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राग-विराग – 010

उस दिन हड़बड़ा कर तुलसीदास बड़े भिनसारे ही काशी से निकल पड़े थे। अंतर्मन से पुकार उठ रही थी– "हे राम , अपनी शरण में ले लो!" 

"अपने ऊपर बस नहीं रह गया। कुछ सोचना चाहता हूँ कुछ ध्यान में चला आता है। मन थिर नहीं होता, कहाँ-कहाँ भटक जाता है।

"ऐसा उचाट मन ले कर कैसे रहूँ मैं? अधिक परीक्षा मत लो प्रभु!"

बहुत अशान्त हो उठते है वे – हर समय लगता है कुछ छूट गया, कुछ रह गया।

फिर भी पग चलते चले जा रहे हैं।

रास्ते के ग्राम-नगर उजाड़ हुए-से पड़े हैं, सर्वत्र भूख और अकाल की गहरी छायायें डोल रही हैं। सब कुछ श्री-हीन हो उठा है।

देश में घोर दुर्भिक्ष का ताण्डव। गाँवों से उमड़-उमड़ कर लोग नगरों की ओर पलायन कर रहे हैं, पर सब साधनहीन हो गये। खोजने पर आजीविका नहीं मिलती, कैसे जियें?

व्यापार ठप्प पड़े हैं, कारीगर बेकार – कोई उपाय नहीं। चाकरी तक का जुगाड़ नहीं हो पाता। किसी को अपना ही पूरा नहीं पड़ता, दूसरे को क्या दे? इस दुष्काल में भिक्षा भी सहज नहीं। कैसा समय आ गया है, हर व्यक्ति असन्तोष से भरा, अभाव, स्थायी-भाव बन कर मनों में बस गया है। हर जगह वही हाय-हाय!

कैसा विषम काल है? 

संतप्त मन ले आगे चल पड़ते हैं अंतर्मन पुकार उठता है–

"हे राम, कहाँ हो? अपनी करुणा-दृष्टि इधर फेरो? कृपा करो, प्रभु!"

अनेक नगर-ग्राम घूमे, कहीं विश्राम नहीं।

मार्ग में कितने जनों से मिलना हुआ। सबकी अपनी दुख गाथा। मिथिला के एक साधु से मन कुछ मिला। उसी से बातें होने लगीं।

"कलयुग में हमारे अधिकांश धर्मस्थल दूषित कर दिये गये, बड़ा दुख होता है देख कर," तुलसी ने कहा, "आस्थाहीन जीवन हो गया,  धर्म-कर्म सब भ्रष्ट। सब-कुछ भूल कर मनुष्य अंधाधुन्ध दौड़ में लगा है।

"धरती संतप्त। बारंबार महामारी और, अकाल का फेरा। कितने तीरथ, कितने देस, नगर देखे, मन को कहीं चैन नहीं।"

वह बताने लगा, "ऐसा ही अकाल मिथिला में पड़ा था, तब राजा जनक थे वहाँ। मैं जा रहा हूँ वहीं, जहाँ भूमि से सीता देवी प्रकटी थीं, प्राकट्य तो वास्तव में भूमिजा का हुआ था और सब ने अपनी-अपनी माताओं के उदर से जन्म लिया था।" 

माँ जानकी के प्राकट्य-स्थल दर्शन के लिये वे उसी के साथ सीतामढ़ी चल दिये।

अपने स्थान पर पहुँच कर वह अपने समाज से जा मिला।

उसने तुलसी से पूछा था, "तुम कहाँ रहोगे? हमारे समाज में शामिल हो जाओ।"

तुलसीदास किसी नियंत्रण में नहीं रहना चाहते थे, मन ही मन सोचा – "माँ जानकी की  भूमि है, जैसा रखेंगी, रहूँगा"।

एक दिन मन्दिर के चबूतरे पर बैठे-बैठे अपने आराध्य के साथ माँ सीता के विवाह की कल्पना करने लगे। उस दिन सुबह से भिक्षान्न नहीं मिला था, शरीर शिथिल होने लगा, पलकें मुँद गईं।

