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राग-विराग – 006

नन्ददास तुलसी से काशी में प्रायः ही भेंट करते रहते थे।

"कुछ दिन टिक कर एक स्थान पर रहो दद्दू, आराम रहेगा और लिखने-पढ़ने में भी सुविधा रहेगी।"

"समाज की वास्तविक दशा को जाने बिना लिखना उद्देश्यपूर्ण कैसे हो सकता है नन्दू, तीर्थयात्रा करता ही इसलिये हूँ कि देश के सुदूर स्थानों तक पहुँचूँ, लोक-जीवन को पास से देखूँ, वास्तविकता समझूँ। और पुनीत स्थानों में जा कर मन का कलुष धो सकूँ।" 

नन्ददास को चुप देख फिर बोले, "उन्होंने सारा जीवन लोक-कल्याण में लगा दिया उनका भक्त अपना सुख ही देखेगा क्या? चरण-चिह्न छोड़ गये हैं, अनुसरण करना हमारा धर्म।" 

"महान् हो दद्दा, मैं तो तुम्हारी छाया भी नहीं।"

"कुछ नहीं हूँ मैं, बस रामकाज में लगा हूँ।"

एक दिन नन्ददास ने पूछा था, "दद्दू, भौजी से नाराज़ हो? सच्ची बताना...  उस दिन .. तुम्हें झटका लगा था?"

तुलसी सिर झुकाए कुछ क्षण सोचते रहे, फिर बोले, "झटका नहीं लगा, यह कैसे कहूँ? लगा और बड़े जोर का लगा। लेकिन उस झटके से हिय के नयन खुल गये। जो मेरे भाग्य में नहीं तो कैसे मिलेगा! उसने तो मुझे चेता दिया। सच में नन्दू जो-जो मुझसे जुड़े सब असमय छोड़ गये। अब तुम्हीं विचारो जिसके बिना एक दिन में इतना व्याकुल हो गया, वह देह भी भंगुर है, मेरा जनम का अभुक्त दोष, उसे भी ले बैठे तो . . . अपने ऊपर बड़ा पछतावा हुआ उस दिन। अब उसी से संबंध जोड़ूँगा जिससे कभी नहीं टूटे।"

"लेकिन भौजी बहुत पछताती हैं, उन्हें लगता है कि उन्हें संयम रखना चहिये था।"

"रतन ने वही किया जो उचित था। हृदय में जो उमड़ती हुई बात परस्पर भी न बता सकें तो काहे का दाम्पत्य! अंतर्मन से जो कुछ राम जी की प्रेरणा से उमड़ा वह नहीं कहती तो मन निरन्तर कचोटता, अपराध-बोध सालता।"

उनके मुख का भाव गहन हो उठा था 

"बाल्यवस्था में जिनने भटकने से त्राण दिलाया, मैंने विवाह कर उन्हें बिसरा दिया। नन्दू, मुझे भान हो गया है, संसार के सुख मेरे लिए नहीं हैं।"

कुछ क्षण सोचते रहे फिर तुलसी ने पूछा, "तुम उनसे मिलते हो?"

"हाँ क्यों नहीं? और चन्दू पर तो उनका अनूठा वात्सल्य है।"

नन्ददास का छोटा भाई, नाम है- चंदहास।

"इस परिवार की बड़ी बहू हैं हमारी माननीया हैं। खोज-ख़बर रखना हमारा धरम। और चन्दू, वह भी उधर गये पर मिले बिना नहीं रह सकता। भौजी के लिये सबसे लड़ जाता है।"

दोनों देवरों को रत्ना से बहुत सहानुभूति है। बड़ाई करते नहीं अघाते। उनकी निष्ठा और त्यागपूर्ण जीवन ने उनके वैदुष्यपूर्ण संयत जीवन को और दीप्त कर दिया है। पीहर और ससुराल के संबंधियों में रत्नावली का बहुत सम्मान है।

अचानक नन्ददास ने पूछा, "दद्दा, भौजी यहाँ आयें तो...?"

तुलसी चौंके।

"कैसी बात करते हो?"

"नहीं सच में। उनकी बड़ी इच्छा है एक बेर तुम्हारे दरसन करें।"

"यह कैसे हो सकता है?"

"काहे नहीं हो सकता? आख़िर को तुम्हारी पत्नी हैं। भइया, तुम भी तो कभी उन्हें सोचते होगे।"

"हाँ, बस यही मनाता हूँ कि वह सकुशल रहे, कोई कष्ट न हो।"

"पर... वे तो यहाँ आ रही हैं।"

वे चौंके, "कब?" 

"बस एक-दो दिन में यहाँ पहुँच जायेंगी।"

"यहाँ कहाँ रहेगी? मेरे पास कुछ भी तो नहीं उसके लिये। यह जगह उसके रहने जोग है? जानते हो इन लोगों को? कैसे-कैसे साधु हैं यहाँ एक से एक गँजेड़ी, भँगेड़ी। नारि मुई गृह संपति नासी, मूँड़ मुँड़ाये भए सन्न्यासी! और कैसी-कैसी विकृत मानसिकता!"

नन्ददास क्या बोलें!

तुलसी कहते रहे, "जैसी कुत्सा मनों में भरी है वैसी ही बातें करेंगे। रतन यहाँ आई तो कैसे देखेंगे उसे, क्या कहने से छोड़ देंगे? जीभ पर लगाम देना तो जानते नहीं।"

फिर एक चुप्पी।

"नन्दू, तुम्हीं ने यह किया होगा। ऊँच-नीच कुछ नहीं सोचा। अरे, एक बार मुझसे ही पूछ लेते।"

मन में आया इनसे पूछना इतना आसान है क्या? पर नन्ददास बोले कुछ नहीं।

तुलसी ने पूछा, "बताया किसने कि मैं यहाँ हूँ?"

