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राग-विराग – 011

अनेकों अवान्तर कथाओं द्वारा रोचकता बढ़ाने के साथ नई-नई जानकारियाँ देते हुए तुलसीदास का कथा-क्रम चलने लगा था। बीच-बीच में गायी जानेवाली उनकी स्वरचित स्तुतियाँ और आत्म-निवेदन सुन कर श्रोतागण मुग्ध हो जाते। उनकी लोकप्रियता बढ़ती जा रही थी। लोक ने उन्हें सिर-आँखों पर बैठा लिया था। तुलसी की अनेक कृतियाँ सामने आ चुकी थीं, कथा-क्रम में और पर्वों के अवसर पर तुलसी के मुख से उनकी राग-बद्ध रचनाएँ सुन आनन्दित होते और कंठस्थ कर लेते थे। उनकी वाणी लोक कण्ठ में विराजने लगी। 

पण्डितों में सुगबुगाहट होने लगी, उन्हें लगा यह तो हमारा पत्ता काट देगा। विरोध करनेवाले उठ खड़े हुए। षड्यंत्र रचे जाने लगे, अनेक प्रकार से दूषण लगाए गये। शम्भू पण्डित ने कहा था, "वह तुलसी! बड़ा पण्डित बना घूमता है। भाखा में लिखता है। अरे, देव-महिमा गान भी देवभाषा में नहीं कर पाता।"

तुलसी का मन बहुत खिन्न हो जाता। फिर वे स्वयं को समझा लेते, सोच लेते कि वे लोग अपने हित में बाधा पड़ते देख, मुझ पर दोष मढ़ते हैं।

लोक-भाषा में रचना को ले कर उनके पाण्डित्य पर कीचड़ उछाली गई किन्तु सनातनजी की आज्ञा शिरोधार्य कर, संस्कृत में पारंगत होते हुये भी उन्होंने अपनी रचना-प्रक्रिया में लोकभाषा को ही प्रमुखता दी। संस्कृत में भी रचना की थी लेकिन अपना क्षेत्र लोक-जीवन ही रखा और लोक के बीच रह कर उन्हीं की बोली में भजनों और आत्म-निवेदनों द्वारा अपना रचना-धर्म निभाते रहे। संस्कृत के छुट-पुट छंदों का समय-समय पर प्रयोग उनके विषय की गरिमा को वर्धित कर देता था,और उतनी संस्कृत लोगों के गले उतर जाती थी।

गुणग्राही राजा टोडरमल और रहीम से मित्रता का सम्मान उन्हें प्राप्त था और अपनी निर्लोभी, निस्पृह वृत्ति के कारण वे लोग तुलसी का विशेष सम्मान करते थे। तुलसी की लोकप्रियता बढ़ती रही। उनकी कीर्ति राज दरबार तक जा पहुँची।

एक बार उनके मित्र टोडरमल ने बातों-बातों में कहा, "आप गुसाईं हैं, आपके लिये पत्नी विहित है। अकेले क्यों रहते हैं? और वे भी वहाँ अकेली। सुना है वे भी पण्डिता हैं। उन्हें बुला लीजिये।"

तुलसी गंभीर हो गये बोले, "इतनी दूर निकल आया हूँ, अब वह सब कहाँ संभव है?"

लेकिन मन का कोई तार झनझना उठा था। उद्विग्न मन को शान्त करते मर्मस्पर्शी पदों में प्रभु से बार-बार सांसारिक जंजाल से दूर रखने को अनुनय करते रहे। उनके वे निवेदन भक्ति-साहित्य को समृद्ध कर गए।

जब से टोडरमल ने रत्नावली का उल्लेख किया, तुलसी सोच-मग्न रहने लगे। अनजाने ही उसकी बातें ध्यान में आने लगीं। मन को हटाने का यत्न करते हैं, राम के ध्यान में लगाना चाहते हैं पर चंचल मन, भटक-भटक जाता है। रातें प्रायः अधसोये ही बीत जाती हैं।