अचानक कानों में आवाज़ आई, "लो प्रसाद, ले लो।"

तुलसी सजग होते उससे पहले ही उस नारी-मूर्ति ने उनके हाथों में एक दोना थमाया और पलट कर चल दी। दोनों हथों से प्रसाद का दोना माथे से लगाया। 

उन्होंने देखना चाहा पर दृष्टि में केवल नीली साड़ी की सुनहरी किनारी से झलकती महावर रंजित एड़ियाँ देख सके, नूपुरों की हल्की सी खनक वातावरण में समाई थी।

नारी-मूर्ति  मन्दिर में प्रविष्ट हो गई थी।

प्रसाद पर दृष्टि गई – दोने में दो पुए!

मन पुलक उठा, "वाह, पुए!"

कितने दिनों बाद वह स्वाद उन्हें याद आ गया।

पहली बार नीमतलेवाली ताई ने पुआ दिया था – कितना स्वाद! कितना रस!

छ्ह-सात बरस के रहे होंग, पुनिया-माँ भी राम जी के पास सिधार गईं थी, अकेला गलियों में भटकता बालक, जो मिल जाय खा लिया। कोई मुँह लगाने को तैयार नहीं। सब जानते हैं यह बालक अशुभ है, जिसके पास रहेगा उसी का अनिष्ट करेगा।

इतनी बड़ी दुनिया, पर अपना कोई नहीं– अकेला, अनाहूत, त्याज्य!

"राम्बोला" कहते थे सब उसे।

नीमतलेवाली ताई कहतीं, "अरे बेचारा ब्राह्मण बालक, काहे दुरदुराते हो! जियेगा तो वह भी न!"

प्रायः वही दिन में एक बार खाने को कुछ दे देतीं।

अरे हाँ पुआ?

सारी स्मृतियाँ पृष्ठभूमि में जमा हो गई हैं, मौक़ा मिलते ही झाँक जाती हैं।

नवरात्र जैसे कुछ गिने-चुने दिन होते थे जब भूख से अकुलाता बालक पेट भर स्वादिष्ट भोजन पाता था . . .

ऐसा ही एक बस्योढ़ा का पर्व था, सुहागिन महिलाएँ वस्त्राभूषणों से सज कर नीमवाले चबूतरे पर एकत्र हो, शीतला माता को पूजती थीं। वृक्ष के थाँवले में कुछ मूर्तियाँ और सुगढ़-अनगढ़ प्रस्तर पिंडियाँ रखी रहती थीं।

वही उनकी पूजनीय थीं। देवी के गीत गाती वे प्रसाद की डलियाँ जिसमें पूड़ी, पुए काले चने आदि का प्रसाद होता, थाँवले से सटा कर रख देतीं। और पूजा की वस्तुएँ रख कर बैठ जातीं, माँ को प्रसन्न करने के लिए उनकी प्रशंसा में गीत गातीं। उनके कण्ठों से निकले देवी के गीतों के बोल वातावरण में गूँजने लगते।

माँ से प्रार्थना करते हुये धूप-दीप जला कर पूजतीं, आँचल पसार कृपा की याचना हेतु, चरणों में झुकतीं।

चबूतरे के एक कोने में बैठा रामबोला रुचिपूर्वक देखता रहता।

ताई एक पूरा पुआ और चने के साथ हलवा-पूड़ी का प्रसाद उसे बुला कर देतीं। अन्य, स्त्रियों से भी प्रसाद पा कर वह अपना भरा हुआ दोना ढककर रख देता। जानता था  नीम पर बैठे कौए ताक लगाए हैं।

वे सब थोड़ी देर बैठतीं। उनके बच्चे प्रसाद खाते  चारों ओर मँडराते रहते।  दूध-पूत के असीस अपने आँचल में समेट, वे धोक दे पूजा का समापन करतीं।

