अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

राघवेन्द्र पाण्डेय मुक्तक 1

1.
सुप्त जल में कंकण फेंकता है कोई
रुका हुआ पानी फिर से बुलबुला देता है
पहाड़ जैसा दुख हो या हो काँटों सी ज़िंदगी
..........वक़्त सब कुछ भुला देता है

2.
हर कोई हर हुनर में पाक़ नहीं हो सकता
काम गर है जो अधूरा भी काम आता है
न समझिए किसी को छोटा और खुद को बड़ा
गाँव में है जो धतूरा भी काम आता है

3.
हर बात में जो खुद को बुद्धिमान समझते हैं
छोटी सी भी तारीफ को यशगान समझते हैं
उनके सिवाय भी थी ये दुनियाँ इसी तरह
पर जाने क्यूँ वो दुनियाँ को नादान समझते हैं

4.
जैसे चाहें खर्च करें यह शाम आपके ऊपर है
काम करें या कर लें फिर आराम आपके ऊपर है
मित्र बनायें सगरे जग को, जीत लें सबका दिल
या रणभेरी बजा करें संग्राम आपके ऊपर है

5.
दोराहे पर खड़ा हूँ, प्यासा-खाली पेट
एक तरफ बीड़ी जली, एक तरफ सिगरेट
बाहर दुनिया जल रही, लपटें- भीषण आग
मैं अब भी सुलझा रहा, मन के लाग लपेट

6.
बार-बार चिर सत्य सामने आता है,
हर बार उसे मन झुठलाने की कोशिश करता है
जोड़- जोड़ कर जीवन भर बाँधा पूँजी की गठरी
पर अंत समय वह एकाकी लावारिस बचता है..........

7.
सब के सुख में सुख, सभी के ग़म से ग़म हो
आदमी के बीच दूरी, कम से कम हो
टूट जाएँ वर्जनाएँ, ऐसा प्यारा घर बनायें
और मिट जाए, जो मन में कुछ वहम हो

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

किशोर साहित्य कविता

कविता-मुक्तक

गीत-नवगीत

ग़ज़ल

कविता

अनूदित कविता

नज़्म

बाल साहित्य कविता

हास्य-व्यंग्य कविता

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं