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राग-विराग – 012

जीवन की लंबी यात्रा कर वे रामबोला से तुलसी (दास) और तुलसी से गोस्वामी तुलसीदास तक की दूरी तय कर चुके थे। अनेक ग्रंथों का प्रणयन कर लोक में प्रसिद्धि पा चुके थे। उनका व्यक्तित्व यों भी प्रभावशाली था, गौरवर्ण, सुगठित लंबी काया, अनोखा पाण्डित्य और समर्थ अभिव्यक्ति वे मितभाषी थे ही, गहनता से पूर्ण-गंभीरवाणी प्रभावित करती थे। वे समाज के उच्चवर्ग में चर्चा पाने के अधिकारी बन गये थे। पूर्वजन्म के संस्कार ही रहे होंगे सब कुछ होते हुए भी उनके मानस में वैराग्य की एक अंतर्धारा निरंतर प्रवाहित थी।

तुलसीदास जी का विरोधियों से पाला पड़ा था। लेकिन जो हितैषी और मित्र मिले उनसे पूरा सहयोग और अनुकूलता मिली, जिसने हर विपरीत स्थिति में उन्हें साध लिया। ऐसे ही मित्र थे, अब्दुर्रहीम खानखाना और टोडरमल, जो अकबर के नवरत्नों में गिने जाते थे। 

राजा टोडरमल ने तुलसी की प्रत्येक प्रकार से सहायता की थी पुस्तकों की प्रतियाँ तैयार करना, उनकी सुरक्षा और विभिन्न अन्य व्यवस्थाओं का दायित्व उन्हीं का होता था। 

रहीम के पिता उनके बचपन में ही छोड़कर स्वर्ग सिधार गए थे विधवा माता, जो मेवाती राजपूतनी थीं, ने किसी प्रकार से इनका पालन-पोषण किया था। बचपन कुछ समय के लिये बड़ी विपन्नता में बीता था। अपनी योग्यता के बल पर वे अकबर के प्रिय पात्र बन गये थे पर अकबर के बाद प्रताड़ित होने पर वे मुग़लों की नौकरी छोड़कर चित्रकूट में जा कर रहे। उनके जीवन का अंतिम भाग वहीं व्यतीत हुआ। उहोंने इसे इस प्रकार व्यक्त किया –

"चित्रकूट में रमि रहे रहिमन अवध नरेस।
जा पर विपदा परत है, सो आवत यहि देस।"

कैसा संयोग– वनवास की अधिकांश अवधि श्री राम ने चित्रकूट में बिताई, काशी में पण्डितों ने जब तुलसी पर अनेक दूषण लगाए तब विचलितमना, तुलसी चित्रकूट की रमणीयता में शान्ति खोजने पहुँच गये, और जीवन के अन्तिम दिनों में मुसीबतें झेलते अब्दुल रहीम खानखाना ने भी वहीं ठिकाना बनाया।

सन्त के रूप में तुलसी जन-मन में प्रतिष्ठित थे ही। लोगों के मन में यह विश्वास जमने लगा कि वे उन्हें कठिनाइयों से उबार सकते हैं। इसी भ्रम में एक महिला उनके पास अपनी अरदास ले कर आई। पुत्री के विवाह हेतु उसे धन चाहिये था। दीन नारी गिड़गिड़ाती, याचना किये जा रही थी। उसे विश्वास था कि ये सिद्ध संत हैं। मेरी विपदा दूर करेंगे। तुलसी, जो स्वयं भिक्षा माँग कर पेट भरते थे, सोच में पड़ गये कि अब क्या करें? कोई उपाय न देख कर एक पुर्ज़े पर कुछ लिख कर खानखाना के पास भेज दिया। रहीम ने पढ़ा वह अधूरा छन्द –

"सुरतिय, नरतिय नाग तिय, यह चाहत सब कोय"

उन्होंने तुलसी की बात पूरी कर दी – उस स्त्री की आवश्यकता समझ कर उसे पर्याप्त धन दिया और छन्द को पूरा कर तुलसीदास तक पहुँचाने को उस स्त्री को सौंप दिया।

तुलसी ने पढ़ा –

"सुरतिय, नरतिय नाग तिय, यह चाहत सब कोय",
गोद, लिये हुलसी फिरे तुलसी सो सुत होय।"

