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डॉ. रामविलास शर्मा : हिन्दी प्रदेश की संस्कृति का रवीन्द्र साहित्य पर प्रभाव

भारतीय संस्कृति के निर्माण में हिन्दी प्रदेश की महत्वपूर्ण भूमिका है। हिन्दी प्रदेश की संस्कृति को अलग करके भारतीय संस्कृति की कल्पना नहीं की जा सकती। हिन्दी प्रदेश में पाटलिपुत्र, कशी, मथुरा और उज्जयिनी ऐसे प्राचीन नगर है जिनका इतिहास विरासत के रूप में अब तक चला आ रहा है। भारतीय संस्कृति का बहुत गहरा संबंध इन चार महानगरों से है। “दक्षिण में तमिलनाडु, उत्तर में कश्मीर, पूर्व में असम और पश्चिम में गुजरात, दूर–दूर के इन प्रदेशों को जोड़ने वाला, इनके बीच स्थित विशाल हिन्दी प्रदेश है। ऋग्वेद, अर्थवेद, उपनिषद, महाभारत, रामायण, अर्थशास्त्र की रचना यहीं हुई। यहीं कालिदास और भवभूति ने अपने ग्रंथ रचे और मौर्य तथा गुप्त साम्राज्यों की आधारभूमि यहीं प्रदेश था। उत्तरकाल में दिल्ली, आगरा इस प्रदेश के बहुत बड़े नगर बने। ये व्यापार के बहुत बड़े केन्द्र थे और सांस्कृतिक केन्द्र भी थे। तुर्क वंशी राजाओं ने यहीं रहकर शताब्दियों तक एक बहुत बड़े राज्य का संचालन किया था। विद्यापति, कबीर, सूरदास, तुलसीदास जैसे कवि इसी क्षेत्र में हुए। इसी प्रदेश में प्रसिद्ध संगीतकार तानसेन का जन्म हुआ। अपने स्थापत्य सौन्दर्य से संसार को चकित कर देने वाला ताजमहल इसी प्रदेश के आगरा नगर में है।”1 इस प्रकार हम देखते है कि भारतीय संस्कृति के विकास में हिन्दी प्रदेश की निर्णायक भूमिका है। हिन्दी प्रदेश की संस्कृति ने भारतीय संस्कृति को व्यापक रूप में प्रभावित किया है। इसके महत्व को कम करके नहीं आंका जा सकता। महाकवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर भी हिन्दी प्रदेश की संस्कृति के प्रभाव से अछूते नहीं रहे। उनके साहित्य पर इसका प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। हिन्दी प्रदेश की संस्कृति से रवीन्द्रनाथ ठाकुर का संबंध जोड़ते हुए डॉ. रामविलास शर्मा लिखते हैं-“हिन्दी प्रदेश की संस्कृति से, यहाँ के साहित्य और संगीत से रवीन्द्रनाथ ठाकुर का घनिष्ठ संबंध रहा है। जिसे हिन्दुस्तानी संगीत कहा जाता है, वह हिन्दी-भाषियों का जातीय संगीत है। हिन्दी प्रदेश से ही वह पश्चिम में महाराष्ट्र तक और पूर्व में बंगाल तक फैला है।”2 विभिन्न प्रदेशों की संस्कृतियाँ आपस में एक दूसरे से जुड़ी हुई हैं। रवीन्द्रनाथ ने हिन्दी जाति की संस्कृति के अनेक तत्वों का आत्मसात किया था और उससे सुसज्जित होकर बंगाली जनता के जातीय संस्कृति का निर्माण किया।

