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रामी

देवयानी की नींद निगलती हुई दूर से लहराती घड़ियाल की टन टन टन टन। सुबह के चार बजे थे। सहसा उँघता हुआ चौकीदार शेरसिंह कड़ाके की सर्दी में अपने बरसों पुराने फौजी ओवरकोट से चिपटता हुआ लालटेन और लाठी सम्भाल कर कालेज के निकट ही कुछ ऊँचाई पर टीचर्स हास्टिल के नीचे वाले क्वार्टर की ओर चला। शेर सिंह की उम्र साठ के लगभग है लेकिन जीवन के प्रति जीवंत दृष्टिकोण के कारण उसका हँसता हुआ चेहरा उसकी उम्र से दस वर्ष कम दीखता है। उम्र के इस थके मोड़ पर पहुँचने वाले, इस चौकीदार की चिलगोज़े जैसी आँखों से अभी भी मसखरी और चुस्ती टपकती है। क्वार्टर में पहुँचते ही शेरसिंह ने सबसे पहले दड़बे में फड़फड़ाती, चहकती मुर्गियों को दाना पानी दिया, फिर फटे टाट के पर्दे को हटाकर बरामदे में घुसते ही उसकी नज़र उस कोने की ओर गई, जो जगह की कमी का कारण एक छोटे से रसोईघर में परिवर्तित कर दिया गया था। अधबुझे चूल्हे के पास उसकी पत्नी रामी अपने चीथड़ों में दुबकी बैठी थी। उसने शेरसिंह के लिए चाय का गिलास तैयार कर रखा था। शेर सिंह ने गर्माहट पाने के लिए पास पड़ी एक छोटी सी लकड़ी से राख को कुरेदते हुए कहीं-कहीं चमक पड़ने वाले अंगारों को देखकर चूल्हे में एक दो बार फूँक मारी और चाय का गिलास थामकर बैठ गया। दोनों पति-पत्नी कबूतर और कबूतरी की तरह पास बैठे हुए धीरे-धीरे चाय सुड़कने लगे।

शेर सिंह से एकदम विपरीत रामी के चेहरे पर समय ने दुःख और विषाद की अमिट रेखाएँ खींच दी हैं। पिछले चार वर्षों से जैसे वह एकाएक मौन में चली गई है। तब से आज तक देवयानी ने रामी को कभी भी किसी से एक शब्द भी बोलते नहीं देखा। देवयानी को लगता, या तो रामी के शब्द चुक गए हैं या उसकी बोलने की इच्छा मर गई है। उसके उस अस्वाभाविक मौन तथा चेहरे पर गहरा आई रुग्ण उदासी के कारण कोई उसे विक्षिप्त तो कोई प्रेताभिभूत बताता है। कई बार शेरसिंह के कमरे से आवाजें आती, जो रात भर देवयानी का पीछा करती रहतीं। आज तक कोई डाक्टर व वैद्य रामी की सलोनी मुखाकृति की उन बीमार रेखाओं को स्वस्थ नहीं कर पाया।

देवयानी अकसर सोचती कि रामी के जीवन में आए उस बदलाव का क्या कारण होगा? उसकी मोटी पपोटों वाली छोटी आँखों में उठता गिरता भावों का ज्वार-भाटा, रामी के अन्तस में घुमड़ते किसी तूफान का स्पष्ट संकेत देता, लेकिन शब्दों की अभिव्यक्ति के बिना उसे समझ पाना कठिन था। देवयानी ने रामी के उस अटूट मौन को अक्सर एक दर्द भरे कुमाँऊनी गीत में टूटते देखा था। रामी के दर्दीले स्वर में रचा बसा यह गीत "म्यारा मैता का देस ना बासा, घुघूति रूमझूम" देवयानी के भीतर दूर-दूर तक विचारों और नए-नए अनुमानों के ऐसे विकट झाड़ झंखाड़ खड़े कर देता जिनमें रामी के दुःख को जान लेने के लिए उसका व्याकुल मन उलझकर रह जाता। देवयानी ने कितनी बार एक कुशल मनोविश्लेषक की भाँति मीठे, तीखे और कड़ुवे प्रसंगों द्वारा रामी के अन्तस को झकझोर कर उसे मन की व्यथा उगल देने को मजबूर कर देना चाहा,किन्तु हठयोगी की तरह रामी ने कभी भी अपनी मौन समाधि को न तोड़ा। एक बार न जाने कैसे रामी देवयानी के बहुत कहने पर एक मस्त लोक गीत "बेडू पाको बारहमासा, काफल पाको चैता मेरी छैला" को उच्च स्वर में गा उठी थी, लेकिन उसके दर्द भरे स्वर ने उस थिरकते गीत को जैसे एक साथ कई पतझड़ों से लाद दिया था।

 

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ठीक साढ़े नौ बजे तैयार होकर देवयानी जैसे ही हास्टल की सीढ़ियों से नीचे उतरने लगी तो एकाएक चिड़िया कि तरह फुदकती 'नौनी' ने हाथ में तश्तरी से ढके कटोरे में कुछ लिए, देवयानी का रास्ता रोक लिया, और बोली -

