अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

राजकोष है खुला हुआ

राजकोष है खुला हुआ 
पर लोग पलायन को मजबूर
राजमार्ग पर पैदल दल है
कितने विवश हुए मज़दूर


कहाँ भरोसा कैसे टूटा
क्यूँ सरकारी राशन से
जगह-जगह खैरात खुली 
क्यों मोह भंग अश्वासन से


जो सरकारी राशन बाँटे
डाँटे माँगने वालों को
तरह तरह की बात सुनाये
विवश डरे बेहालों को


पहले राशन उन्हें मिलेगा
जिनके घर में कुछ न हो
लाइन में केवल वही रहें
जिनके राशन सचमुच न हो


वरना घर की चेकिंग होगी
फिर शर्मिन्दा होओगे
जो तुम से भी ज़्यादा विवश
यदि उनका राशन तुम लोगे

 

कहीं किसी के स्वाभिमान पर
लगा हो कोई आहत ठेस
खैराती खाकर जीने से
अच्छा भूखों मरना निज देश

 

सर पर लादे घर गृहस्थी
बगल दबाये वस्तु अनाम
भूखे प्यासे क़दम बढ़ाते
मन में मंज़िल है निज गाम

 

बंद है सब के सब जन वाहन
बंद हुई क़िस्मत निष्ठुर
ट्रॉली पर निज नन्हा सुलाए
निकल पड़े है कोसों दूर

 

पछताते पैदल पथ जाते  
हुई कौन सी कैसी भूल
थक जाते दल से बल पाते
बातों में रहते मशग़ूल

 

खुला था जन धन खाता सबका
मदद भी देते खातों में
पता भी चलती मदद हीं है
या महज़ दिखावा बातों में

 

पैदल चलते पाँव में छाले
और हृदय में गहरा घाव
विवश सिंहासन पर सरकारें
दावे सारे निष्प्रभाव

 

लोग दयालु देश में अपने
कोई खाना कोई पानी दे
जिनसे बने कुछ पैसे भी दे
कोई हौसला वाणी दे

 

बीस दिवस लो बीत गये हैं
गाँव नहीं अब ज्यादा दूर
तन तो वैसे तार-तार पर
अभी भी हिम्मत है भरपूर

 

राजकोष है खुला हुआ 
पर लोग पलायन को मजबूर
राजमार्ग पर पैदल दल है
कितने विवश हुए मज़दूर
 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

'जो काल्पनिक कहानी नहीं है' की कथा
|

किंतु यह किसी काल्पनिक कहानी की कथा नहीं…

14 नवंबर बाल दिवस 
|

14 नवंबर आज के दिन। बाल दिवस की स्नेहिल…

16 का अंक
|

16 संस्कार बन्द हो कर रह गये वेद-पुराणों…

16 शृंगार
|

हम मित्रों ने मुफ़्त का ब्यूटी-पार्लर खोलने…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कहानी

सांस्कृतिक आलेख

कविता

किशोर साहित्य कविता

हास्य-व्यंग्य कविता

दोहे

सम्पादकीय प्रतिक्रिया

बाल साहित्य कविता

नज़्म

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं