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रात के विरुद्ध

क्या है
इस स्याह रात में
कि हर औरत से कहा जाता है
वह डरे इससे
और बंद हो जाए घर के भीतर
निपट अकेली एक / दमघुटी रात की तरह

 

औरत के माथे पर ही क्यों लिखे जाते हैं
रात की स्याही से 
तमाम निषेध

 

लाँघकर निषेध द्वार
बढ़ते जब कोई क़दम
रात का डर बन
खड़ा हो जाता है कोई पुरुष
काँख में दबाए पूरा तंत्र
औरत की त्वचा छीलने / लीलने को तैयार
तमाम खूंखार आवाज़ें

 

क्या है इस रात में
जो दिन के सम्मानित 
बन जाते हैं यहाँ दुःसाहसी
रोकने लगते हैं रात होते ही 
औरत का रास्ता

 

आख़िर क्या करती हैं
सड़क किनारे आँख फाड़े खड़ी
दकदक करती ये रोशनियाँ!
इन रोशन आँखों के नीचे ही
कुछ डरावने पुरुष 
डरावनी बड़ी गाड़ियों में 
डरावनी सुनसान सड़कों पर
निकल पड़ते हैं / कुछ अकेली निडरताओं के
जघन्य शिकार के लिए

 

सोचा तो यह था
इन डराने वालों के विरुद्ध
ये मंचासीन ज़ुबानें / ये पदासीन कंधे
नहीं रहेंगे चुप/ नहीं देंगे साथ इनका 
डरेंगी नहीं अब औरतें!
चुप नहीं कराई जा सकेंगी
इज़्ज़त और चरित्र हनन जैसे 
लिजलिज करते शब्दों से 

 

देखो निकट से
इन कंक्रीट समाजों को
यहाँ दृश्य बदले नहीं अभी! 

 

यह भी पता नहीं अभी मुझे
इन दृश्यों के विरुद्ध
एक बार मुँह खोलकर
फिर ख़ामोश काली रात ओढ़कर
कब तक ज़िंदा रहेगा यह आक्रोश!

 

आत्मा का बोझ
निष्क्रिय शब्दों में बहाकर 
बुद्धिमत्ताओं की गहराती सुस्ती ने
तमाम लड़ाइयों से बना ली है दूरी
देखो तो
कैसी ठंडी /नीली पड़ रही है देह
इन शब्दों की अब! 

 

(वर्णिका कुंडू का अर्द्धरात्रि में नेतापुत्र द्वारा रास्ता रोके जाने पर)

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