सब चले जाते, तब नीम तले के उस एकान्त में रामबोला निःशंक हो कर थाँवले के समीप आ बैठता।

हल्दी-कुंकुम लिपटी पिण्डियाँ विराजी रहतीं, धूपबत्ती से उठता धूम  लहराता हुआ हवा में गमक भरता, पूजा के दीप थोड़ी देर जल कर बुझने लगते। हर दिये की बात्ती बुझने से पहले, सारा तेल खींच कर लौ उठाती फिर एक चिंगारी छोड़ शान्त हो जाती। अंतिम धूम-रेखा के साथ जो सोंधी गन्ध नासापुटों में समाती, वह रामबोला को बहुत भाती थी, दीपों के बुझने तक वह वहीं बैठा रहता। फिर अपना प्रसाद उठा कर, देवी माँ के फैले आँचल तले, नीम की छाँह में फसक कर बैठ जाता और परम सन्तुष्ट भाव से  वह विपुल प्रसाद जीमता। पेट भर कर वह अभी-अभी सुनी हुई लय-तान वाला कोई गीत गाते-गाते परम तृप्ति से वहीं सो जाता।

बरसों बाद आज फिर भूख से शिथिल रामबोला तुलसीदास बना, पुओं का प्रसाद  पा गया है!

कुएँ पर जाकर दोना आड़ में रख हाथ धोये और पुए का टुकड़ा तोड़ कर मुँह में डाला।

"अहा!" 

निराला ही स्वाद था उन पुओं का, जैसे अमृत घोल कर बनाए हों।

परम सन्तोष से खाता रहा वह। लगा जन्म-जन्मान्तर की क्षुधा शान्त हो गई। मन अनूठी तृप्ति पा गया। लगा तन में नई ऊर्जा लहरा उठी।

हृदय अपार कृतज्ञता से भर आया।

चलते समय मन्दिर के खुले द्वार से दृष्टि भीतर गई, हल्की रोशनी में आसन पर विराजमान माँ की झलक मिली। उन्होंने शीष झुकाया विनती की – "माँ, इस दीन अनाथ पर अपनी करुणा-दृष्टि बनाए रखना!" 

चलने के लिए मुड़ने लगे तो, लगा कोई कह रहा है– "यहाँ क्या कर रहा है, वे तो अवधपुरी में हैं।"

 

*

 

वे अयोध्या चले आये।

तभी वसन्त-पञ्चमी का पर्व पड़ा। दुष्काल की मार ऐसी कि अन्नदान कर पुण्य बटोरने के अवसरों पर भी जब लोग स्नान कर पुण्य कमाना चाहते हैं तो लाई गई खिचड़ी आधे याचकों के लिये भी पूरी नहीं पड़ती। अनगिनती हाथ फैले रह जाते हैं।

खिन्न मन से वे घाट पर बैठे सरयू का प्रवाह देखते रहे – "प्रभु, इस सरयू में प्रवेशकर तुम अपने धाम चले गये, इन दुखी जीवों को क्या चिरकाल इसी प्रकार दग्ध होते रहना है?"

मन ही मन सोच रहे थे – जिसने अपना सारा जीवन लोक-रक्षा और कल्याण के लिये अर्पित कर दिया, उसके भक्त, लोक से विमुख हो अपने लिये सुख खोज रहे हैं। धर्म पर आघात पर आघात हो रहे हैं और वे अन्याय और अनीति का चारों ओर बोलबोला देखते हैं और अपने रस-रंग में मग्न हो जाते हैं, स्वाभिमान का क्षरण हो गया है। अपमान और दुर्दशा झेलते रह कर जीना जैसे नियति बन गया हो, समर्थ जन भी जातीय पराभव से उदासीन अपनी सुख-लालसा पूरी करने में लगा है।

तट पर मेला लगा था स्नानार्थियों से दक्षिणा पाने के लिये अनेक कथा-वाचक अपनी चौकियाँ सजाये बैठे थे।

