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रानो

"काश कि तुम समझ पाते!" बँधती हिम्मत फिर से एक बार छूट कर बिखर रही थी। स्त्री रबड़ की गुड़िया की पर्याय। वह भी ऐसी रबड़ की गुड़िया जैसी, जिसे जब चाहे मोड़ लें। तनती नहीं, टूटती नहीं। मुट्ठी में बंद कर लेने लायक़। कि सामने खड़ा शहर का मशहूर उद्योगपति उसका पति मिस्टर कपूर अपनी मुठ्ठी में बंद कर लें। हाँ, इतनी-सी ही तो है वह। सोचते हुए स्वयं में डूब गई।

व्यापारिक मसले सुलझाने के लिए मिस्टर कपूर उस पर निर्भर तो रहते हैं पर उन की  शर्तों के मुताबिक़। हाई प्रोफ़ाइल बिज़नेस फ़ैमिली, यहाँ मुड़ना-तुड़ना सब चलता है। 

शादी से पहले कॉलेज में उसे बिजली कहते थे, छू लेने भर की कल्पना से ही लोगों को करेंट लग जाता था। वह तेज़तर्रार थी पर बदतमीज़ नहीं थी। इसलिए जब भी पुरानी याद आती है तब इच्छा होती है कि सब कुछ छोड़ कर चल दे।

वह दिन अच्छे से याद है, जब गाँव से काका आए थे। उसकी शादी की बात चल रही थी। उस दिन जब उसे लड़के वाले देखने आये थे, गली में इतनी बड़ी कार पहली बार आई थी। उस काली गाड़ी को देखने, गली के सारे बूढ़े-बच्चे इकट्ठे हो गए थे। इनकी माँ ने विशेष तौर घटकिन से कहलवाया था कि उनके परिवार को संस्कारों वाली लड़की चाहिये, सो दादी के आदेश पर उसे साड़ी पहनने की सज़ा मिली थी। गुलाबी रंग की शिफ़ॉन की साड़ी में वह सकुचायी बैठी रही। गोरा रंग , ऊँचा क़द और घनी केशों वाली मोटी-मोटी घुटने तक झूलती उसकी दोनों चोटियाँ माता जी को पसंद आईं थीं। 

लेकिन अब वह यह भी सोचा करती है कि मिस्टर कपूर ने उस वक़्त क्या देखा होगा उसमें? संस्कार से तो स्वयं उनका दूर-दूर तक नाता नहीं था। फेरों के वक़्त बार-बार पंडित पर ही ग़लत अंदाज़ में झल्लाये जा रहे थे। शादी के बाद उस पहली रात की याद से मन सिहर उठता है। न लगाव की बातें, न अंतरंगता का बोध। वे तो भरे पेट नींद में गहरा गए। और वह अकेली बिस्तर के कोने पर सिमटी रात भर  रोती रही।

सुबह मुँह-दिखाई के साथ शादी की आख़िरी रस्म भी संपन्न हो गई थी। उद्योगपति घराने की कथनी और करनी में अंतर चंद हफ़्तों में ही समझ में आ गया था। जिस संस्कारवान बहू के लिए माता जी ने ढोल पिटवाये थे, वह सितारा ब्यूटी-पार्लर की उस केबिन में उतर गया था। बरसों तक सहेजी गयी उसकी घनी लम्बी चोटियाँ अब एल्बम में दफ़न होकर रह गयीं थीं। उसका पूरा मेक-ओवर करवाया गया था। अब वह पहले वाली रानो नहीं बची थी। बची थी तो सिर्फ़ छोटे-छोटे स्टेप कट बालों वाली हाई-प्रोफ़ाइल घराने की बहू। सलवार-सूट और साड़ियाँ आलमारी के कोने में पीछे खिसक गयीं और सामने टँग गयी वेस्टर्न कपड़ों की दुकान। उसे सलवार-कमीज़ और साड़ियाँ पहनने का शौक़ था। शादी में माँ और मामियों ने मिलकर उसके पसंद के जोड़े बनवाए थे। कॉलेज में देखे हुए बड़े-बड़े सपनों की मानिंद, कपड़ों के जोड़े भी बिना पहने ही बंद रह गए। मायका अब पूरी तरह से पराया था और ससुराल कहने भर को ही अपना। जब कभी भूले बिसरे अपनी इच्‍छा व्यक्त करने को मुँह खोला तो दोनों तरफ़ से यही समझाइश मिली, "पति, स्त्री का स्वामी होता है, उसके अनुसार चलना स्त्री का धर्म।"