रवीन्द्रनाथ का संगीत प्रेम

रवीन्द्रनाथ ठाकुर संगीत प्रेमी थे। संगीत से उन्हें गहरा लगाव था। संगीत के क्षेत्र में उन्होंने कई नये प्रयोग किये। सबसे पहले तो उन्होंने परम्परा से चली आ रही शास्त्रीय संगीत की परम्परा को तोड़ा और उससे हटकर नये ढंग का संगीत रचा। यह संगीत अब बंगाली जाति का जातीय संगीत बन चुका है। जिसे बंगाल में रवीन्द्र संगीत के नाम से जाना जाता है। रवीन्द्रनाथ के सामने शास्त्रीय संगीत का वह रूप था, जिसका अनुसरण करना बहुत ही कठिन हुआ करता था। क्योंकी उसमे अलंकारों का प्रयोग सबसे ज़्यादा होता था। जिसके कारण वह नीरस एवं एक वर्ग विशेष तक सिमित होकर रह गया था। ऐसे में रवीन्द्रनाथ ने शास्त्रीय संगीत की समस्या को बड़ी गंभीरता से लिया। उन्होंने सबसे पहले शास्त्रीय संगीत को सामंती परिवेश से बाहर निकाला और उसमें कुछ मौलिक परिवर्तन कर, उसे साधारण जनता के ग्रहण योग्य बनाया। उदाहरण के लिए गुरुदेव ने उपासना के लिए ब्रह्मसंगीत रचा। इसमें शास्त्रीय नियमों का पालन कठोरता से किया जाता था। बाद के दिनों में “क्रमशः इस संगीत में इंद्रियबोध ने प्रवेश किया और इससे उसका रूप बदल गया। उपासना गीत मूलतः ध्रुपद–पद्धति के थे अर्थात् वे सीधे–साधे और अलंकार–विहीन थे। खयाल की गायकी में जो अलंकारों का महत्व है, वह यहाँ नहीं था। अधिक से अधिक टप्पा के ढंग की छोटी-मोटी तानों से काम लिया जाता था। ध्रुपद की तरह गायन के साथ जिन वाद्य यंत्रों से काम लिया जाता था, वे भी पखावज और तानपूरा थे। आर्गन, जैसे हारमोनियम, का उपयोग होता था लेकिन उससे श्रुति में कोई बाधा नहीं पड़ती थी।”3 “वास्तव में सामंती व्यवस्था के अन्तर्गत हर काल में अलंकारों का प्रयोग होता था, चाहे संगीत हो या कला हो या साहित्य हो। यही बात शास्त्रीय संगीत के साथ भी हुआ। खयाल की गायकी में जिन अलंकारों का प्रयोग होता था, वह सामंती व्यवस्था की ही देन थी। लेकिन रवीन्द्रनाथ गायकी में सामंत-विरोधी दिशा में चल रहे थे, इसका प्रमाण यह है कि वह खयाल की गायकी-पद्धति से बच रहे थे।”4

काव्य की तरह संगीत में भी अलंकारों का प्रयोग होता रहा है। शास्त्रीय संगीत में अलंकारों का प्रयोग सबसे ज़्यादा हुआ है। ऐसा नहीं है कि रवीन्द्रनाथ ने अलंकारों का प्रयोग नहीं किया, उन्होंने भी अपने संगीत में अलंकारों का प्रयोग किया हैं। उसे चमत्कृत या बोझिल बनाने के उद्देश्य से नहीं बल्कि भावोंत्कर्ष उत्पन्न करने के उद्देश्य से किया है। “काव्य की तरह संगीत में भी अलंकारों का प्रयोग दो तरह से हो सकता है। एक प्रकार यह है कि वे काव्योत्कर्ष में सहायक हों, दूसरा प्रकार यह है कि वे भाववस्तु से अलग, शरीर पर गहनों की तरह दिखाई दें। काव्यों में ही नहीं, गद्य में भी उपमा और रूपक के बिना रवीन्द्रनाथ बात नहीं करते, परन्तु उनकी उपमाएँ और रूपक भावोत्कर्ष में सहायक होते हैं। वे भावों पर लदे हुए गहने नहीं हैं। इसी तरह खयाल की गायकी में एक स्थिति ऐसी होती है कि ताने मात्र अलंकार न रहकर भावव्यंजना का माध्यम बन जाती हैं। जहाँ छंदों से अलग केवल स्वर साधना है, जहाँ गायक या वादक केवल स्वरों द्वारा भाव व्यक्त करता है या श्रोताओं के मन में संवेदनाएँ जगाता है,वहाँ स्वरों की श्रृंखलाएँ बंदिश से स्वतंत्र होकर भाव व्यंजित करती हैं।”5

रवीन्द्रनाथ ने अपने गीतों में मूलतः आठ रागों से काम लिया हैं। वे आठ राग हैं- तोड़ी, भैरवी, आसावरी, सारंग, पूर्वी, इमनी, मल्लार और केदार। मालकौस और बागेश्वरी में उन्होंने बहुत कम गीत रचा हैं। गुरुदेव ने लगभग सभी रागों में गीत रचा। ऐसे बहुत कम ही राग होंगे जिसमें उन्होंने कोई न कोई गीत न रचा हो। इन रागों में वे बहुत ही सूक्ष्म परिवर्तन करते थे। उन्होंने नया काम यह किया कि जो राग एक दूसरे से मिलते थे, उसे आपस में मिला देते थे। “इस तरह वह भैरवी को आसावरी और तोड़ी से मिलाते थे, पूर्वी को इमन से मिलाते थे, और केदार को हम्मीर से। बाद में वह कभी-कभी बाउल और कीर्तन के स्वर भैरवी में मिला देते थे।”6 गुरुदेव ने लोकसंगीत के स्वरों को भी शास्त्रीय बंदिशों के साथ मिलाया। लोकसंगीत के रूप में उनके सामने बाउल, भटियाल और कीर्तन था। इन स्वरों के मिलने से शास्त्रीय संगीत का रूप बदल सा गया। बाद में उनका स्वतंत्र रूप हो गया एवं एक नया संगीत बन गया।

रवीन्द्रनाथ ने अपने गीतों को साधारण जनता के अनुरूप बनाया है। उन्हें पाश्चात्य संगीत का भी अच्छा ज्ञान था। पाश्चात्य संगीत के तर्ज़ पर वे नये संगीत का निर्माण कर सकते थे लेकिन पाश्चात्य संगीत की धुनों से वे कोई विशेष आकर्षित नहीं थे। अपने युवावस्था में पाश्चात्य धुनों के आधार पर उन्होंने कुछ गीत बनाये थे। लेकिन प्रौढ़ावस्था में वे उससे दूर ही रहे। उनका झुकाव भारतीय संगीत, लोकसंगीत की ओर था। इस सन्दर्भ में डॉ. शर्मा कहते हैं- “उनके काव्य में पाश्चात्य प्रभाव हाशिये पर है। उनके संगीत में पाश्चात्य प्रभाव और भी निम्न स्थान पर है। शताब्दियों से चले आते हिन्दुस्तानी संगीत के रागों में उन्होंने लोकसंगीत की धुनें मिलायी, किन्तु पाश्चात्य संगीत की धुनें मिलाकर उन्होंने किसी नये संगीत की सृष्टि नहीं की।”7 “पेशेवर गायकों और वादकों के अद्भुत कौशल को वह निश्चय ही प्रशंसा के भाव से देखते थे लेकिन उनका मन लोकसंगीत की सीधी-सादी, धुनों की ओर आकर्षित होता था। शास्त्रीय संगीत में रागों का उपयोग करते हुए वह उनकी सादगी का अनुसरण करते थे (अर्थात लोकसंगीत की धुनों की सादगी का अनुसरण करते थे) भारतीय संगीतशास्त्र रागों से भावों का संबंध जोड़ता है। वह उसे स्वीकार करते थे। वह भारतीय (हिन्दुस्तानी) शास्त्रीय संगीत समझते थे और उससे परिचित थे, भले ही उससे उन्होंने प्रेरणा ग्रहण न की हो, फिर भी वह उनकी सांस्कृतिक विरासत का अंग अभिन्न अंग था।”8

धूर्जटीप्रसाद के अनुसार रवीन्द्रनाथ के गीतों में काव्य सर्वोपरि है। उनके गीत काव्यात्मक है। और संगीत काव्य की सहयोगी है। वह काव्य से स्वतंत्र नहीं है। जबकि संगीत और काव्य दोनों की अलग-अलग सत्ता होती है। दोनों में मौलिक भेद है। “संगीत ऐसे संवेदन, ऐसे अस्फुट भाव जगाता है कि उन्हें शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता। शब्द भावों और संवेदनों के साथ विचार भी प्रकट करते है। संगीत में संवेदनों और भावों की जहाँ अस्पष्टता होती है वहाँ काव्य में शब्दों के माध्यम से विचार स्पष्टता से व्यक्त किए जाते हैं। रवीन्द्रनाथ शब्दों की सीमाएँ जानकर कभी-कभी अपनी कविता में भाषा के उस पार जाने की बात कहते हैं। भाषा के उस पार यह संगीत का ही अस्फुट भावों और संवेदनों का संसार है।”9 रवीन्द्रनाथ काव्य से अलग संगीत की स्वतंत्र सत्ता पहचानते थे। फिर भी उन्होंने अपने गीतों में काव्य के साथ संगीत को मिलाया है। लकिन ऐसे गीतों की संख्या बहुत कम है। उनके गीतों में संगीत की भूमिका गौण है, वह काव्य की सहायक मात्र है।