उस रात विचित्र-सा स्वप्न आया –

उन्हें लगा रतन आई है। कह रही है, "मुझे भी कुछ कहना है, कह कर जाऊँगी। पत्नी हूँ तुम्हारी, मेरा अधिकार बनता है।"

फिर लगा द्वार के बाहर खड़ी रत्ना हँस रही है, "भागते क्यों हो, मैं तुम्हें रोकती नहीं हूँ, न बाधा डालती हूँ। तुम्हारी सहयोगिनी हूँ। भागो मत, गला और सूखेगा।

"मैं तुम्हारा बंधन नहीं थी, रास्ता मैंने ही खोला था। 

"गुसाईं हो तो क्या? पत्नी, माया नहीं अर्धाङ्गिनी है। तुम्हें भटक जाने देती क्या?

"नाहक भयभीत होते हो।" 

तुलसी का गला सूखा जा रहा है, कुछ बोल नहीं पा रहे, जैसे कण्ठ में काँटे उग आए हों।

"अच्छा ठीक है, तुम नहीं चाहते तो यही सही।"

वह चली गई थी।

नींद उचट जाती है तुलसी की। वे किससे कहें, क्या कहें!

मन ही मन कहते हैं– "रतन, तुमने कहा था ’मैं हूँ न!’

"हाँ, तुम हो। लेकिन। मेरा दुर्भाग्य कहीं तुम्हें भी. . ., नहीं, नहीं यहाँ मैं निपट लाचार हूँ। मेरे कारण कहीं तुम भी . . . 

"नहीं खो सकता! सच यह है कि मैं तुमसे नहीं स्वयं से भागा था। लगा मैं दुर्बल पड़ रहा हूँ, बहक जाऊँगा। दुर्निवार आकर्षण मुझे अपनी लपेट में ले लेगा।"

 पर यह बात रत्ना से नहीं कह पाते। बस एक बात कह पाते हैं – "वे सब मेरे अपने थे, छोड़ कर चले गये, मैं कुछ नहीं कर पाया। यहाँ मैं विवश हूँ मेरा साहस जवाब दे जाता है।" 

 

*

 

बहुत समय से नन्ददास से भेंट नहीं हुई, न उधर के समाचार मिले। पुराने बांधवों से मिलने-जानने की इच्छा बलवती होने लगी, काशी जाने का विचार किया। 

कथा के पश्चात् जब अपनी इच्छा जताई तो श्रोता-समूह ने अपने प्रश्न उठा दिए। 

उनका कहना था आपकी कथा, कथा न रह कर साक्षात्कार करा देती है . . . हमें लगता है सब घटित होते हमने देखा है आस्था दृढ़ होती है। आत्मानन्द मिलता है।

ज़रा, हम लोगों का विचारिये – संस्कृत हमारे लिये वर्जित है। भले ही ज्ञान का भंडार भरा हो, पर हमें उससे क्या लाभ? वह सब विद्वानों और पण्डितों के अधिकार में है। अपनी संस्कृति से परिचित करवाने वाला कोई नहीं। यदि ये कथाएँ, वार्ताएँ नहीं होंगी तो हम अँधेरे में पड़े रहेंगे। आपसे जो शिक्षाएँ मिली हैं, हमारे संस्कार जाग रहे हैं।

हम धर्म की शिक्षा से वंचित हैं, हमारे लिय कोई व्यवस्था नहीं कि अपना उन्नयन कर सकें, अपनी वृत्तियों का परिष्कार कर सकें।

हमने देखा है और धर्मों में बचपन से बच्चों को उनकी रीति-नीति की बातें सिखायी जाती हैं, हमारे यहाँ कोई ध्यान नहीं देता, सब अपनी-अपनी में पड़े रहते है। मंदिर में घण्टा बजाने और प्रसाद पाने जाते हैं। नीति-रीति, और श्रेष्ठ संस्कार सीखने कहाँ जाएँ? 