हुलसी माँ की गोद में तुलसी सा सुत? मन की पीड़ा जाग उठी, जिसके जन्मते ही परिवार भंग होने लगा था, उस अभागे को माँ की गोद कहाँ? माँ तो सौर-गृह से ही परमधाम प्रस्थान कर चुकी थीं। तुलसी के हिस्से में प्रेम के लिये तरसना जो लिखा था।

लेकिन तुलसी ने प्रभु के अतिरिक्त अपनी व्यथा किसी के आगे नहीं गाई थी।

रहीम को क्या मालूम कि कैसा-कैसा दुख-दैन्य झेल कर तुलसी इस ठौर पहुँचे हैं। 

चित्रकूट में तुलसी और रहीम सहयात्री थे। इस प्रसंग में अनेक किंवदन्तियाँ प्रचलित हैं। यथा– तुलसी का प्रश्न एक पंक्ति में और रहीम का उत्तर दोहे की दूसरी में, ज़रा देखें –

"धूर उड़ावत सिर धरत कहु रहीम केहि काज?"–रहीम 
"जेहि रज मुनि पत्नी तरी, सो ढूँढत गजराज।।"–तुलसी

बाद में नन्ददास ने यह दोहा रत्नावली को सुनाया था। सुन कर कुछ कहा नहीं उसने, उदास हो गई थी . . .

नन्ददास को पछतावा हुआ, समझ गये कि काव्य-निपुणा भौजी से कभी तुलसी ने इस प्रकार का बौद्धिक संलाप नहीं किया। 

लोक-मनोविज्ञान के ज्ञाता कवि एक संवेदनशील कवयित्री का, अपनी सहधर्मिणी का मन क्यों नहीं समझ सके? एक सुन्दर, ललित अनुभव से दोनों वंचित ही रहे। काव्य का एक मनोहर रूप रचे जाने से पहले निर्वाक् हो गया।

रहीम कवि अपनी उदारता और संवेदनशीलता के लिये जाने जाते थे, और दानशीलता में उन्हें कर्ण के समकक्ष कहा जाता था। एक नवपरिणीता सैनिक-पत्नी ने उन्हें करुणाकुल कर दिया था जब उसने, पति के प्रस्थान के पूर्व उसने बरवै छन्द लिख कर रहीम के पास भेजा था –

"नेह प्रेम को बिरवा रोप्यो जतन लगाय,
सीचन की सुधि लीजो मुरझि न जाय।"

सैनिक को छः माह की छुट्टी, वधू को पर्याप्त उपहार तो मिला ही, वह पुर्जा तुलसी को भिजवा कर उनसे आग्रह किया था कि "आप इस छंद में पुन: रामकथा रचें।" 

रामचरितमानस के लिये रहीम ने कहा था –

"राम चरित मानस विमल, सन्तन जीवन प्रान,
हिन्दुवान को वेद सम, जमनहि प्रगट कुरान।"

कहाँ की बात कहाँ जा कर किस रूप में प्रतिफलित होती है इसे तुलसीदास जी की वरवै रामायण की रचना में देखा जा सकता है।

तुलसी के परम मित्र रहे रहीम ने श्रोताओं के बीच बैठ कर तुलसी के मुख से निस्सृत कथायें सुन कर अपनी विपत्तियों के दिन गुज़ारे थे, कई बार तुलसी ने उनके उदास प्रहरों को विनोदपूर्ण बनाया था।

ऐसे ही एक दिन रहीम भी श्रोताओं में सम्मिलित थे। तुलसी जन का मनोरंजन करते हुए रहीम की उदासी दूर करने का यत्न करते राम-कथा के अंतर्गत नारद-मोह प्रसंग पर बोल रहे थे। काव्य-बद्ध प्रकरण के साथ टिप्पणियाँ करते हुए अपने नाटकीय वर्णनों से उसे जीवन्त बना देते थे।

जब नारद मुनि को अपनी हरि-भक्ति का अहंकार हो गया, प्रभु ने उन्हें सही मार्ग पर लाने का उपाय किया। भ्रमण करते नारद जी राजा शीलनिधि के राज्य में पहुँचे, राजा की सुलक्षणी कन्या को देख नारद ऐसे मोहाविष्ट हो गये कि उसे पाने के लिये। हरि से निवेदन करने पहुँच गये। प्रभु को उनका गुमान तोड़ना था।

उन्होंने उत्तर दिया मेरे होते हुए तुम्हारा परम मनोरथ भंग नहीं होगा। सब-विधि तुम्हारा कल्याण करने को तत्पर हूँ।