स्त्री-धर्म, परिवार धर्म और समाज धर्म, धर्मों की गठरी उठाए। इन सब परम्पराओं को निभाने में वह कितनी सफल हुई यह तो नहीं जान पायी लेकिन उद्योगपति पति के कहने पर वह उनके क्लाइंटस के साथ सफलतापूर्वक बिज़नेस डील करती रही। बाहरी दुनिया में अब वह सफल बिज़नेस वुमन कहलाती थी। पर उसकी नज़र में यह सफलता एक औरत की हार थी। औरत हार कर ही दुनिया में जीतती आई थी,  सो वह भी अपनी कथित जीत के साथ  परिवार और उद्योगजगत, दोनों जगह  स्थापित हो गयी।

उसकी पहचान मिसेज़ कपूर, कपूर इंडरप्राईज़ेज़ की मालकिन। लेकिन यह बाहरी सच था। भीतरी सच यह था कि उद्योगजगत के इस दुनिया में वह सिर्फ़ उपभोग की वस्तु मात्र थी। आँखों के सामने महिला दिवस पर आयोजित समारोह का दृश्य घूम गया। कॉलेज के उस समारोह में मंचित नाटक की केन्द्रीय पात्र की भूमिका में थी। राजा हरिश्चंद्र का प्रसंग  मंचन किया जा रहा था जिसमें रानी शैव्या को बेचने के लिए बाज़ार में खड़ा किया जाता है और बोली लगाई जाती है। पति की सहधर्मिणी सत्य की रक्षा में बिकने को तैयार। तिलमिला कर रिहर्सल में वह ज़ोर से चीख़ी थी-मत बेचो उसे, स्त्री उपभोग की वस्तु नहीं है! प्रोफ़ेसर कुलश्रेष्ठ ने उसे डाँटते हुए कहा था– ऐतिहासिक घटना के इस अंश को तुम्हें करना होगा। राजा हरिश्चंद्र के इस नाटक के क्लाईमेक्स का महत्वपूर्ण हिस्सा है, इसमें कमी नहीं होना चाहिए।

अकेले में अब वह ख़ुद को टटोलती और प्रश्न करती कि वह वास्तव में क्या है?  पुरुषत्व का अर्थ क्या होता है? पति का व्यवहार उसके समझ के बाहर था। उसे आज वनवासी सीता जी भी याद आ रही हैं। वन में सीता जी को माता अनुसूया ने मन्त्र सिक्त वस्त्र दिया था जो कभी मैले नहीं पड़ते थे। रावण के यहाँ बंदी जीवन के दौरान सीता माता अनुसूया के दिए उसी वस्त्र को पहना करती थी। सदा पवित्र। वह कभी गंदा नहीं हुआ। वह उज्जैन के मंदिर में महाकाल को चढ़ाये उस फूल को भी याद करती है जो चढ़ाए जाने के बाद भी जूठा नहीं होता, जिसे धोकर बार-बार इस्तेमाल किया जा सकता है। लेकिन वे सभी फूल धोकर सिर्फ़ महाकाल को ही चढ़ाए जाते हैं, अन्य देवताओं के लिए उसे त्याज्य माना गया है। पाँच पतियों वाली द्रौपदी भी . . . याद आती उसे! 

रानो की आदत थी, अपने आप में बातें करते हुए कहीं से कहीं विचरने लगती। वह उसने अपने आपसे पूछा, क्यों उघाड़ रही हूँ देवताओं के कृत्यों को? क्यों याद कर रही हूँ?

जवाब मिला, आज फिर से एक डील क्लियर करवाना था उसे। शाम को मेहमान आने से पहले तैयारी हो गयी थी। स्वागत उसे ही करना था। डिनर पर आबकारी विभाग में आए नए अधिकारी को बुलाया गया था। मिस्टर कपूर भी अपने फ़ाईल वर्क के साथ तैयार थे। ड्राईवर ने पहुँचने की सूचना देने के मंतव्य से गाड़ी रोकते ही हॉर्न बजाया। नव-अगन्तुक का स्वागत करने वह बाहर निकली। अगन्तुक पर नज़र पड़ते ही एकदम से थरथरा गयी। ओंठ फड़फड़ा कर रह गए। हाथ-पैर सुन्न हो गये थे।

नया अधिकारी  देवाशीष ही है? ऐसा लगा मानों पैरों के नीचे से ज़मीन सरक गयी हो, वह हवा में टँगी-सी, धमनियों में रक्त ने एकाएक बहना बंद कर दिया। चेतनाशून्य। मिस्टर कपूर अगुवाई करने आगे बढ़े। वह पीछे वहीँ खड़ी रह गयी थी। 

यह तो देबा है! देवाशीष! यहाँ कैसे और क्यों आया है?