आपकी संगत में अपार शान्ति मिलती है, जीवन्त आदर्श मिलते हैं। आस्थायें जागने लगती हैं। बहुत कुछ समझने-सीखने को मिलता है।

तुलसी ने आश्वस्त किया, "कुछ दिनों का अवकाश, बस मैं लौट आऊँगा।" 

"तो महाराज हमारे बच्चों के लिए कुछ तो हो। कुछ तो रह जाय हमारे पास। यहाँ तो कहाँ से सीखें जाने कोई बतानेवाला नहीं।"

एक वयोवृद्ध श्रोता बोल उठा –

"आप जो सुनाते हैं उसे लिपि-बद्ध कर दीजिये। क्या बच्चे क्या बड़े सबके लिये एक स्थायी धरोहर हो जाएगी।"

 

*

 

बहुत दिनों बाद नन्ददास से भेंट हुई।

"वाह दद्दू, तुमने तो सब पर अधिकार जमा लिया, औरों के लिए कुछ छोड़ा नहीं।"

"अरे, मैंने क्या किया?"

"वाह राम-कथा कहते-कहते, सब को समेट लेते हो। भगवान शंकर, दुर्गा, गणेश, सूर्य कोई भी बचता नहीं।"

"अच्छा, वह बात!~

"मैं समाज में विग्रह नहीं चाहता। शैव-वैष्णव-शाक्त सब परस्पर पूरक, है अंतर्विरोध कहीं नहीं। संप्रदायों में बाँट कर आलोचना करना अनुचित है। 
"मैं चाहता हूँ सबकी स्वीकृति, पञ्चदेव की मान्यता। लोग व्यापक परिप्रेक्ष्य में पौराणिक धारणाओं से परिचित हों, अपनी संस्कृति को जाने। मन में जातीय गौरव की भावना उत्पन्न हो।"

"दद्दू तुम्हें सारी दुनिया की चिन्ता है पर भौजी को जीवन से बिलकुल निकाल दिया। वे अपनी बात किससे कहें?"

नन्ददास का भौजी से ताल-मेल बैठ गया है। कुछ मैत्री भाव जैसा दोनों के बीच।

रत्ना ने कहा था, "लौकिक जीवन को ठीक से जीते नहीं लोग। मैं सोचती हूँ देवर जी, कि उचित-अनुचित का अंतिम निर्णय जिनके हाथ है वे राम, संसार में व्याप्त हैं। उन्होंने जो कृपापूर्वक प्रदान किया है उसका संयत-भोग करना उसका उचित सदुपयोग ही है। अपने भोगों से भागना क्यों? . . . जब तक उसे ग्रहण करें, मान लें कि इतना हमारा भाग था, आगे जैसी राम की इच्छा। अपने भोग में औरों का भी ध्यान, कि उन्हें कष्ट न हो। संसार की सुन्दरता, रस, रूप, गंध राम के प्रसाद हैं उनके आनन्दमय रूप का प्रसाद! भाग कर क्यों, भोग कर सार्थक माने! नित्य के संबंध सँवारते चलें, जग-जीवन सँवर जाय। पर असमय अध्यात्म सिर पर सवार हो जाता है और सारा खेल गड़बड़, जीवन का माधुर्य चौपट! 

"कितनी शंकाएँ उठती हैं मन में, पर किससे पूछूँ? समाधान कैसे हो?

"अच्छा देवर जी, तुम्हीं बताओ, रामजी की जीवन शैली से प्रेरणा लेकर अपना कर्तव्य करते हुए जीवन-यापन भक्ति नहीं कहलायेगी क्या?"

फिर रत्ना ने कहा था, "अपने विद्वान पति का थोड़ा सहयोग चाहती थी, दुनिया भर के लिये कथा-प्रवचन हैं, एक अकेली स्त्री समाधान के लिये किसके पास जाय?" 

गृहस्थ जीवन में तुलसी को अनेक बार लगा था कि रतन कुछ कहना चाहती है। रात को विश्राम के समय शैया पर करवटें बदलती है, "पूछती है, सो गये क्या?"