इस तरह रवीन्द्रनाथ संगीत में उसके जातीय संस्कृति की रक्षा करते हैं। वह जातीय संस्कृति चाहे बंगाल की हो या फिर हिन्दी प्रदेश की हो।

हिन्दी कवियों का प्रभाव

डॉ. रामविलास शर्मा लिखते हैं --“हिन्दुस्तानी संगीत से रवीन्द्रनाथ का प्रेम उन्हें बड़ी गहराई से हिन्दी प्रदेश की संस्कृति से जोड़ता है। संगीत के अलावा वे हिन्दी के भक्त कवियों के प्रेमी भी थे।”10हिन्दी के भक्त कवियों में वे संत कवियों से सबसे ज़्यादा प्रभावित हैं। संत कवियों पर उनका एक सुन्दर लेख ‘प्रवासी’ में प्रकाशित हुआ था। उसमें उन्होंने साहित्य, रस और विशेष रूप से मर्मी कवियों (संत कवियों) के ऊपर बड़ी महत्वपूर्ण बातें कहीं हैं। नयी हिन्दी कविता से पुरानी संत बानी की तुलना करते हुए उन्होंने बताया कि “एक में कौशल ज़्यादा है लेकिन दूसरे में स्वाभाविक दर्द है। कौशल तो बाहरी है लेकिन रस सत्य का ही प्रकाश है। जिस कविता में सत्य अपने सहज वेश में प्रकट होता है, वहीं अमर होती है और उस पर काल का दाग नहीं पड़ता।”11 पुरानी बांग्ला कविता से हिन्दी की संत बानी से तुलना करते हुए उन्होंने बताया कि “बांगला साहित्य में ऐसी कविता थोड़ी ही है जिसके बारे में प्राचीन हिन्दी कविता की तरह कहा जा सके की वह सदा के लिए नवीन है।”12 संत कवियों पर प्रकाश डालते हुए महाकवि ने यह लक्ष्य किया कि उनकी बानी उस समय के सामाजिक रूढ़ियों के विरोध में थी। उन्होंने लिखा कि- “ये संत प्रायः सभी अंत्यज थे या समाज के निम्न वर्गों में उत्पन्न हुए थे। पण्डितों के बनाये हुए शास्त्र और नियम उनके लिए कठिन थे। यह बाहरी आडम्बर छोड़कर उन्होंने मानव-हृदय की सहज प्रेम-भावना का आश्रय लिया था।”13 आगे वे लिखते हैं – “उन्होंने धर्म की रूढ़ियों का उल्लंघन किया था। ...............इनके गीत दूर-दूर के गाँवों में एकतारे पर सुनाई देते हैं और वह तार भारतवर्ष की एकता के तार है। भेद-बुद्धि उनके पास नहीं फटकती। समाज के कर्णधारों की अवज्ञा के बावजूद उनकी अमर वाणी आज भी सर्वज्ञ गूँज रही है।”14 रवीन्द्रनाथ की दृष्टि में संत कवि श्रेष्ठ पुरुषों में से हैं। जिन्होंने हिन्दुओं और मुसलमानों को मिलाने का प्रयास किया। समाज के उपेक्षितों, पीड़ितों एवं दलितों के मन में गौरव का भाव जगाया। भारतीय समाज जाति और धर्म में बँटने के कारण उनके बीच दूरियाँ बढ़ती गयीं। इस विभाजन के बीच भारत के मर्म की वाणी रवीन्द्रनाथ को हिन्दू, मुस्लिम, ब्राह्मण और अंत्यज संत कवियों में सुनाई देती है। रवीन्द्रनाथ लिखते हैं- “जो भारत के श्रेष्ठ पुरुष हैं, वे मनुष्यों में परस्पर भेद नहीं करते बल्कि उनके हृदयों के बीच “सेतु निर्माण” करते हैं। हमारे समाज का बाहरी आचार परस्पर भेद और विद्वेष बढ़ाता है। इसीलिए भारत की श्रेष्ठ साधना इसी में है की बाह्य आचार का अतिक्रमण कर हम मनुष्य के आंतरिक सत्य को स्वीकार करें।”15