वे अंदर सोफ़े पर बैठ चुके थे। वह लज्जा से गड़ी जा रही थी। देवाशीष कनखियों से बार-बार उसे देख रहा था। 

सेल्स मैनेजर चोपड़ा भी साथ में बैठा था, "आज मैडम जी को क्या हो गया है?”

मिस्टर कपूर ने घूरकर उसको देखा। वह घुट कर रह गयी। उसके घर आज देबा आया है, अधिकारी बनकर, वो भी बिकाऊ है मेरी तरह मिस्टर कपूर के इस डील में? 

मन को जबर कर, उसने तुरंत अपनी होंठ को चौड़ी कर पलकों को तीन-चार बार झपका कर उस सेल्स मेनेजर चोपड़ा की ओर देखा। वह सचेत हुई। यह सब बिज़नेस डील के अंतर्गत है। आख़िर वह कपूर इंडरप्राईज़ेज़ की मालकिन है। उसने अपने आत्मविश्वास को गिरने से बचाने की कोशिश की। 

उसे ही सर्व करना था, सो पेग बनाने के लिए ट्रे की ओर हाथ बढ़ाया। गिलास बढ़ाते हुए जब देवाशीष की आँखों में जैसे ही देखा, मन का साँप फन काढ़ कर बैठ गया। उसने इस सेवा को स्वीकार नहीं किया, "सॉरी, मैं शराब नहीं पीता, अब चलता हूँ। कल ऑफ़िस में मिलिये, आपकी फ़ाईल कल वहीं कम्पलीट करते हैं।"

वह झटके से खड़ा हुआ और उसकी तरफ़ देख, बिना कहे मुँह घुमा कर बाहर निकल गया। चोपड़ा और मिस्टर कपूर मुँह ताकते रह गए और वह जाते हुए देखती, ठगी सी रह गई। सर्व किये उस गिलास के साथ अपने गालों पर ढलके आँसूओं को सम्भालने लगी।

“बड़ा बदतमीज़ निकला साss...।” मिस्टर कपूर के मुँह से छुटते ही निकला।

"मैडम जी का अपमान किया गया है।" चोपड़ा ने मामले को गंभीरता से लेने की कोशिश की।

वह और नहीं बैठ पाई, वहाँ से उठकर भीतर कमरे में सिटकनी लगा धम्म-से बिस्तर पर गिर पड़ी। मन की परतों में छिपे बरसों के छाले रिसने लगे थे।

उस दिन कॉलेज से लौटते ही पिता से सामना हुआ था।

"कल कौन था तुम्हारे साथ कॉफ़ी हाऊस में?"

". . . . . ."

"सीधे-सीधे बताती है कि . . ." पिता ने जैसे ही हाथ उठाया माँ सामने आकर खड़ी हो गयी।

"अरे, अरे, जवान लड़की पर कोई इस तरह हाथ उठाता है भला! बाप हो या कसाई?"

"वो देवाशीष था। कल उसका आसाईनमेंट पूरा हुआ तो पास के कॉफ़ी शॉप में पिज़ा खिलाने ले गया था," उसने हिचकते हुए कहा।

"मैं जानता हूँ आजकल के छोरों को," तमतमाये पिता का वार झेलना कष्टप्रद था।

"अब ऐसी भूल नहीं करूँगी," उसने बात को विराम देना चाहा था, लेकिन पापा ने विराम नहीं लगाया। ऐसी पहरेदारी शुरू हुई कि उसका बाहर आना-जाना बंद हो गया। लड़के के साथ कॉफ़ी पीने की सज़ा। उस पर कड़ी नज़र रखी जाने लगी थी। मानों कालापानी की सज़ा मिली हो। वह जानती थी कि अब उस पर भरोसा नहीं किया जाएगा। पिता की इज़्ज़त का पाग उसके हाथों में जो था। पिता के मन में डर था कि कहीं बचपने में देवाशीष के साथ भाग कर शादी न रचा लूँ। शायद भाग भी जाती, कलकत्ता में भागकर शादी करना आम बात है। कालीघाट में प्रतिदिन ऐसी शादियाँ करायी जाती हैं। लेकिन भागती भी कैसे? भाग कर शादी करने के लिए बालिग़ होना ज़रूरी था, और देबा को भी तो पढ़ाई पूरी करनी थी। काश भाग ही जाती वह।

मन को समझा लिया था, अब देवाशीष से दूर रहेगी। लेकिन पापा ने बी.ए. के आख़िरी इम्तिहान के लिए भी इंतज़ार नहीं किया। चंद दिनों बाद की तिथि तय कर दी गयी और शादी हो गयी। भारतीय समाज में बेटियाँ इसी तरह ब्याही जाती हैं। डोली में बैठते हुए हृदय में अपने प्रेमी के साथ बिठाये मीठे पल दहेज़ में लेकर आती हैं।

कपूर परिवार लाखों में एक। यहाँ दूध की नदी बहती हैं। संस्कारों को धर्म के समान निभाया जाता है। ऊँचा कुल। देवाशीष भुखमरों के घर का लड़का, क्या सुख देता? पिता छाती चौड़ी करते तब माँ घुट कर रह जाती। वह स्त्री होने के नाते बेटी के मन को जानती-समझती थी। 

शादी के बाद उसने फिर कभी देवाशीष को नहीं देखा था। यहाँ उसकी ख़बर लाने वाला भी कोई नहीं था। पिता जब भी आते दामाद की ख़ातिरदारी देखते। बेटी को कपूर इंटरप्राईज़ेज़ की मालकिन के रूप में ठाठ-बाट से रहते देखकर गदगद होते। लेकिन उसके मन में पिता के नाम से ही रोष उत्पन्न होता था। उसके हृदय का रक्त उबलने लगता था। उसका मन होता कि कह दे उनके ढूँढ़े रिश्ते के झूठ  और संस्कारों की असली कहानी। लेकिन क्या वे सुनते उसे? उसके कहे पर उनको यक़ीन होता भी या नहीं? दामाद के गुणगान करते न अघाते।

हा पिता! उसके हृदय के उठते ज्वार से, इस रुदन-हाहाकार से अनजान वे पिता कम और पुरुष अधिक थे। सच कहें  तो इन सबमें उनका भी क़ुसूर नहीं था। रोटी, कपड़ा और मकान के लिए कभी तकलीफ़ नहीं दी थी उन्होंने। आम तौर पर स्त्री को इन चीज़ों की आपूर्ति पिता, भाई, पति, बेटे के रूप में अपनी ज़िम्मेदारी समझ कर पुरुष करते हैं। ज़िम्मेदारी उठाने के कारण ही ये पुरुष घर, समाज और देश के प्रधान पद पर आसीन होते हैं, इनको मुखिया होने का रुतबा प्राप्त होता है। सनातन काल से चली आ रही इस परम्परा का पालन करते हुए उसके पिता के पश्चात् मिस्टर कपूर ने ज़िम्मेदारियों का पूरी तन्मन्यता से निर्वाह किया और उसके मालिक एवं घर के मुखिया कहलाये।

न परिवार, न ही समाज। उसके जीवन की सुनामी लहरों से किसी को वास्ता नहीं। शहर के पॉश इलाक़े में पाँच हज़ार वर्ग फ़ीट में घिरा ये करोड़ों का आलीशान बँगला। इस इलाक़े की सबसे बड़ी कोठी। गराज में क़तार लगाये खड़ी लाखों की गाड़ियाँ, ये शानो-शौक़त। यह सब तो उसके लिए सुख का पर्याय होना चाहिए था। रानो अब रानो बची ही नहीं, स्त्री के अधिकारों पर उसकी वाचालता अब शिथिल हो चुकी थी। भाग्य पर किसी का वश नहीं, अपनी नियति को स्वीकार कर लिया था। ढल गयी थी समय के साथ। व्यवसाय में अब वह ज़रूरी हिस्सा थी। शादी के इतने सालों बाद भी वही बीस साल वाली रानो लगती है। मिस्टर कपूर ने बहुत जतन से रखा है उसे। कई बार चाहने पर भी वह माँ बनने के सुख से अब तक दूर रही। मिस्टर कपूर को बच्चों से अधिक व्यापार में तरक़्क़ी पसंद है।

अचानक देवाशीष का चेहरा और 'क्लाइंट का चेहरा' दोनों  एक दूसरे में घुलने- मिलने लगे। देवाशीष और भ्रष्टाचार! वह यहाँ क्यों आया था? क्या वह पता लगाने के बाद सिर्फ़ उसे देखने आया था?

क्या देवाशीष ने शादी कर ली होगी? कैसा होगा उसका परिवार? कैसी है उसकी पत्नी? क्या वह रानो से अधिक सुन्दर होगी? वह कसमसाई। उसे देवाशीष से मिलना होगा। छटपटा उठी। 

इसी शहर में है तो कोशिश करेगी मिलने की। रेगिस्तान में मरीचिकाएँ फिर से झलमला रही थी। तृष्णाएँ अँगड़ाई लेने लगी। साथ पढ़े, बैठे, सच कहें तो प्यार भी था एक-दूसरे से । उसे अब भी सब याद होगा। भूला होता तो यूँ उठकर ना जाता। वह एकदम से उठ खड़ी हुई। फट से दरवाज़ा खोला। कमरे से निकल हॉल में गयी तो देखा मिस्टर कपूर और चोपड़ा दोनों पीकर टुन्न सोफ़े पर निढाल थे।

"चोपड़ा जी, अब घर जाइये, बहुत रात हुई।"

“आप ठीक तो हैं न?” चोपड़ा ने लड़खड़ाती  हुई ज़ुबान में पूछा।

"मैं कहता था ना, उस अधिकारी की वज़ह से मैडम का मूड बिगड़ा है।"

"चोपड़ा जी, आप उस बंदे का पता, फोन नम्बर दीजिये, मैंने उसकी ख़बर ना ली तो कहना!"

"जी, अभी लीजिये, वह जो राममंदिर वाला चौराहा है , बस वहीं दायीं गली सरकारी क्वार्टर है। डी ब्लॉक में ग्यारह नम्बर का मकान है, सुना है वह अब तक कुँवारा है!" आख़िरी वाक्य के शब्दों को चबाते हुए उसने कहा। जैसे बिच्छू-सा डंक मार गया। उसकी आँखें छलक उठी।

"कुँवारे हैं?" वह मुश्किल से स्वंय पर क़ाबू कर पायी।

"मुझे उस अधिकारी से मिलना है," सुबह नाश्ते के वक़्त जब रानो ने कहा तो मिस्टर कपूर चौंक उठे।

"लेट्स हिम गो, वे बिना लेन-देन के ही हमारी फाईल पास कर रहे हैं तो हमें क्या ज़रूरत उसके एटिट्यूड से!"

"मुझे मिलना है, आप मीटिंग फ़िक्स करवाइए।"

"भूल जाओ, रात गयी बात गयी।"

"ड्राईवर, गाड़ी निकालो," मिस्टर कपूर  उसे अनसुना करते हुए उठ खड़े हुए।

बाहर खड़ा ड्राईवर सामने रखा बैग उठा कर बाहर निकल गया।

वह पलट कर बेडरूम में आ गयी और कोने में रखा फोन का रिसीवर उठाया। चोपड़ा से लिए नम्बर डॉयल करने लगी।

उस तरफ़ रिंग के बजते ही उसका हृदय घबराहट से भर गया। वह कहाँ से बात शुरू करेगी? और क्या कहेगी?

“हैलो,” वहाँ से आवाज़ आई।

"हैलो, देबा!" उसने झिझकते हुए कहा।

"आप कौन, पहचाना नहीं?"

"अब आवाज़ भी भूल गए, मैं रानो . . ."

"ओह, मिसेज़ कपूर! आपको फोन करने की ज़रूरत नहीं, आपका काम हो जायेगा, बॉय द वे, मेरा नाम पूरा नाम देवाशीष दत्त है।"

"इतनी रूक्षता?"

"रूक्ष मैं? ज़रा ख़ुद को देखिए एकबार।"

"देबा, प्लीज़!"

"मैं ऑफ़िस में हूँ, कई ज़रूरी काम हैं, करने दीजिये।"

"देबा, मिलना है आपसे।"

"आपके मिस्टर कपूर ऑफ़िस के बाहर इंतज़ार कर रहे हैं, फोन रखिए ताकि आपका काम आगे बढ़ाऊँ।"

"खट्!" से आवाज़ हुई। दिल में धमक उठी।

उसके मन की स्त्री का मान क्या देबा भी नहीं समझ पाएगा?

