राहत
काव्य साहित्य | कविता वेदित कुमार धीरज15 Feb 2021
सम्हलना सीखा है बहुत जद्दोजेहद के बाद
यूँ ही नहीं बंजर पर बसर करना आया मुझे
कश्तियाँ किसी के दरबार तक आया नहीं करतीं
जो जाना है उस पार तो दरिया में उतर
बहुत चमकाया है मैंने अपने इस हुनर को यारो
मेरे चेहरे पर जो चमक है दिल पर चोटों का असर है
मेरे हालात तुम्हें बताने की ज़रूरत पड़ना
इस बात का गवाह है मैं तेरे दिल नहीं, ज़ेहन में हूँ
तुम सिर्फ़ किताब के पन्नों तक ही मत समझना मुझे
कई सभ्यताएँ अभी सुपुर्द-ए-ख़ाक हैं, दर्ज नहीं
फ़ज़ीहत हुई थी आज़ाद ख़यालियों की
बादल फिर भी बरसते हैं प्यासा नहीं छोड़ा करते
ये नदियाँ हैं जो ज़ोर की बारिश में बिखर जाती हैं
समुन्दर किसीके साये में सर रखकर रोया नहीं करते
यूँ ही नहीं सब शायर से प्यार कर बैठे
ख़ुद को भुला था वो, दूसरों के दर्द कहते-कहते
मुफ़लिसी में भी ज़मींदारी की जज़्बे ईमान की
अमर हो गया मर के भी वो मरने वाला
चलो अब हम भी सियासत करते हैं
हर दर्द पर अब से ख़ामोश रहते हैं।
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
"पहर को “पिघलना” नहीं सिखाया तुमने
कविता | पूनम चन्द्रा ’मनु’सदियों से एक करवट ही बैठा है ... बस बर्फ…
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
कविता
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं
{{user_name}} {{date_added}}
{{comment}}