संत कवियों में रवीन्द्रनाथ के सबसे निकट कबीरदास है। कबीर के प्रति उनके मन में जो आकर्षण है उसे हम सब भली-भांति जानते है। कबीर से प्रभावित होने के कारण उन्होंने उनकी रचनाओं का अंग्रेज़ी में अनुवाद किया। अपनी प्रसिद्ध रचना ‘भानुसिंहेर पदावली’ में उन्होंने विशेषतः विद्यापति की पदावली की अनुसरण किया हैं। संस्कृत कवियों में रवीन्द्रनाथ के सबसे प्रिय कवि कालिदास है। कालिदास और उनके काव्य पर उन्होंने अनेक कविताएँ लिखी हैं। डॉ. रामविलास शर्मा लिखते हैं – “रवीन्द्रनाथ यथार्थ जीवन के आधार पर जो स्वप्न संसार रचते हैं, उसके मूल प्रेरक कालिदास है। किसी भी पाश्चात्य या भारतीय कवि की अपेक्षा कालिदास का रचना-संसार रवीन्द्रनाथ के रचना-संसार से अधिक निकट हैं। कालिदास शिव के उपासक थे और शिव को इसी जगत् में प्रत्यक्ष देखते थे। उनका यह दृष्टिकोण रवीन्द्रनाथ की दार्शनिक धारणाओं से मिलता-जुलता है। कालिदास को कोई भक्त कवि नहीं कहता। वह श्रृंगारी कवि हैं। रवीन्द्रनाथ में सामान्यतः कालिदास की अपेक्षा श्रृंगार अधिक संयत है। दोनों कवियों में सर्वाधिक समानता प्रकृति के चित्रण में है। प्रकृति और मनुष्य में एक ही जीवन स्पंदित है। कालिदास की उपमाओं के चमत्कार का मूलाधार यही है। रवीन्द्रनाथ इसी तरह प्रकृति से सजीव बिम्ब ग्रहण करते हैं और उसे मानव जीवन से जोड़ देते हैं।”16 इसी तरह रवीन्द्रनाथ सूर, तुलसी आदि सगुणमार्गीय कवियों के प्रति भी आकर्षित थे। सूरदास पर उनकी एक प्रसिद्ध एवं मार्मिक कविता बांग्ला में है। जिसका नाम ‘सूरदासेर प्रार्थना’ है। यह कविता एक लोककथा के आधार पर रची गयी है। “इसी तरह की मार्मिक कविता तुलसीदास पर है, जिसका शीर्षक है, ‘स्वमीलाभ’। उसके नीचे लिखा है, ‘भक्तमाल’। इससे पता चलता है कि रवीन्द्रनाथ ‘भक्तमाल’ पढ़ रहे थे और वहाँ से कथाएँ लेकर हिन्दी कवियों पर रचनाएँ कर रहे थे।”17 इस तरह रवीन्द्रनाथ ने बंगाल के वैष्णव कवि हिन्दी के निर्गुण और सर्गुण कवि और कालिदास की रचनाओं को आत्मसात कर अपनी रचनाओं को एक नयी दिशा दी जो अखिल भारतीय स्तर पर भारतीय काव्य धारा को प्रभावित करती है।