ख़ानसामाँ लंच के लिए दो बार पूछ कर गया। उसने आज ब्रेकफ़ास्ट भी नहीं लिया था।

बेजान बुत-सी, जड़वत थी। ट्रिन-ट्रिन फोन की घंटी बजी तो बेमन से रिसीवर उठाया, "हैलो। मैं बोल रहा हूँ, अभी एक घंटे में बारिस्ता में मिल सकती हो?"

"देबाss!” उसे एक पल में ही मानों सब मिल गया। “हाँ . . . हाँ, मैं अभी निकलती हूँ।"

वर्षों बाद देबा से मुलाक़ात। मन के डाल पर सैकड़ों हरसिंगार खिल उठे। देबा ख़ुश्बू बनकर मन मस्तिष्क पर फैल रहे थे। तैयार होने लगी तो वॉर्डरोब की ओर देखा, पहली पंक्ति में वेस्टर्न आऊटफ़िट नज़र आये। पीले रंग का ईवनिंग गाऊन। हाथ रुक गया। नहीं, वेस्टर्न नहीं, देबा को उसका साड़ी पहनना पसंद है।

कबर्ड के सबसे नीचे वाले खन से उसने साड़ियाँ निकाली। लाल, गुलाबी, मोरपंखी . . .क्या पहने? फिर धीरे से तह की हुई पीले रंग वाली सिल्क की साड़ी उठायी। एकाएक बसंत पंचमी का दिन नज़रों में तैरने लगा। सरस्वती पूजा के दिन कॉलेज में जब वह पीली साड़ी पहनकर आयी थी और वह धोती-कुर्ता।  बंगाली बाबू लग रहा था। दोस्तों की निगाहें रानो और देव पर ही टिकी हुईं थीं। शायद कॉलेज में सबको अंदाज़ा था उन दोनों के बीच पनपते, गाढ़े होते रिश्ते का। हाँ, सबको मालूम था, सिवाय उन दोनों के ही। वे एक दूसरे से अनजान रहने की कोशिश करते थे। न देबा आगे बढ़े, न रानो ने ही कोशिश की। जैसे फूलों में सुगंध रहती है वैसा ही अनदेखा सा प्यार उनके रिश्ते में मौजूद था। पुराने दिनों में खोई सम्मोहित कब घर से बाहर निकली, कब सड़क पर गाड़ी क्रॉसिंग पर रुकी, कब हाईवे पर दौड़ती हुई बारिस्ता तक पहुँची, पता ही नहीं चला। 

वह गाड़ी से उतरी तो ड्राइवर पार्किंग की ओर बढ़ गया। बारिस्ता में जैसे ही अंदर आई कि सामने की टेबल पर बैठे देबा खड़े हो गये।

"यहाँ सामने नहीं, चलिए पीछे की टेबल पर . . . !"

"हूँ," उसने अनुसरण किया।

"कैसी हैं, यह तो नहीं पूछूँगा, लेकिन यह क्या हाल बना लिया है आपने, इसकी वज़ह क्या है, यह ज़रूर पूछना चाहता हूँ।"

"जिन परम्पराओं की खूँटी से बाँधी गयी थी उन्हीं पर दौनी में जोती जा रही हूँ।"

"मतलब? यह कैसी परम्परा है कि घर की इज़्ज़त को बाज़ार बना दे?"

"उद्योगजगत में पायदान पर बने रहने के लिए कई डील करने होते हैं।"

"डील? क्या कमी है आपके यहाँ जो इतने कम्प्रोमाइज़ करने पड़ते हैं . . .?"

"यह पायदान का मसला है, आप नहीं समझेंगे?"

"मैं नहीं समझूँगा? बात मत घुमाओ? बताओ कि तुमने कैसे स्वीकार लिया ये सब करने को?"

"स्वीकारती नहीं तो कहाँ जाती? ऊँचे कुल की बहू-बेटियों को जैसा भी घर-वर मिले, निभाना पड़ता है, ताकि ख़ानदान की नाक बनी रहे।"

"कॉलेज में वो तुम्हारी लम्बी-लम्बी बातें, नारी विमर्श, आन्दोलनकारी तेवर, कहाँ गए सब?"