"तुम्हारी ख़बर रखती हैं वे, पिछली बार तुम्हार सँदेसा पा मगन हो गईं थीं भौजी, आनन्दाश्रु छलक आये थे। बोली थीं, ’तुम्हारे दद्दा मुझे अपने से अलग नहीं मानते’। झूठ नहीं बोलूँगा तुम्हारे आगे, उछाह के आवेश में मैं ही बता आया था। भौजी के मुख को देख कर मैं अपने को रोक न सका।" सिर झुका कर बोले, "पर हमने आने को नहीं कहा था। वे तो कब से चाह रहीं थीं बस मौक़ा नहीं मिला था।"

"और इस बार मिल गया?"

"हम तो वहाँ जाते ही कितना है! चंदहास से बात-चीत होती रहती है उनकी। चंदू वहीं रहता है न...  हमें तो उसी से पता चला।"

"वह आयेगी यहाँ मिलने? इस खुले डेरे में, चारों ओर विकृत चर्चाओं की हवा में ... ऐसे लोगों के बीच न आये रतन, लोग तो भद्दी बातें फैलाने को उधार खाय बैठे होते हैं।"

नन्ददास स्तब्ध . . .

"रतन यहाँ आयेगी, कहाँ टिकेगी?"

तुलसी आवेश में बोले जा रहे हैं, "मैं सब प्रकार से साधन हीन। भिक्षा माँग कर पेट भरता हूँ। मंदिर में उनने मस्जिद बना डाली। मैं राम का नाम लेकर वहीं कहीं सो जाता हूँ कि कपटी साधुओँ की चर्चा में न पड़ूँ। किसी से लेना एक न देना दो। लेकिन लोगों की कुत्सित दृष्टियाँ उस तक पहुँचेंगी कौन रोक लेगा? 

"मुझे ही धूर्त, जुलाहा, रजपूत जाने क्या-क्या कहते फिरते हैं। मुझे तो कोई अंतर नहीं पड़ता पर उसका क्या कोई मान-सम्मान नहीं? कैसे-कैसे विकृत आरोपण करते हैं लोग, सोचा है कभी? अपनी कुत्सा के आरोपण में चूकेंगे नहीं। रतन के लिये ये स्थान नहीं सब की कौतुकी दृष्टियों का केन्द्र होगी वह, यहाँ सब कैसे-कैसे संन्यासी हैं जानता हूँ मैं, पराई स्त्रियों को लोग कैसी निगाहों से दखते हैं। यहाँ तो सब ओर यही लोग हैं कौन साधु हैं, कौन असाधु कौन जाने!

"अपने मन की कुत्साएँ निकालने का एक मार्ग मिल जायेगा उन सबको। रसभरी चर्चा के लिये एक मसाला मिल जायेगा। रतन के साथ ऐसा हो, नहीं नन्दू, वह नौबत न आये। उसे मान न दे सका पर दूषणों से तो बचा ही सकता हूँ।"

तुलसी को इतना उत्तेजित पहली बार देख रहे थे। लगता है उनका अंतर्मन तक दहल गया हो जैसे। क्या केवल उत्तेजना थी, आँखों में जो छलकन उतर आई वह भी तो एक सच है.....

"तुमने बताया कि आजकल यहाँ हूँ?"

"तो बातों में बातों में मैं ही कह बैठा था, तुम्हारे बारे में बहुत बातें पूछती हैं।"

मन ही मन पछता रहे थे नन्ददास, रत्ना के प्रति सहानुभूति भरे मन ने बिना सोचे-विचारे,चंदहास की बातों ने, भावुकता में यह क्या कर डाला?

लेकिन अब ... नन्द दास का चेहरा उतर गया।

"अब? वे तो आ रही हैं, कल . . ." नन्ददास घबरा कर कह उठे।

"अब बता रहे हो जब पानी बिलकुल सिर से ऊपर आ गया।"

"तो अब तुम्हीं जानो!"

*

"तुम्हीं जानो" कहने भर से क्या मन शान्त रहता है!

ओह, रतन यहाँ! आँखों के सामने! मैं सोच भी नहीं सकता!

जीवन में बहुत तरसा हूँ, वहाँ से विरत हो कर चला आया। अब बस मन पर संयम रहे, नारद जैसा मुनि, विचलित हो सकता है फिर मैं तो एक साधारण मनुष्य ठहरा!

प्रभु, अब परीक्षा न लो। रक्षा करो! अपने आश्रय में पड़ा रहने दो। बुद्धि चेताती है किन्तु मन के उत्पातों से भय खाता हूँ। किसी दुर्बल क्षण में सारे भान खो कर, संयत न रह पाऊँ . . .

नाथ, तुम तो अंतर्यामी हो!

नहीं होगा, नहीं होगा मुझसे, फिर मिलना और फिर दूर हो जाना।

मुझे साहस दो प्रभु!

मानव बन कर अवतार लिया तुमने, मानवी संवेदनाओं को भोगा, निभाया, अब तुम्हीं मेरा मार्ग दर्शन करो!

मैं आज जान पा रहा हूँ वह कारण कि माता जानकी को, भवन से निर्वासित कर वन पहुँचाने का, निर्मम दायित्व अनुज को सौंप दिया, क्यों स्वयं सम्मुख नहीं आ सके थे!

और कोई मार्ग नहीं सूझ रहा प्रभु। इस समय की विचारणा जो कहे वही स्वीकारता हूँ, उचित-अनुचित जो समझो– मुझे क्षमा कर देना!

और अगली भोर, तुलसी बिना किसी को बताए वहाँ से प्रस्थान कर गये।

– (क्रमशः)

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