रवीन्द्रनाथ और हिन्दी

हिन्दी प्रदेश की संस्कृति पर विचार करते समय डॉ. शर्मा ने प्रो. रामेश्वर प्रसाद मिश्र (वर्तमान में अध्यक्ष, भाषा-भवन, विश्व-भारती, शान्तिनिकेतन) के शोध प्रबंध का भरपूर उपयोग किया हैं। डॉ. शर्मा ने इस शोध प्रबंध की बड़ी प्रशंसा की हैं। प्रो. मिश्रजी ने अपने शोध-प्रबंध में ऐसे कई नवीन तथ्यों का उद्घाटन किया हैं जो अब तक की पुस्तकों में उपलब्ध नहीं थी। डॉ. शर्मा लिखते हैं –“शान्तिनिकेतन में रहते हुए रामेश्वर मिश्र ने मध्ययुगीन “हिन्दी संत साहित्य और रवीन्द्रनाथ” विषय पर अपना शोध कार्य पूरा किया। 1989 में उनका यह शोध कार्य काशी से प्रकाशित हुआ। शान्तिनिकेतन में रहते हुए उन्हें ऐसी बहुत सी सामग्री मिली जो शान्तिनिकेतन के बाहर के लोगों को सुलभ न थी। वहाँ के विद्वानों से परामर्श करने का अवसर भी उन्हें मिला। हिन्दी भाषा और साहित्य से रवीन्द्रनाथ के संबंध की बहुमूल्य जानकारी इस पुस्तक में है।”18 1920 में गांधीजी ने रवीन्द्रनाथ को गुजराती साहित्य सम्मेलन में सभापतित्व करने के लिए बुलाया। उस सम्मेलन में गांधीजी ने अपना भाषण अंग्रेज़ी में दिया। इस सन्दर्भ में प्रो. मिश्रजी ने लिखा हैं- “वे उसी दिन महात्मा गांधी से मिलने साबरमती आश्रम गए थे। लगता है, भाषण की भाषा के संबंध में रवीन्द्रनाथ और गांधी जी में चर्चा हुई होगी और गांधीजी ने उन्हें हिन्दी में ही भाषण देने की सलाह दी होगी।”19 फिर रवीन्द्रनाथ ने हिन्दी में अपना भाषण दिया। उनके भाषण का अंश संतोषचन्द्र मजूमदार ने ‘शान्तिनिकेतन’ पत्रिका में प्रकाशित कराया। रामेश्वर जी ने उनकी टिप्पणी अपने शोध-प्रबंध में उद्धृत की है, जो इस प्रकार है- “1920 ईस्वी को काठियावाड़ के भावनगर में गुरुदेव ने यह भाषण दिया संभवतः हिन्दी में यहीं उनका प्रथम भाषण है। उसके बाद भी गुजरात में तीन-चार बार उन्होंने हिन्दी में भाषण दिए। हम लोगों ने बार-बार यह लक्ष्य किया की अच्छी प्रकार से हिन्दी न जानने पर भी वहाँ की साधारण जनता अंग्रेज़ी की अपेक्षा हिन्दी में व्यक्त विषय को सहज रूप से एवं अच्छी प्रकार से समझ पाती थी।”20

रवीन्द्रनाथ का हिन्दी में यह भाषण बहुत ही महतवपूर्ण है। उनके इस भाषण से यह पता चलता है कि वे अंग्रेज़ी और भारतीय भाषाओँ को लेकर क्या सोचते थे। अपने भाषण के आरम्भ में उन्होंने कहा था- “आपकी सेवा में खड़ा होकर विदेशीय भाषा कहूँ, ये हम चाहते नहीं। पर जिस प्रान्त में मेरा घर है, वहाँ सभा में कहने लायक हिन्दी का व्यवहार है नहीं। महात्मा गांधी महाराज की भी आज्ञा है हिन्दी में कहने के लिए। यदि हम समर्थ होता तब इससे बड़ा आनन्द और कुछ होता नहीं। असमर्थ होने पर भी आपकी सेवा में दो-चार बात हिन्दी में बोलूँगा।”21 गुजरात में रवीन्द्रनाथ ने हिन्दी में भाषण दिया। हम जानते हैं कि अभ्यास न होने पर कोई भी भाषा सभ्य समाज में बोली नहीं जा सकती। फिर भी रवीन्द्रनाथ ने काम चलाऊ हिन्दी में अपनी बातें जनता के सामने रखीं। इसका हमें स्वागत करना चाहिए।

इसी तरह प्रो. मिश्र जी ने गुरुदेव के आगरा आने का उल्लेख किया हैं। सन् 1914 में गुरुदेव आगरा गए थे। आगरा कॉलेज में अपने व्याख्यान में उन्होंने कहा था- “मैं हिन्दी टूटी-फूटी ही जनता हूँ, इस कारण अंग्रेज़ी में बोलूँगा।”22 वे हिन्दी पढ़ और समझ लेते थे। एक बार रामधारीसिंह दिनकर तथा हिन्दी के कुछ लेखक गुरुदेव से मिलने शान्तिनिकेतन गए थे। उस समय रवीन्द्रनाथ ने कहा था- “मैं हिन्दी पढ़ लेता हूँ, उसका अर्थ समझ लेता हूँ, किन्तु वह वातावरण जो शब्दों के साथ लिपटा होता है, मेरे पल्ले नहीं आता और इस चीज़ को समझाने का दावा मैं अपनी भाषा के बाहर नहीं करता, यहाँ तक कि अंग्रेज़ी में भी नहीं।”23

