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राग-विराग – 005

हिमाचल-पुत्री गंगा, शिखरों से उतर उमँगती हुई सागर से मिलने चल पड़ती है। लंबी यात्रा के बीच मायके की याद आती है तो मानस लहरियाँ उस ओर घूम जाती हैं। इस स्थान पर आकर उन्होंने दक्षिण से उत्तर की ओर प्राय: चार मील का घुमाव लिया है। परम पुनीता, उत्तरमुखी सुसरिता के इसी उमड़ते स्नेहाँचल के, आग्नेय कोण में स्थित है अनादि नगरी– काशीपुरी! काशी शब्द का अर्थ ही है, प्रकाश देने वाली – जहाँ ब्रह्म प्रकाशित हो। समय-समय पर महान् चिन्तकों और आध्यात्मिक विभूतियों ने इसकी चैतन्यता को उद्दीप्त रखा है।

बालपन की दारुण दशा के बाद, भूख से बिलबिलाते, परित्यक्त बालक ने माँ अन्नपूर्णा की छाँह में शरण पाई थी। तुलसी की सारस्वत-साधना की केन्द्र भी यही नगरी रही। गुरु नरहर्यानन्द जी के सान्निध्य और शेषसनातन जी के पास रहकर तुलसीदास ने पन्द्रह वर्ष तक वेद-वेदांग का अध्ययन किया था, यहीं रह कर भारत की प्राचीन सांस्कृतिक परंपराओं से परिचित हुये थे। दोनों सद्पुरुषों की परिष्कृत, उदात्त मानसिकता और सजग चेतना का प्रभाव तुलसी का कायाकल्प कर, उनके व्यक्तित्व में दीप्ति भर गया। शेष जीवन काशी से उन्हें विशेष लगाव रहा था।

उनके चचेरे भाई नन्ददास (जीवाराम के पुत्र) भी युवा होने पर काशी में विद्याध्ययन करने आये। दोनों की परस्पर भेंट होती रहती थी। यहाँ रह कर परस्पर आत्मीयता विकसित हुई। नन्ददास, अग्रज तुलसी के प्रति सम्मान और श्रद्धा का भाव रखते थे, और उनसे प्रायः सलाह-मशविरा करते रहते थे। कालान्तर में नन्ददास कृष्ण-भक्ति में दीक्षित हो, अष्टछाप के कवियों में गण्य हुये।

एक बार वैष्णव भक्तों का एक दल द्वारका प्रस्थान करनेवाला था, नन्ददास भी जाने को उत्सुक थे। उन्होंने अग्रज से पूछा, "बड़ा सुन्दर अवसर मिला है। हम भी उसके साथ जाना चाहते हैं।"

"काहे वहाँ क्या है?"

"भगवान रणछोड़ के दर्शन का लाभ मिलेगा। उस पुनीत पुरी के वास का सौभाग्य मिलेगा।"

"दल के साथ जाओगे?"

"अपने समाज के साथ आनन्द ही आनन्द रहेगा। मस्ती में नाचते-गाते पहुँच जायेंगे। सब साथ होंगे, किसी प्रकार का कोई कष्ट नहीं।"

कुछ क्षण चुप रहे तुलसी। फिर बोले, "उसमें कुछ जोखिम भी है।"

"जोखिम?"

"'तियछवि छाया ग्राहिनी' बीच में ही गह ले, तो...?"

तुलसी उनके मस्तमौला, रसिक स्वभाव से भलीभाँति परिचित थे।

नन्ददास संकेत समझ गये। एक रूपवती खत्रानी पर आसक्त होकर कैसे सारी लोक-लाज छोड़ उसके घर के चक्कर लगाने लगे थे, परेशान होकर उसके परिवार जन गोकुल चले गये, तो वहाँ भी जा पहुँचे थे।

बात तुलसी तक पहुँची, उनकी धिक्कार और गोसाईं विट्ठलनाथ जी के सदुपदेश से मोह-भंग हुआ। उन्हें कृष्णभक्ति रास आ गई,कालान्तर में वे अष्टछाप के कवियों में मान्य हो गए।

