राग-विराग – 013
कथा साहित्य | कहानी डॉ. प्रतिभा सक्सेना15 Jun 2021 (अंक: 183, द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)
जब भी नन्ददास का इधर चक्कर लगता है, भौजी के हाल-चाल लेना नहीं भूलते। जानते हैं दद्दू के समाचार पाने को वे भी व्याकुल होंगी। देवर होने का अपना फ़र्ज़ बख़ूबी निभा रहे हैं। यही चाहते हैं उनकी कुछ सहायता कर सकें।
इस बार उन्होंने रत्नावली के पीहर की बात छेड़ दी। पूछा, "अच्छा भौजी, तुम अपने मायके जाना चाहो तो हम जमुना-पार उधर ही जा रहे हैं, तुम्हें पहुँचाते जायेंगे, तीन-चार दिन बाद लौटना भी होगा।"
"देवर जी, मायके जाने की बात करते हो? पर पहलेवाली बात अब कहाँ रही? पहले सखियों से मिलने का बहुत मन करता था, शुरू के दो-एक बरस, रीति-रिवाज़ के अनुसार जाना-आना हुआ था, फिर सब छूट गया।"
नन्ददास बोले, "हमारी अम्माँ कहा करती थीं, मेहरारू तो दो घरों की होती है। सो हमने सोचा भौजी को मायके की याद आती होगी। उधर चक्कर लगाना चाहें तो हम हैं.."
"जिस साल तम्हारे दद्दू ने साथ छोड़ा, माँ तो उसी बरस सिधार गईं थीं। असली मायका तो माँ से होता है। पहले बहुत मन करता था। सखियाँ कोई दूर ब्याही हैं कोई पास, शुरू में सावन में आती थीं, तब भी कहाँ जा पाती थी। वे मुझसे शिकायतें करती थीं, विद्वान पति मिल गया तो हमसे मिलना भी शान के खिलाफ़ हो गया?"
बोलते-बोलते मुख पर गहरी उदासी छा गई, नन्ददास चुप सुन रहे हैं।
कुछ क्षण रुक कर बोलीं, "अब वहाँ क्या है? वे सब चुप हो अपने-अपने घरों में समा गईं, किसी का किसी के लिये कोई अस्तित्व नहीं बचा।"
नन्ददास को कैसे बताए कि तब और अब की स्थितियों में बहुत अन्तर है। तब जिनकी ईर्ष्या का पात्र रही अब उनकी दया-दृष्टि नहीं सहन होती। कोई सहानुभूति दिखाये यह भी गवारा नहीं। अब उन से मिलने में रत्नावली को संकोच लगता है। वे सब जो पूछते हैं, उसका उत्तर नहीं दे पाती। लोग परित्यक्ता समझते होंगे। यह दूषण बड़ा दुखदायी है।
वातावरण भारी सा हो गया था। कुछ देर दोनों चुप रहे। रत्नावली ने ही चुप्पी तोड़ी, "नहीं, नहीं,अब जी नहीं करता। तब की बात और थी। अब न वह मन रहा, न वह बूता।"
नन्ददास ने आश्वस्त करते हुए कहा, "अरे नहीं भौजी, हमने तो बस इसलिये पूछा कि अगर कभी तुम्हारा मन करे तो हम हैं लाने ले जाने के लिए।"
तुलसी के समान ही काशी में विद्याध्ययन करनेवाले, सरस छन्द लिखनेवाले नन्ददास कृष्ण-भक्त हैं, जहाँ रामभक्ति की अति मर्यादा और सेवक-सेव्य भाव न हो कर परस्पर साहचर्य की भावना अधिक है।
रत्नावली की क्षमताओं का उन्हें भान है। कभी-कभी माँग कर उनके दोहे पढ़ते हैं। कहते हैं, "भौजी, तुम कहीं भी दद्दा से कम नहीं हो। दोनों में तारतम्य बैठा होता तो काव्य का एक नया ही रंग विकसता।"
अपने इस देवर के प्रति रत्ना का वात्सल्य भी कम नहीं . . .
"अरे, कहाँ वे और कहाँ मैं। हाँ बड़ी इच्छा थी उनकी संगति में रह कर पढ़ा-लिखा सार्थक कर सकती।"
"सच्ची भौजी, हमलोगों ने इतने साल गुरु से शिक्षा पाई तब इस योग्य बने तुम तो घर बैठे कविताई करती हो, क्या छंद, क्या व्याकरण कहीं कोई चूक नहीं और भाव-व्यंजना ऐसी कि गहरे उतर जाय।"
"ये मत कहो! मुझे शिक्षित करने में बाबा ने कोई कसर नहीं छोड़ी। बड़े-बड़े सपने देखे थे उन्होंने।"
"हाँ, सो तो है।"
"मन करता है बाहर के संसार को जानूँ, कुछ विचार-विमर्श करूँ, वे विद्वान हैं उस विद्वत्ता का कुछ अंश मैं भी पाऊँ। और उनका कहना है जब लिखूँ तब देखना।
"सच बात यह है देवर जी, कि भूमिकाएँ पहले से तय हैं, घर की है शरीर की तोषण-पोषण के लिये, और बाहर का संग-साथ होता है मन और बुद्धि के प्रसादन के लिये। यही परंपरा बन गई है। मैंने चाहा था पारिवारिक जीवन में भी थोड़ा बुद्धि-रस घुलता रहे, चर्चाओं का प्रसाद मुझे भी मिलता रहे। पर मेरे हिस्से में केवल घर और उसका चौका-चूल्हा आया ..।"
कहते-कहते अचानक जैसे कुछ याद आ गया हो, "...अरे, चूल्हे पर दाल चढ़ा आई थी, तुम्हारी बातों में भूल गई," कहती हुई वह,शीघ्रता से रसोई की ओर चली गई।
चौकी पर रखे पर कुछ पन्ने खिड़की से आती हवा में बार-बार खुले जा रहे थे। नन्ददास ने हाथ बढ़ा कर उठा लिये।
कुछ दोहे लिखे थे, बीच-बीच में कुछ और पंक्तियाँ लिखी अधलिखी . . .
एक जगह लिखा था – तो न्याय करो, तुम्हारी पत्नी हूँ सहचरी हूँ। मूढ़-सी रह केवल देह नहीं बनी रहना चाहती, मेरा मन और आत्मा भीतर ही भीतर कुलबुलाते हैं।
पन्ना पलटा ऊपर के कोने में कुछ लिखा था – कोई कुछ नहीं कर सकता, मुझे इसी घेरे में जीना है अपनी सीमा को पार कर जानेवालों को सबक़ सिखाना, लोगों को अच्छी तरह आता है, हर प्रकार का इलाज है उसके लिए..
भौजी के आने की आहट पा सारे पन्ने, यथावत् धर दिये।
चलते समय रत्नावली ने कहा था –
"देवर जी, भूल जाना इन बातों को। ज़रा अपनापन, सहानुभूति पाई तो बह गई। मुझे उनसे कोई शिकायत नहीं। बस मन है जो फूट पड़ा, मैं ठीक हूँ, खाना-कपड़ा मिलता है, अपनी सीमाओं से बाहर आकर बोल गई, क्षमा कर देना।"
"अरे नहीं भौजी, तुमने कुछ ग़लत नहीं कहा... मैं समझ सकता हूँ।"
*
गृहस्थी में रह कर भक्ति का रूप ही और होता है। संन्यासी की भक्ति अलग प्रकार की हो जाती है। वहाँ परिवार है ही नहीं। रत्नावली को लगता है, मुझे तो राम के साथ पति और संसार के साथ राम चाहियें। उन्होंने जो संसार दिया उसे क्यों नकारें?
संसार में रह कर उसका निर्वाह भी उन्हीं की भक्ति कहलाएगा।
मन में ऊहापोह निरन्तर चलता है।
सोचती है, कहाँ तक धैर्य धरूँ? संतान-सुख मेरे भाग्य में नहीं, होती तो उसी में उलझी रहती, इतने में तुम आगे निकल जाते, मेरी पहुँच से आगे। और तुम घर के झंझटों से मुक्ति पाकर कहीं आगे पहुँच जाते पर वह स्थिति नहीं है। और केवल देह होने में मेरा मन विद्रोह करता है। अपने लिये आकाश चाहता है।
रत्ना ने एक बार कहा था– देवर जी, सुख भोग की कामना रही होती तो दो टूक बात कह कर उन्हें भक्ति की ओर क्यों प्रवृत्त करती? इच्छाओं पर संयम के लिये मन को दूसरी ओर मोड़े बिना कैसे चलेगा? यही सोच कर उन पर लगाम लगाने का प्रयत्न किया था।"
अनायास ही एक गहरी साँस निकल गई।
नन्ददास जानते हैं, आर्थिक सहायता कभी लेंगी नहीं। कह देती हैं यहाँ कुछ बालिकाएँ मुझसे शिक्षा लेने आती हैं जो मिल जाता है मेरे लिये पर्याप्त है। तीज-त्यौहार सीधे आ जाते हैं, वस्त्र इत्यादि भी, जीवन-यापन का डौल हो जाता है।
रत्नावली को लगता था अपनेपन के लिये तरसता पति का मन, सब अपने अनुकूल पा कर तोष पा लेगा.. पूरा प्रयत्न किया था उसने।
उसे गर्व था, मेरे पति सबके जैसे नहीं, वे साधारण नहीं विशेष हैं। ये कुछ अलग प्रकार के हैं यह बात तो शुरू दिन से ही जान गई थी। विशेष जनों की अपनी विशेषताएँ होती हैं। जिस असामान्य स्थितियों में शैशव बीता वह ज़रूर कुछ प्रभाव छोड़ेगा ही . . .
उसे पूरी सहानुभूति थी। जानती थी बचपन में बहुत कष्ट झेले और आज सबके लिये मान्य,आदरणीय, उदाहरणीय, इतने गरिमा संपन्न, पाण्डित्यपूर्ण। यह उनकी सामर्थ्य का द्योतक है।
शिक्षा, दृष्टि देने के साथ, रत्नावली को नये क्षितिज देखने की क्षमता भी दे गई थी। मूल-प्रवृत्तियों से आगे बढ़ कर मानसिक और बौद्धिक वृत्तियाँ भी सजग-सचेत हो गईं थीं। पूर्णतर जीवन की इच्छा ने जन्म ले लिया था। भरे-पुरे परिवार में पली संस्कारशील परिष्कृत, रुचि-संपन्न युवती थोड़ा अपने लिये भी सोच गई, ..बस, उससे यही ग़लती हो गई।
और तुलसीदास? जिस पौध को मूल से वाञ्छित पोषण न मिला हो, तो बहुत संभव है सहज-विकास कहीं न कहीं बाधित हो जाय। बालपन जिस विपन्न और सम्बन्धहीनता के शून्य में बीता वहाँ सुसंस्कारों की नींव कहाँ पड़ पाती? थोड़ा बड़े होकर गुरुजनों के सान्निध्य में जीवन को सही दिशा मिली थी। लेकिन पारिवारिक जीवन की पारस्परिकता कहाँ से विकसती। जो पाया उसके सेवन में संयत न रह सके। और घोर ग्लानि से ग्रस्त हो, गृहस्थ-जीवन को ही तिलाञ्जलि दे बैठे।
दस वर्ष से भी अधिक पति के साथ अंतरंग जीवन जी कर, रत्नावली उनकी क्षमताओं और दुर्बलताओं से भली प्रकार अवगत हो चुकी थी। घनिष्ठ सम्बन्ध ने आश्वस्त किया कि वह स्वाभाविक आदान-प्रदान में अपने लिये भी कुछ चाह सकती है। लेकिन यहीं धोखा खा गई।
रत्नावली की अभिव्यक्ति प्रखर और मुखर न होती, उसमें संवेदना की तीखी तड़प न होती तो तुलसी, वह तुलसी न होते जो आज हैं। तुलसीदास होते लेकिन रामचरित मानस, विनय-पत्रिका जैसे अनुपम ग्रंथ इस रूप में हमारे पास न होते। भक्ति का उदात्त रूप, वैराग्य के साथ लोक कल्याण की भावना, दाम्पत्य का इतना उज्ज्वल रूप, और जीवन के कुछ अत्यंत मार्मिक चित्रणों से हिन्दी साहित्य वञ्चित रह जाता।
नन्ददास सोच कर सिहर उठते हैं, नारी-जीवन की कैसी दुखान्ती कि पति हो कर भी न हो!
*
– क्रमशः
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