किन्हीं विशेष अवसरों पर जब वे कथा सुना कर लौटते हैं तो पूछती है, "काशीवाले पण्डित इस विषय में क्या कहते हैं?"

प्रखर बुद्धि है। प्रश्नोत्तर करने से चूकेगी नहीं। विचारशीला है; वह बहुत कुछ जानना चाहती है। 

पर वे अपनी ही धुन में कुछ कहते, कुछ टाल देते हैं। "थक गया हूँ", "नींद आ रही है"।

दुनिया भर के विवाद-विमर्श का यहाँ क्या काम?

घर, घर की तरह होना चाहिये– तुष्टि-पुष्टिप्रद, विश्राममय! 

 

*

 

तुलसी को जो खटक रहा था, मुँह पर आ गया –

"बहुत दिन हो गये नन्दू, पहले तुम समाचार देने को उत्सुक रहते थे, अब क्या बताने को कुछ नहीं रहा? मैं समझ रहा हूँ, इधर तुम्हारा व्यवहार बदल गया है।"

"क्या लाभ वह सब कहने से?"

"ऐसी बात नहीं नन्दू, मुझे जानने की चाह होती है।" 

"तुम्हें व्यर्थ परेशान क्यों करूँ? रहेगा सब वैसा ही। क्या अन्तर पड़नेवाला है? तुम्हारा इतना जस फैल रहा है, बड़े-बड़े लोगों से तुम्हारी मित्रता है; हम लोग तुम्हारे आगे कहाँ ठहरते हैं . . ."

"बस करो, बस करो नन्दू . . . जानता हूँ तुम क्यों कह रहे हो। दुनियावालों के लिये मैं कुछ भी होऊँ, घरवालों के लिये क्या हूँ? जानता हूँ, मैं भी समझता हूँ। और तो और, अब तुम भी मुझे ग़लत समझने लगे।" 

बहुत व्यथित हो गए थे। बोलते-बोलते चुप हो गये।

नन्ददास कुछ नहीं बोले, जस के तस बैठे रहे।

तुलसी फिर कहने लगे, "तुम भी असंतुष्ट हो। एक व्यक्ति मुझे समझता था अब वह भी . . . मैं जान गया हूँ। 

"नन्दू, तुम्हें सब-कुछ बता दूँगा कुछ भी नहीं छिपाऊँगा।"  

नन्ददास चुप बैठे, सुने जा रहे हैं।

"दोष किसी को नहीं दे रहा अपनी करनी का फल भोग रहा हूँ। कौन मुँह लेकर मैं अब वहाँ जाऊँ?" 

"क्यों? कितना तो आदर-मान है तुम्हारा। कथा सुनने भीड़ उमड़ती है। तुम्हारे भजन गली-गली गाये जाने लगे है। तुम क्या हो; ये समाचार क्या वहाँ नहीं पहुँचते?"

"तुम नहीं समझोगे भाई, मैं जनम का अभागा, उनके सामने पड़ने जोग नहीं रहा। कैसा भूत सवार हो गया था। कुछ नहीं सूझ रहा था। मैं क्या कर बैठा!

"उस दिन घर में पाँव रखते ही रतन को न देख कर मैं समझ गया मायके गई होगी। बहुत दिनों से कह रही थी।

"बावला सा उसे लौटा लाने को उतारू हो गया। 

"बरसात की तूफ़ानी रात, जमुना चढ़ी हुईं थीं।"

बोलते-बोलते थक गए हों जैसे, कुछ सुस्ता कर बोले–

"नहीं भूल सकता हूँ। 

"वे लोग जान गये कितना खोखला हूँ; मैंने अपने साथ उसकी गरिमा भी चौपट कर दी। उनके लिये मैं क्या रह गया? अब तो मुझे अपने पर भी विश्वास नहीं रहा।

"और मैं किस वेष में था?