कुछ खिसियाते-से नन्ददास बोले, "अब वे बातें काहे बीच में लाते हो दद्दा, तु्म्हारी बात सुनी नहीं क्या हमने? हमने विट्ठलस्वामी से दीक्षा ले ली है। अब तो ब्रजराज श्याम ही हमारे सर्वस्व हैं।"

"नन्दू ,अकेले भ्रमण में व्यक्ति अपनी खुली आँखों के चतुर्दिक् देखता-समझता चलता है। और साधु तो सबका कल्याण चाहता है। हमने तो तुम्हें चेता दिया है।"

नन्ददास चुप सुनते रहे।

"तुमने कबीर जी की वह उक्ति सुनी है 'लालन की नहिं बोरियाँ...'..?"

"हाँ, हाँ यों है –

'सिंहन के नहीं लेहड़े, हंसन की नहिं पाँत,
लालन की नहिं बोरियाँ साधु न चले जमात।'

कैसा गूढ़ अर्थ छिपा है इसमें!"

"समझ रहे हैं, लेकिन हम तो कृष्ण प्रेम के मार्गी हैं। निचिंत रहे दद्दू, सप्ताह-दस दिन में हम लौट आयेंगे।"

तुलसी दास, लघु भ्राता को प्रोत्साहित करने में कभी पीछे नहीं रहे।

उन्होंने कहा था, "नन्दू, तुम भी कुछ कम विद्वान नहीं हो। अपने अनुभवों का पाठ भावसंपदा भी बढ़ाएगा, तुम कुशल हो। जहाँ अन्य कवि कवित्त गढ़ते हैं तुम उक्ति को ऐसे जड़ देते हो जैसे स्वर्ण में रत्न। और अभी तो निखर रहे हो।"

अपने भ्रमण-क्रम में तुलसीदास जी, वृन्दावन पहुँचे। तब तक वे राम-भक्त के रूपमें पर्याप्त ख्याति पा चुके थे। वृन्दावन श्रीकृष्ण की लीलाभूमि रहा है तुलसी ने अनुभव किया कि यहाँ के आम, ढाक, खैर भी राधा-राधा का जाप करते हैं।

जब वे ज्ञान गुदरी में श्री मदन मोहन के परिसर में पहुँचे तब भक्तमाल के रचयिता नाभादास तथा कुछ अन्य जन भी वहाँ उपस्थित थे। रामभक्त, तुलसी के आगमन की सूचना सबको हो गई थी।

मन्दिर के पुजारियों में परशुराम नाम का एक पुजारी बोला, "ये तो मदन-गोपाल की लीलाभूमि है, यहाँ रामभक्त कैसे पधार गये?" और तुलसी को देख हँस कर बोला, "आपके इष्ट तो राम जी हैं!

'बिना आपुने इष्ट के नवै सो मूरख होय’।"

तुलसी दास जी ने सुना, शान्तिपूवर्क विग्रह के हाथ जोड़े, विनत हो कर बोले–

"कहा कहौं छवि आज की, भले बने हो नाथ,
तुलसी मस्तक तब नवै, जब धनुष बान ल्यो हाथ।"

अचानक श्याममूर्ति में मुद्रा-परिवर्तन का आभास हुआ सबके विस्मित नयनों में धनुर्धारी की ओजपूर्ण मुद्रा झलकी, और गद्‌गद्‌ तुलसी ने भूमिष्ठ हो दण्डवत् प्रणाम किया।

घटना की स्मृति-स्वरूप यह दोहा प्रचलित हो गया –

‘मुरली मुकुट दुराय कै, धर्यो धनुष सर नाथ। तुलसी लखि रुचि दास की, कृष्ण भए रघुनाथ॥’  

इतिहास साक्षी दे या न दे, लोक-श्रुति साक्षी है कि भक्त की मान-रक्षा हेतु, कृष्ण की मूर्ति राम की मूर्ति में परिणत हो गई थी।

– (क्रमशः)

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