रवीन्द्रनाथ का हिन्दी गीत संगीत से लगाव

प्रो. रामेश्वर मिश्र जी ने अपनी पुस्तक में हिन्दुस्तानी संगीत से रवीन्द्रनाथ के संबंध में बहुत सी जानकारियाँ दी हैं। हिन्दी-गीत संगीत से रवीन्द्रनाथ का संबंध जोड़ते हुए प्रो. मिश्र जी लिखते हैं – “रवीन्द्रनाथ का भी हिन्दी गीत-संगीत से विशेष संबंध था। ध्रुपद, ख्याल, टप्पा और ठुमरी आदि शैली के हिन्दी गीतों के आधार पर उन्होंने बहुत से गीत रचे हैं। इन हिन्दी गीतों को बंगाल में हिन्दी मार्ग-संगीत, भारतीय उच्चांग संगीत तथा हिन्दुस्तानी अथवा हिन्दी गान आदि नामों से अभिहित किया जाता है।”24बाल्यावस्था से ही गुरुदेव को हिन्दी गीत-संगीत से परिचय हो गया था। उस समय हिन्दी प्रदेश के अनेक बड़े-बड़े गायक उनके घर ठाकुरबाड़ी आया करते थे। गुरुदेव ने ‘जीवन–स्मृति’ में इसका उल्लेख किया है। वे कहते हैं – “बाल्यावस्था में मेरे घर उस्तादों की कमी नहीं थी। सुदूर अयोध्या, ग्वालियर और मुरादाबाद से उस्ताद आया करते थे। बड़ौदा के विख्यात गायक मौला बख्स तो ठाकुरबाड़ी में बहुत दिनों तक रहें थे।”25उस समय रवीन्द्रनाथ का घर ठाकुरबाड़ी संगीत-प्रेमियों का केन्द्र बन चुका था। बड़े-बड़े विख्यात गायकों का ठाकुरबाड़ी में आना-जाना रहता था। कुछ तो नियमित रूप से वहाँ रहते भी थे।

गुरुदेव हिन्दी गीतों से बहुत ज़्यादा प्रभावित थे। उन्होंने हिन्दी-गीत-संगीत के आधार पर एक दो नहीं सैकड़ों गीत लिखें। “हिन्दी गीतों का उपयोग उन्होंने कई रूपों में किया हैं। कहीं सुर, भाव और भाषा तीनों का अनुसरण किया है तो कहीं सुर के साथ भाव-ग्रहण और कहीं सुर के साथ उसके एक दो शब्दों को भी अपनाया है। अधिकांश गीतों में प्रथम पंक्ति के बाद भाव और भाषा में परिवर्तन हो जाता है। ऐसे भी प्रमाण मिले हैं कि रागों का पूरी तरह अनुसरण करने के लिए रवीन्द्रनाथ पहले हिन्दी गीतों को लिख लिया करते थे और हिन्दी गीतों की दो पंक्तियों के बीच-बीच में रिक्त स्थानों पर अपने गीतों को लिखा करते थे।”26 रवीन्द्रनाथ हिन्दी गीत भी गाया करते थे। उनके हिन्दी गीत के संबंध में इंदिरा देवी चौधरानी ने लिखा हैं – “रवि काका दो एक हिन्दी गीत भी शौक से गाया करते थे, जैसे-कैसे काटूँगी रैन सो पिया बिना, तथा जिन छुइयाँ मोरी बईयाँ नगरवा।”27 रवीन्द्रनाथ ने स्वयं स्वीकार किया हैं कि हिन्दी गीतों ने उन्हें बहुत गहराई से प्रभावित किया है।

अंततः भारतीय संस्कृति का इतिहास लोकविरोधी रूढ़ियों और प्रगतिशील विचारों के संघर्ष का इतिहास रहा है। विभिन्न प्रवेशों की संस्कृतियों के मिलने से भारतीय संस्कृति का निर्माण होता है। इस संस्कृति के केन्द्र में है- हिन्दी प्रदेश। रवीन्द्रनाथ ठाकुर हिन्दी प्रदेश की संस्कृति के सबसे नज़दीक हैं। उसे उन्होंने गहराई से अध्धयन किया था।

