बैंक गया, लगभग 1 किमी, फिर पोस्ट ऑफ़िस गया लगभग 2 किमी, दोनों जगह पैदल। इन्हीं दोनों गंतव्यों के बीच मैं कहीं अपना चश्मा छोड़ आया। यह रही उस दिन घर से निकलने की एक उपलब्धि?

वर्ष 2021 के लिए सीजीएचएस के कार्ड का  नवीनीकरण होना था, सो उसके वार्षिक शुल्क का डिमांड ड्राफ्ट बनवाना था, बनवा लिया, तत्सम्बन्धी फ़ॉर्म में लगाना था, लगा भी दिया पर फ़ॉर्म में  यथास्थान उसका नम्बर लिखना भूल ही गया और फ़ॉर्म स्पीड पोस्ट से भेज भी दिया। यह हुई उस दिन की दूसरी उपलब्धि।

(हालाँकि इस छोटी-सी ग़लती के बावजूद मेरे सीजीएचएस कार्ड  के रिन्यू होने में कोई दिक़्क़त नहीं आई थी।) 

'चश्मा बिन सब सून।' घर आया। सोचा गया कि चश्मा बैंक या पोस्ट ऑफ़िस में ही कहीं छूट गया होगा। बिटिया जी अपने एक्टिवा वाहन से चश्मा तलाशने दोनों जगह गयीं, परेशान हुईं, पर चश्मा नहीं मिला। यह तीसरी उपलब्धि रही। . . . पहले बिटिया को इसलिए साथ नहीं ले गया था कि यदि कोई काम एक व्यक्ति के जाने से ही हो सकता है तो इस कोरोना-काल में दो लोग क्यों जाएँ पर अंततः दूसरे सदस्य को घर से बाहर निकलना ही पड़ा, चश्मा ढूँढ़ने।

अत्यधिक  थक गया था; शारीरिक रूप से भी और मानसिक रूप से भी। मानसिक इसलिए कि चश्मे के बिना न तो कुछ पढ़ पा रहा था और न ढंग से टीवी देख पा रहा था। आप चाहो तो इसे मेरी चौथी उपलब्धि मान सकते हो, उस दिन की।

घर पर सब लोग असंतुष्ट दिखे, नाराज़ दिखे। इसलिए नहीं कि चश्मा गुमा दिया या सीजीएचएस के फ़ॉर्म में त्रुटि चली गयी बल्कि इसलिए कि "आप बाहर गए ही क्यों? तय हुआ था कि आपको घर से नहीं निकलना है। नहीं निकलना माने नहीं निकलना। बैंक ड्राफ़्ट बनवाने और स्पीड पोस्ट भेजने का कार्य तो बिटिया जी भी कर सकती थी।" यह नाराज़गी उस दिन की 5वीं उप . . . ।

मैं अक़्सर सोचता हूँ कि अच्छी 'स्मरण शक्ति' तो उचित होती ही है पर 'विस्मरण' भी अच्छा होता है– व्यक्ति भूले नहीं तो मानस दुखद स्मृतियों का पिटारा ही बन जाये; लेकिन उस दिन सोचता रहा  कि मैं इतना कैसे भूलने (विस्मरण) लगा? इतना क्यों भूलने लगा? . . . यह स्थिति तो अच्छी नहीं है।

फिर सोचा – अब चश्मे की चिंता कल। अपराह्न के 8 बजने को हैं, अब तो चलो सो जाना चाहिए। . . . और सचमुच उस दिन मैं जल्दी ही सो गया था। . . . नींद व्यक्ति को शारीरिक और मानसिक रूप से विश्रांति तो देती ही है, कई परेशान करने वाली स्थितियाँ भी विस्मृति में चली जाती हैं।

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स्मरण की दुनिया की सैर ख़त्म। अब आज की बात। . . . मैं अक़्सर रात का भोजन लेता नहीं हूँ; शाम 5 बजे के आस-पास कुछ हल्का-फुल्का खा लेता हूँ। आज  अभी कुछ ही देर पहले टमाटर की चटनी के साथ मूँग की दाल का चीला  खाया था, सेहत के हिसाब से यह इतना ही ठीक है।

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लो, मिट्ठू जी, पीहू जी और ओम भैया जी आ गए हैं। आते ही एक हाथ की उँगली पीहू जी ने तो दूसरे हाथ की ओम भैया जी ने थाम ली।

मिट्ठू जी बोले, " बब्बा जी चलें।"

सोने से पहले  हम चारों छत पर थोड़ा टहलने अवश्य जाते हैं, मिट्ठू जी इसी के लिए कह रहे हैं। हम चल पड़ते हैं; आगे-आगे मिट्ठू जी हैं, मेरे दाएँ हाथ की  उँगली  पीहू जी थामे हैं और बायें हाथ की उँगली ओम भैया के हाथ में है; ऐसे मित्र-समूह के साथ हम छत पर जा रहे हैं।

 

पीहू जी द्वारा निर्मित चित्र

 

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आधा घण्टे बाद  छत पर से लौटते हैं। बच्चे अपनी दादी, बुआ, अपने-अपनी मम्मा के पास चले जाते हैं। मैं अपने  बैठक सह लेखन कक्ष में आकर डायरी पूर्ण करता हूँ। . . . अब तो सोने की बारी है।

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टिप्पणियाँ

पाण्डेय सरिता 2021/08/20 11:55 AM

सुंदर जानकारी युक्त डायरी लेखन

Brajesh Singh 2021/08/12 12:55 PM

आदरणीय सर, आपका पूरा आलेख हमेशा की तरह एक साहित्यक/महत्वपूर्ण दस्तावेज है, परन्तु आलेख में मुझे सबसे महत्वपूर्ण कुन पुजू पूर्णिमा का वर्णन लगा. चूंकि मैं इस पूजा से अनभिज्ञ था, इसलिए पूजा के उद्देश्य की भी जानकारी नहीं थी. हमारे पूर्वज कितने करुणामय थे, इसका एक उदाहरण कुन पुजू है. इस जानकारी से मैं बहुत प्रभावित हुआ हूँ, जीवमात्र के प्रति करुणा का पाठ इस पूजा से बेहतर नहीं मिलेगा. बेहतरीन आलेख, बधाई एवं शुभकामनाएं सर

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