"अकेली पड़ गयी देबा। लड़ने के लिए मन को एक सम्बल चाहिये होता है। किसके लिए लड़ती? पिताजी, माँ, सास, पति सबको सबका सुख मिल रहा था। अपने लिये लड़ती क्या इतनों को दुखी करके? क्या यह सही होता?"

"हाँ, सही होता! इंसान का पहला कर्तव्य स्वयं के लिए हो, उसके बाद दूसरे के लिए। सर्वप्रथम स्वधर्म, फिर मानव धर्म, फिर देश और विश्व धर्म के निर्वाह की बारी आती है। तुम तो मनुष्य होने के पहले धर्म स्वधर्म की भी रक्षा नहीं कर सकी?"

"अपने लिये लड़ने का नहीं, मरने का मन करता है देबा!" कहते-कहते रानो सिसक उठी। 

"तुम्हारे मन को मैं सम्बल दूँगा। देखो, मैं अब भी वहीं खड़ा हूँ जहाँ से तुम आगे बढ़ी थी।" 

"मैं आगे नहीं बढ़ी देबा, मैंने ख़ुदकुशी की थी। देखो मुझे, क्या मैं ज़िंदा लगती हूँ? 

"हाँ, तुम ज़िन्दा हो।” कहते-कहते अचानक शरारत से आँखें चौड़ी करते हुए कहा, “ज़िन्दा हो तभी तो पीली साड़ी पहनकर आई हो।"

"देबा!” वह हँस पड़ी। “तुमने नोटिस किया था?”

“हूँ।”

“मैं आज की बात नहीं कर रही।”

“हाँ, मैं भी सरस्वती पूजा वाले उस दिन की ही बात कर रहा हूँ।”

वह फिर से सिसकने लगी।

“घर चलोगी?”

“किसके?”

“मेरे घर . . .?”

“अभी?”

"हाँ, अभी, अगर तुम्हें कोई ऐतराज़ न हो तो!"

"एक मिनट रुको, ड्राइवर को कह देती हूँ कि यहीं इंतज़ार करे।"

"हाँ, चलो बाहर चलते हैं।"

वह देबा के साथ उसके घर जा रही थी। आज देबा ने उस पर जो अधिकार जताया था वह दोस्ती से कहीं आगे था। इस जताने का उसने बरसों इंतज़ार किया था। आज वह पता नहीं किस बेध्यानी में प्रीत की रीत निभाने निकल पड़ी। रास्ते में खिड़की से बाहर देखते हुए उसने आसमान को पहली बार ध्यान से देखा था। स्व धर्म को निभाने के बाद उसे वापस उस डगर को ढूँढ़ना होगा जिसमें पूँजीवाद का पोषण नहीं मानवीय मूल्यों का पोषण हो। कई प्रश्न त्रिशंकु बन हवा में लटक रहे थे। अब उसके लिए देबा और उसकी चाहत उतना मायने नहीं रखती है जितने वे मूल्य जिन्हें वह कॉलेज के कैम्पस में छोड़ आई थी!
 

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टिप्पणियाँ

निधि खन्ना 2021/06/02 08:09 PM

कहानी अपने में बहुत कुछ समेटे हुई है। क्या कुछ नही बटोरा गया है एक कहानी में। कहानी का प्रवाह, गठन और शब्दों का चयन बहुत ही विषय अनुकूल बन पड़ा है। जो कदम मुख्य पात्र ने उठाया, अक्सर भारतीय स्त्रियां कम ही उठा पाती हैं।

रागिनी शर्मा 2021/06/02 05:23 PM

कान्ता जी कहानी बहुत ही अच्छी है।सच है पूंजीवादी मानसिकता में रिश्ते सिसकते है।

कंचन शुक्ला 2021/06/02 12:01 AM

कांता मैम, "रानो" बहुत सुंदर सधी हुई कहानी है। इसको पढ़कर स्त्री जीवन के झंझावातों का अंदाज़ा हुआ। रानो को किसी का भी संबल नही मिला। मिला होता तो शायद कुछ हिम्मत दिखाती। जैसा कि अंत पढ़ने से लगा। कुल मिलाकर अच्छी बनी कहानी।

रेणु गुप्ता 2021/06/01 10:40 PM

एक बेहद रोचक सशक्त रचना। एक सांस में पढ़ गई। तथाकथित उच्च आभिजात्य वर्ग के खोखले जीवन मूल्यों की सार्थक मीमांसा की है आपने।

पाण्डेय सरिता 2021/06/01 06:09 PM

गंभीर और संवेदनशील विषय

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