अंततः भारतीय संस्कृति का इतिहास लोकविरोधी रूढ़ियों और प्रगतिशील विचारों के संघर्ष का इतिहास है। विभिन्न प्रदेशों की संस्कृतियों के मिलने से भारतीय संस्कृति का निर्माण होता है। इस संस्कृति के केंद्र में है- ‘हिन्दी प्रदेश’। बंगाल में जिसे हिन्दुस्तानी संगीत कहा जाता है। वह वास्तव में हिन्दी प्रदेश का जातीय संगीत है। हिन्दी प्रदेश से होते हुए वह बंगाल तक पहुँचा है। रवीन्द्रनाथ ठाकुर हिन्दी प्रदेश की संस्कृति से अच्छी तरह अवगत हैं। उसे उन्होंने अच्छी तरह अध्ययन किया था। भारतीय संगीत के विकास में उनका महत्वपूर्ण योगदान है। संगीत के क्षेत्र में उन्होंने क्रन्तिकारी परिवर्तन किया। सदियों से चली आ रही शास्त्रीय संगीत में प्रचलित रूढ़िवादी परंपरा को उन्होंने तोड़ा। लोक संगीत की धुनों को मिलाकर उसे नया रूप दिया शास्त्रीय संगीत की अविरल धारा जो अब तक सामंती परिवेश में प्रवाहित हो रही थी उसे बाहर निकलकर साधारण जनता के ग्रहण योग्य बनाया। संगीत के आलावा उनके मन में हिन्दी भाषा और हिन्दी कवियों के प्रति अपार श्रद्धा है। उनकी दृष्टि में संतकवि समाज के निम्नवर्ग से आकर मानव हृदय में प्रेम- भाव जाया। उनका साहित्य न केवल उस समय की प्रचलित रूढ़िवादी मानसिकता के खिलाफ थी अपितु वर्तामंकलिन सामाजिक असंगतियो के विरोध में भी है। गुरुदेव के चिंतन बंगला भाषा का विकास मुख्य विषय रहा है बंगला भाषा के साथ उन्होंने अन्य भारतीय भाषाओँ का भी समर्थन किया। यही कारण है कि गांधीजी के कहने पर उन्होंने अपना पहला भाषण हिन्दी में दिया। इस तरह हम देखते हैं कि रवीन्द्रनाथ का सांस्कृतिक विमर्श में हिन्दी प्रदेश की संस्कृति सहयोगी रही है। हिन्दी प्रदेश की संस्कृति को अलग करके रवीन्द्र साहित्य का सांस्कृतिक अध्ययन पूर्ण रूप से संभव नहीं है। सांस्कृतिक दृष्टि से रवीन्द्रनाथ का साहित्य भारतवासियों के लिए अक्षय प्रेरणा स्रोत हैं।

संपर्क- बिजय कुमार रबिदास 
16 वेस्ट कापते पाड़ा रोड शोधार्थी 
पोस्ट –आतपुर हिन्दी-भवन
जिला –उत्तर 24 परगना विश्व-भारती (शांतिनिकेतन) 
पश्चिम बंगाल-743128
मोबाइल -8100157970
ई –मेल –bijaypresi@rediffmail.com

सन्दर्भ-सूची

1.शर्मा रामविलास,भारतीय संस्कृति और हिन्दी प्रदेश -1, किताबघर प्रकाशन, नयी दिल्ली, पांचवा संस्करण, 2010, पृष्ठ संख्या-10
2. शर्मा रामविलास,भारतीय संस्कृति और हिन्दी प्रदेश -2, किताबघर प्रकाशन, नयी दिल्ली,संस्करण, 2012, पृष्ठ संख्या- 473
3. उपर्युक्त-473
4.उपर्युक्त-473
5.उपर्युक्त-475
6.उपर्युक्त-473
7.उपर्युक्त-476
8.उपर्युक्त –474
9.उपर्युक्त-475
10.उपर्युक्त-476
11.शर्मा,रामविलास, भाषा,युगबोध,और कविता,वाणी प्रकाशन,नयी दिल्ली, तृतीय संस्करण,2010,पृष्ठ संख्या-60
12.उपर्युक्त-60,
13.उपर्युक्त –60,61
14.उपर्युक्त-61
15.उपर्युक्त –61
16. शर्मा,रामविलास,भारतीय संस्कृति और हिन्दी प्रदेश,-2,किताबघर प्रकाशन,नयी दिल्ली, संस्करण,2012,पृष्ठ संख्या-477,478
17.उपर्युक्त-477
18.उपर्युक्त-478
19.उपर्युक्त-478
20.उपर्युक्त-478
21.उपर्युक्त-478
22.उपर्युक्त-478
23.उपर्युक्त-479
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