"उमड़ती लहरों में गाँठ खुल कर धोती न जाने कब बह गई पता नहीं चला। सिर का अँगौछा कमर में बाँधे, केशों में तिनके उलझे, सर्वाङ्ग से पानी टपक रहा, कुछ काई जैसा हरापन यहाँ-वहाँ चिपका – विचित्र वेश। पाँव में जूते होने का तो प्रश्न ही नहीं उठता।

"उस समय जिस जुनून में था, सिर पर पागलपन सवार था।

"उनके द्वार जा पहुँचा पर खुलवाने की हिम्मत नहीं पड़ी थी।

"रतन के कमरे में कुछ रोशनी लगी। खिड़की खुली थी। यही विचार कर रहा था कि कैसे चढ़ूँ, इतनें में एक रस्सी सी झलकी, हवा में हिल रही थी, मुझे ध्यान ही नहीं कैसे चढ़ा और अन्दर कूद गया," गला कुछ अटका, रुक गए तुलसी। साँस ले कर फिर बोलने लगे–

"धमाके की आवाज़ हुई होगी।’कौन है?’, ’क्या हुआ’ पूछते घर के लोग दौड़े आए – ’क्या हुआ?’ ’क्या हुआ?’

"उस अश्लील, कुवेश में, हतबुद्ध मैं सामने था। 

"सबकी दृष्टियाँ मुझ पर टिक गईं . . . 

"एक ही प्रश्न – पाहुना! इस कुबेला? कैसे इतनी बुरी दशा में? खिड़की से कैसे?

"जो ध्यान आया, बता दिया।

"तब देखा गया, रस्सी कहाँ से आई? वहाँ तो एक अधमरा साँप पड़ा था।

"रतन अपने घर में किसी से आँखें नहीं मिला पा रही थी।

"झुका सिर, वह मुख जैसे किसी ने खड़िया पोत दी हो।

"कितना प्रसन्न रहती थी! घर भर की लाड़ली, मानिनी पुत्री एकदम हतप्रभ, विवर्ण!

"जिसकी पत्नी होने का गर्व था, उसी के कारण लज्जा से गड़ी जा रही थी।

"प्रारंभिक प्रश्नोत्तरों में मेरे उत्तर कितने अपर्याप्त, कितने संदिग्ध, कितने भ्रामक!..

"कोई कितना समझा, पता नहीं पर चुप रह गये थे वे लोग। 

"बस एक दृष्टि बहिन पर डाली थी फिर बात को सँभालते हुए बड़े साले ने कहा– ’उन्हें सहज हो लेने दो।’

"और वे सब वहाँ से चले गये थे।

"एक धोती और उपरना भेज दिया था।

"सारे आदर-मान पर पानी फिर गया।

"सोचते होंगे ऐसी कुवेला में, मलीन-गर्हित रूप धरे मैं, सीधे रास्ते न आकर क्यों अनिष्ट जैसा खिड़की से आ घुसा?

"– आशंका से भरे कैसे देख रहे थे मुझे! 

"उनके कुल में आ मिले दूषण सा, मलीन कुवेशी, अवाञ्छित प्रसंग का प्रश्न बना मैं, वहाँ सिर झुकाए खड़ा था।

"वह निन्दित अध्याय फिर स्मरण न हो– मैं कभी सामने ही न पड़ूँ।

"इतने बरस हो गये, गुरुदेव ने संस्कारित किया था, दीक्षा दी थी।

"कभी-कभी लगता है उस सब का लोप कर एक अश्लील-अमंगल पहेली रह गया हूँ मैं।

"भान होता है, बचपन का कौपीनधारी राम्बोला, हीन-मलीन वेष में, सबकी तिरस्कारपूर्ण दृष्टियाँ झेलता, वंश का कलंक बना वहीं का वहीं खड़ा है!" 

वह दैन्य और वाणी का निरीह कम्पन नन्ददास को स्तब्ध कर गया।

लेकिन उनका अंतिम वक्तव्य सुनना अभी शेष था।

तुलसीदास ने कहा था – 

"जिसने वह अशुभ-अपावन गर्हित वेष देखा वही जानता होगा कि कितने बड़े मर्यादा-भंग का दोषी हूँ मैं!"

*

– क्रमशः
 

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