तुलसीदास वहीं आँखें मूँद कर प्रभु का स्मरण करने लगे, लोक-दशा देख मन उद्विग्न हो रहा था।

वे आँखें मूँदे गुनगुनाने लगे – उस भाव-लीन अवस्था में अनायास उनका स्वर मुखर होता गया, जैसे अंतर्मन से अनवरुद्ध पुकार उठ रही हो  गहन-गंभीर स्वर गूँज उठा –

"खेती न किसान को, भिखारी को न भीख, बलि, 
बनिक को बनिज, न चाकर को चाकरी। 
जीविका बिहीन लोग सीद्यमान सोच बस, 
कहैं एक एकन सों, ‘कहाँ जाई, का करी?’ 
बेदहूँ पुरान कही, लोकहूँ बिलोकिअत, 
साँकरे सबै पै, राम! रावरे कृपा करी। 
दारिद-दसानन दबाई दुनी, दीनबंधु! 
दुरित-दहन देखि तुलसी हहा करी॥"

अंतिम पंक्तियाँ उन्होंने दोहरा कर गायीं, जैसे जन के दुख सुनाकर राम को अनवरत टेर रहे हों।

आसपास के लोग शान्त हो कर सुनने लगे थे। सामयिक दशा का सहज लोक-भाषा में चित्रण जिसके कानों में पड़ा खिंचा चला आया।

स्वर थमने के बाद कुछ क्षण चुप्पी छाई रही। फिर कुछ लोग समीप आ गए।

"महाराज आप बहुत गुणी लगते हैं।"

"रामप्रभु का साधारण सा सेवक हूँ, उन्हीं के गुण गाता हूँ। सब कुछ देखता हूँ और उन्हीं से कृपा की याचना करता हूँ।" 

"फिर तो हमें आपको सुनने का आनन्द मिलता रहेगा?" 

"अवश्य, यह तो मेरा प्रिय कार्य है।"

"वैसे आप क्या करते हैं महाराज?"

"कथावाचन करता रहा हूँ, ज्योतिष की भी थोड़ी जानकारी है वही करता था। अब सांसारिकता से वैराग्य ले कर अपने प्रभु के चरणों में चला आया।"

"तब तो हमारा भी भला हो जायेगा।"

और तुलसी रामघाट पर कथा सुनाने लगे। अपने वर्णन-कौशल से साक्षात् चित्रण करने मे सिद्धहस्त थे।.पर्वों के अनुरूप कथायें और अपने रची स्तुतियों एवं आत्म-निवेदन के पदों का सुमधुर गायन उनके कथ्य में  प्रामाणिकता का संचार कर देता था।

उनका व्यक्तित्व प्रभावशाली था।

संगीत का ज्ञान था, कंठ में स्वर था जो बरबस ही मन को खींच लेता था। संवेदनशीलता और विद्वत्ता, के साथ, श्रेष्ठ गुरुओं से मिले संस्कार उनके औदात्य को उजागर करते थे। व्यक्तित्व सुदर्शन था ही। अपने वस्त्रों के लिये कभी सचेत नहीं रहे थे। तुलसी पर विवाह के बाद रत्ना ही उनकी सँवार का ध्यान रखती थी, कहती थी – कथावाचक की वेष-भूषा का प्रभाव पड़ता है, व्यास पीठ पर बैठें तो सुवेश धारण कर माथे पर तिलक-चन्दन से सज्जित हो कर। पवित्र रुचिर वेष सुननेवालों को प्रभावित करता है।

दस वर्ष से भी अधिक  रत्ना के साथ रह कर वे इस ओर भी सावधान रहने लगे थे।

उसी ने काँधे पर उत्तरीय सँवारना सिखा दिया था।

एक बार उन्होंने नन्ददास से कहा था–

"सच कहूँ नन्दू, तुम्हरी भौजी ने सिखा दिया कि वाणी के अनुकूल भूषा भी सुरुचिपूर्ण होना वांछित है . . .