निश्चिंत हो गए मुनि कि मन की इच्छा अवश्य पूरी होगी।

और हरि की लीला देखिये – उन्हें बानर का रूप दे दिया।

स्वयंवर सभा में नारद जी अपनी सुन्दरता के प्रदर्शन के लिये बार-बार अकुला कर उचकते हैं, चाहते हैं किसी प्रकार कन्या उन्हें देख ले।

लोगों को उस दृष्य की कल्पना कर बड़ा आनन्द आ रहा था, कुमारी स्वयंवर के पात्रों में वानरमुखी नर को देख जितना मुख फेरती, मुनि उतने ही उद्धत होकर उचकते। वहाँ और तो किसी को वह रहस्य पता नहीं था, लेकिन दर्शकों में बैठे दो हरि-गणों से कैसे यह बात छिप सकती थी?

वे दोनों हँस-हँस कर पूरा मज़ा ले रहे थे। 

नारद जी को पूरा विश्वास था कि कन्या उन्हें देखते ही वर लेगी। व्याकुल मुनि बार-बार उचकते और दोनों हरिगण यह देख-देख, हँसी से लोट-पोट हुए जाते। 

स्वयंवर का कार्यक्रम चल रहा था।

इसी बीच हरि स्वयं वहाँ पहुँच गये। कन्या ने तुरन्त उन्हें वर रूप में चुन लिया।

हताश मुनि श्री हरि पर बरसने को तैयार हो गये। तब हरि के गणों ने कहा, "उनका क्या दोष ज़रा जा कर अपनी शक्ल दर्पण में देखो!"

हताश मुनि ने जब अपना प्रतिबिंब देखा। हरि-गणों पर तो क्रोध आया ही, हरि पर बहुत कुपित हुये और दोनों को शाप दे दिया, "तुम भी नारि-विरह में व्याकुल घूमोगे और वानर ही तुम्हारी सहायता करेंगे।"

एक साथ कई कण्ठों से "आ" निकल पड़ा।

पुनः वर्तमान मे खींच लाए तुलसी अपने श्रोताओं को – देखा! कैसी मोहिनी है प्रभु की माया कि बड़े-बड़े मुनियों की बुद्धि भी मोहाच्छन्न कर देती है!" 

इस विषय में दोनों मित्र एकमत थे कि सदुद्देश्यो से पुरुष के विचलित होने का मूल कारण नारी है।

तुलसी ने सबको सचेत करते हुए निष्कर्ष दिया, "इससे बचने के लिये पल-पल सावधान रहना ही एकमात्र उपाय है।"

उन्होंने उपकथा का रामकथा से तारतम्य जोड़ा – "हाँ तो . . . 

"राम जी वनों में भटकते सीता को खोज रहे हैं बानर सेना सहायता में लगी है . . . " 

उस दिन तुलसी का अद्भुत वर्णन-कौशल और हास्यमय प्रकरण के जीवन्त चित्रण से लोगों का अभूतपूर्व मनोरञ्जन तो हुआ ही, तुलसी के मित्र रहीम भी अपनी दुष्चिन्ताएँ भूल, उसी में रमे रहे।

कथा का समापन हुआ। 

आरती के बाद तुलसी ने घोषणा की –

"कथा विसर्जन होत है, सुनहुँ वीर हनुमान, 
जो जन जहँ ते आय हो, सो तहँ करहु पयान।"

जयजयकारों के पश्चात् सत्संग-सभा विसर्जित हुई।

छोट-छोटे समूहों में लोग जाने लगे, बातें होने लगीं। 

"आज की कथा बड़ी ज़ोरदार रही।"

"देखो नारद जैसे मुनि भी माया से नहीं बच पाये।"

"उन्हें अभिमान हो गया, सो ठिकाने लगाना ही था।" 

"वैसे ये तो सच है स्त्री का मोह ही माया जाल में फँसाता है . . . ज़िन्दगी भर कोल्हू के बैल बने जुते रहो।"

"हाँ, ये तो है, उसके कारन ही सारी ज़रूरतें, जितना कमाओ गिरस्थी की भट्टी में झोंक दो।"

"कबीर बाबा तो कह ही गए हैं – नारी विष की बेल।"

प्रत्युत्तर में, कोई युवक चलते-चलते बोल पड़ा, " . . . और हम उस विषबेल के फल!"

कुछ लोगों ने मुड़ कर देखा। 

फिर सब तितर-बितर हो गये।

*

– क्रमशः

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