"दीदी, माँ ने आपके लिए अरसा भेजा है।"

रामी का वो स्नेह, ममता भरा अपनत्व देवयानी के दिमाग में फिर विचारों के अनगिनत बुलबुले उठाने लगा। कैसी प्रेममयी है यह विक्षिप्त, भूली-भटकी रामी, या प्रेताभिभूत नारी? देवयानी को लगता कि या तो रामी के विषय में लोगों की धारणाएँ सरासर गलत हैं, और यदि सही हैं तो उसे संतुलित व्यक्ति की भाँति उसकी पसंद की चीज़ भेजना कैसे याद रहता है? देवयानी के लिए दिल की अतल गहराइयों में डूबकर कुछ सोचने के लिए मजबूर कर देने वाला आश्चर्य थी रामी। देवयानी ने प्यार से नौनी के हलके से चपत जड़ते हुए कहा- "जा रसोई में मेरी जाली की अलमारी में रख आ। अभी उप्रेती दीदी कमरे में ही हैं।" मिनट भर के प्रतीक्षा भरी मुद्रा में खड़ी देवयानी ने नौनी के कमरे से लौट आने पर खट-खट सीढ़ियाँ उतर कर कॉलिज का रास्ता पकड़ लिया। रामी कैसी भी हो, वह अभी भी नियमित रूप से स्कूल की सभी अध्यापिकाओं को पानी पिलाने की ड्यूटी पूरी निष्ठा से निबाहती है। हाथ में पानी से भरे गिलासों की ट्रे थामे, एक पैर पर कुछ अधिक जोर देकर धीरे-धीरे सपाट चाल चलती, रामी कभी कभी तो एकदम रोबोट नज़र आती है।

 

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आज रविवार है। लेकिन रवि तो पिछले एक सप्ताह से ईद का चाँद बना हुआ है। आज भी सघन कोहरे की मोटी चादर ओढ़े जैसे अटूट निद्रा में सोया हुआ है। हवा के स्पर्श से ऊँचे-ऊँचे चीड़ के पेड़ों की संगीतमयी झनझनाहट लिहाफ में लिपटे होने पर भी शरीर में एक सर्द सिहरन तरंगायित कर रहीं हैं। कोहरे ने समूचे परिवेश को इतना उबाऊ और शिथिल बना दिया है कि परिन्दे भी अपने घोंसलों में निस्पन्द पड़े हैं। दूर बादलों से घिरी पहाड़ियाँ थोड़े-थोड़े मुँह निकालकर झाँकती हुई, अलसाई सी नज़र आ रही हैं।

तभी बरामदे में कोई गम्भीर स्वर गूँजा। देवयानी ने देखा कि शेरसिंह हाँफता हुआ प्रिंसिपल मिस जंगपांगी से कह रहा है- "बहनजी, रामी इडर आया क्या? सबेरे चार बजे से गायब है। शब जगह देख आया, मिलता ही नहीं।" इससे पहले कि उसकी बात खत्म होती, देवयानी लपककर शेरसिंह के क्वार्टर में नौनी के पास पहुँच गई। नौनी रुआँसी, ख़ामोश खड़ी थी। देवयानी का दिल किसी दुर्भागी आशंका से भर उठा। दिमाग में एक साथ बुरे ख़्यालों के हज़ारों कैक्टस उग आये। देवयानी झटपट नौनी को साथ लेकर अनायास ही ठण्डी सड़क से होती हुई टिफिन टॉप की ओर चल पड़ी, जिधर-जिधर मन ने कहा, उधर ही वे दोनों चलते गये। लगभग सभी ओर उसकी आँखें एक - एक दरख्त, एक-एक पत्ते को भेदकर रामी की खोज लेने को आतुर हो रही थी। रामी को खोजने में अभी दो घण्टे से अधिक समय नहीं बीता था, लेकिन देवयानी के लगा कि जैसे दो युग बीत गए और इस एहसास ने उसके दिल में निराशा की सर्द परतें जमानी शुरू कर दीं। आस-पास कहीं भी ज़रा सी भी आहट होती तो वे दोनों सजग हुए, आशा भरी दृष्टि से उधर ही लगभग दौड़ पड़ते। कोहरे की धुन्ध में जल्दी से एक फुट दूर की वस्तु भी साफ नज़र नहीं आती थी। कभी कोई जंगली चूहा ढालानों पर पड़े सूखे पत्तों को खड़खड़ाता निकल जाता तो कभी कोई गिलहरी पेड़ों के झुरमुट से सरसराती हुई तेज़ी से गुज़र जाती। एक पल के लिए सुस्ताने को खड़ी हुई देवयानी, ज़मीन पर पड़े बेडूफल को चुगती हुई नौनी को शून्य दृष्टि से निहारने लगी कि तभी रामी का चिरपरिचित स्वर कहीं से अँधेरे में आशा की रूपहली किरण की तरह उभरा। देवयानी के हृदय में जैसे हज़ारों सुर्ख बुरांस एक साथ खिल उठे। सधे स्वर में उठती गिरती रामी की मधुर आवाज़... कितनी मिठास... कितना दर्द है उसके गाने में। देवयानी और नौनी उस आवाज़ के सहारे चिकने स्लेटी पत्थरों पर सावधानी से कदम रखती हुईं आगे बढ़ीं और कुछ ही दूरी पर चीड़ के पेड़ों के नीचे निकल कर धीरे-धीरे चलती रामी को आगे जाते हुए देखा।