"मुझे कपड़े की पहचान आज भी नहीं है, दूकानदार ठग ले तो पता भी न  चले, पर मुझे ख़रीदने की आवश्यकता नहीं पड़ती, यजमानी में मिल जाते हैं।" 

कथावाचक बहुतेरे थे पर नोन-चून के लिए दक्षिणा के आग्रही और निस्पृह-निष्ठा से प्रेरित वाचन में ज़मीन-आसमान का अन्तर होता है।

प्रथम दिवस से ही तुलसी दास लोक-प्रिय होने लगे थे।

जब व्यासपीठ से कथा का प्रारंभ हुआ, गणेश-वन्दना के स्वर गूँजने लगे – "गाइये गणपति जग वंदन . . ."

श्रोताओं का हृदय आनन्द से भर गया। एकदम नई स्तुति!

किसी ने कहा, "हाँ, वे अपनी स्तुतियाँ और निवेदन स्वयं रचते हैं।"

लोगों की दृष्टियों में उनका सम्मान बढ़ गया।

फिर कथा की भूमिका बँधने लगी।

सर्वप्रथम राम-कथा किसने - किसे सुनाई– शंकर-पार्वती का उल्लेख कर तुलसी रुच-रुच कर काकभुषुण्डि की कथा सुनाने लगे। पूरे मनोयोग से रसास्वादन करते श्रोता सुन रहे थे। भक्तिरस से भावित, गहन-गंभीर स्वर, और पुराण-सम्मत, विद्वत्तापूर्ण व्याख्या से विभोर थे।

अनायास तुलसी ने नई बात कह दी, "लगता है हमारे भुषुण्डि जी को दही पुआ बहुत प्रिय है।" 

माँ जानकी के प्रसादामृत का स्वाद तुलसी कैसे भूलते?

बोले, "पुआ कैसा लगता है आप लोगों को?"

श्रोताओं का कौतूहल जाग उठा।

एक साथ अनेक स्वर उठे – "हमें तो बहुत भाता है"।

तुलसीदास मुस्कराये। सब के मुखपर स्मिति छा गई।

"बालरूप प्रभु राम को माता कौशल्या ने गाढ़ा-गाढ़ा दही रख कर पुआ पकड़ा दिया।"

"और हमारे भुषुण्डि जी? काग-देह तो थी ही, भरी उड़ान और प्रभु के हाथ से छीन लाये।

देखा आपने, भक्त कैसे अपने को अपने आराध्य की लीला से जोड़ लेता है?"

"और जब उन्होंने कृष्णावतार लिया तब भी चूके नहीं, उसी काग-रूप में बालकृष्ण के हाथ से माखन रोटी झपट लाये।"

श्रोताओं को संबोधित कर बोले, "कल्पना कीजिये उस दृष्य की, काग महाराज आनन्द से सामने बैठे स्वाद ले ले कर, मानो कह रहे हों, ’लो प्रभु हम हैं तुम्हारे भक्त,उच्छिष्ट पा कर तृप्त हो रहे हैं,’ और प्रभु चकित-विस्मित भाव से हाथ से इशारा कर माँ को दिखा रहे हैं – ’वो मेरा पुआ .ले गया..’!"

आनन्दित श्रोता झूम उठे . . .

अंत में समापन — तुलसीदास जी के स्वर गूँजने लगे –

"मंगल करनि कलिमल हरनि तुलसी कथा रघुनाथ की।
गति कूर कबिता सरित की ज्यों सरित पावन पाथ की॥
प्रभु सुजस संगति भनिति भलि होइहि सुजन मन भावनी
भव अंग भूति मसान की सुमिरत सुहावनि पावनी॥"

और श्रोताओं ने पंक्तियाँ दोहराते हुए उस स्तुति में अपना स्वर मिला दिया!

पूरा रामघाट और सरयू के दोनों तट श्रीराम के महिमा-गान से गूँजने लगे . . .

 

*
— (क्रमशः)
 

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