"रामी, ओ रामी रुको"। देवयानी की पुकार से रामी के पाँव ठिठक गये। रामी ने पलटकर सूनी आँखों से देवयानी को देखा और अभिवादन में हाथ जोड़कर खड़ी हो गई। नौनी दौड़ कर उससे लिपट गई और बोली,

- "माजी, तू कख गए छे। पिताजी, ई दीदी तिते खुजाणा छै। घोर चल। मिथे भूख लगणी छे।"

और रामी यंत्रवत सी देवयानी के साथ नौनी का हाथ थामें हुए लौट पड़ी। सहसा रामी की नासिका में झूलता बुलाक मानो देवयानी के ऊपरी होंठ पर एक अस्वाभाविक सी खुजली का आभास देने लगा। उसके गले में पड़ी लाल मूँगे व काली चरेऊ की मालाएँ देवयानी की ज़ुबान तक आने वाले अनेक प्रश्नों को मानों उसके गले में ही घोंटने लगी। देवयानी का मन हुआ कि रामी को डाँटे, या धीरे से धमकाए। आखिर उसने सुबह से सबको इस तरह परेशान क्यूँ कर डाला ? लेकिन उससे कुछ कहना तो जंगल में रोने जैसा है। दूर-दूर तक भटक कर थका देवयानी का मन कुछ भी समझ पाने में असमर्थ सा हुआ, एक अजीब से दमघोटू एहसास को पीने लगा। विचार के ताने-बाने में उलझी देवयानी रामी को लेकर अब तक हॉस्टल पहुँच चुकी थी। कई जोड़ी आँखे इधर-उधर से रामी को देखने के लिए उठी और एकाएक गायब हो गई। रामी एक अपराधी की सी चाल से रेंगती हुई नौनी के साथ क्वार्टर की ओर चली गई।

 

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गहरी नींद में सोई देवयानी एकाएक किसी की दर्दनाक चीख से उठ बैठी। घड़ी में देखा तो रात के १२:३० बजे थे। बाहर कहीं दूर गीदड़ों की "हुंआ हुंआ" वातावरण को मनहूस बना रही थी। रात के सन्नाटे में झींगुरों की झनझनाहट भरी संगीतमयी चिकमिक ने उस परिवेश को अधिक रहस्यमय बना दिया था। तभी एक भयावह चीख रात की नीरवता को पार करती हुई, देवयानी के हृदय में कहीं गहराई से धँसती चली गई। देवयानी को समझते देर नहीं लगी - निःसन्देह वह रामी की ही आवाज़ थी। वही ओझा की झाड़ फूँक और दर्द से छटपटाती रामी! उसका मन हुआ कि तुरन्त नीचे जाकर रामी को अपनी बाहों में समेट कर अभय दान दे दे। देवयानी किसी द्वन्द्व में उलझी बहुत समय तक वैसे ही बैठी रही। फिर निढाल सी बिस्तर पे पसर गई। उसे नहीं मालूम कि कब उसकी आँख लगी। सवेरा हुआ तो रामी का चेहरा अनायास ही देवयानी की आँखों के सामने नाचने लगा। बिजली की सी गति से बिस्तर छोड़कर, शाल लपेटती हुई वह सम्मोहित सी शेरसिंह के क्वार्टर की ओर लपकी। इससे पहले कि वह रामी के करीब पहुँच पाती, बाहर ही उसे शेर सिंह और नौनी का करुण विलाप सुनाई पड़ा। धड़कते दिल से वह कमरे में पहुँची तो देखा रामी चिर निद्रा में सोई थी। उसके चेहरे की उदास रेखाओं में पहले से भी अधिक दुःख और पीड़ा घुली थी। शायद मरने से पूर्व उसने ओझा की झाड़-फूँक की जिस पीड़ा को भोगा था, वही उसके मुख पर उभर आयी थी। देवयानी के भीतर घुमड़ती घनीभूत पीड़ा, ओझा और शेरसिंह के प्रति क्रोध का ज्वालामुखी बनने लगी। किन्तु उस विदा के क्षण पथराये वातावरण में कुछ भी कर पाने में असमर्थ देवयानी का नपुंसक क्रोध आँखों से आँसू बनकर बह निकला। देवयानी को लगा कि रामी का दर्द भरा स्वर "म्यार मैता का देस ना बासा घुघूति रूमझूम" चारों दिशाओं में चीख-चीख कर रो रहा है। शेरसिंह के अंधविश्वास के कारण प्रेताभिभूत समझी जाने वाली रामी ओझा की झाड़ फूँक की बलि चढ़ चुकी थी। उसकी मौत मुक्ति नहीं वरन मानों एक प्रश्न-चिन्ह बनकर समाज के मस्तक पर चिपक गई थी!!

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