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रामदरश मिश्र के काव्य में नारी

संपादक : सुमन कुमार घई
तिथी : २२ सितम्बर, २०१४

हिन्दी साहित्य के आधुनिक काव्य जगत् में रामदरश मिश्र की सर्जना उल्लेखनीय एवं सराहनीय है। उनके काव्य का युग-चित्रण बहुधा स्वातंत्र्योत्तर है। इसमें जिस परिवेश का परिचय मिलता है वह निश्चय ही स्वातंत्र्योत्तर भारतीय समाज-जीवन का परिवेश है। वर्तमान भारतीय समाज में नारी के सजीव, सशक्त एवं यथार्थ चित्र प्रतिबिंबित होते हैं। नारी जीवन से जुड़े पारिवारिक, सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक व आर्थिक यथार्थ का चित्रण साहित्यकारों ने अपनी लेखनी से चित्रित किया है। समकालीन साहित्य में नारी को समाज व परिवार की रीढ़ मानते हुए उसकी अस्मिता की महत्ता को बखूबी रेखांकित किया जाने लगा है।

रामदरश मिश्र नारी को आदरणीय मानते हैं। उन्होंने समाज एवं परिवार में स्त्री के महत्व को देखते हुए पुरुषों की भांति स्त्री के शाश्वत, पारिवारिक एवं सामाजिक सभी रूपों का मौलिक एवं नवीन चित्रण किया है। मिश्रजी के काव्य में नारी ‘माँ’, ‘पत्नी’, और ‘बेटी’ तीनों रूपों में चित्रित है। ‘माँ’ के रूप में मिश्रजी की नारी मातृत्व, ममता, दया, करुणा, त्याग और प्रेरणा की तरंगिणी है, ‘पत्नी’ के रूप में सहयोगिनी, सुख-दुःख की साथी, प्रेयसी और सौन्दर्य का प्रतीक है और ‘बेटी’ के रूप में खिलता हुआ फूल है जिसकी महक दिनोंदिन चारों तरफ फैलती है।

यथार्थ में नारी समाज की मुख्यधारा से अलग, उपेक्षित, उत्पीड़ित, असहाय रही है। किन्तु समय के साथ उसका एक आदर्शमयी रूप समाज में उभरा है। मिश्रजी इस आदर्श नारी को प्रेरणा का स्रोत और जीवनधारा का आधार मानते हैं। इसलिए कवि मन नारी को ‘असीम गगन’ कहता हुआ उसे समाज-जीवन को आलोकित करने वाली चपला के रूप में देखता है-

”तुम निराशा की अमा में प्रातः की पहली किरण हो
तुम सुनहली स्वप्न सी भी शक्ति की नवजागरण हो
मेघ जब घिर घिर बरसते पंथ पर मेरे अँधेरा
रूप में जलती हुई तुम ज्योति चपला की चरण हो”1

नारी का यह प्रेरणादायी एवं आदर्श स्वरूप स्वस्थ सामाजिक परम्पराओं व मर्यादाओं का निर्माण करता है। नारी द्वारा संतान पैदा करना, उनका पालन-पोषण करना, चरित्र निर्माण करना, उनका भविष्य बुनना आदि दायित्वों का निर्वहन होता है। वह स्वयं अंधेरे में रहकर दूसरों के लिए रोषनी की मूर्ति गढ़ती है-

”एक औरत थी
जो चूल्हे-चक्की
बरतन-भाड़े की लय पर
जीवन के मन्त्र पढ़ती रही है
जो ख़ुद को अँधेरे में रखकर
ज़िन्दगी भर
रोशनी की मूर्ति गढ़ती रही है।”2

नारी अपनी इच्छाओं, आशाओं और सपनों को समेटकर परिवार का निर्माण करती है- “सर्दी हो या बरसात/सोते हुए/या उनींदी बीती हो रात/तुम चार बजे उठ जाती हो”3 इसी नारी के बल से पुरुष यश प्राप्त करता है, सामाजिक प्रतिष्ठा प्राप्त करता है और समाज का मुखिया बनता है।

ईश्वर का प्रतिरूप ‘माँ’ वह शक्ति है, जो सदैव जीवन को गति प्रदान करती है। ‘माँ’ के रूप में नारी विधात्री है। वह संसार के सारे सुखों को तिलांजली देकर, समाज के क्रूर अत्याचार सहकर, अपनी संतान की रक्षा करती है। कठिन से कठिन परिस्थिति और बड़े से बड़े विरोध में भी उसका वात्सल्य घटता नहीं है। मिश्रजी ‘माँ’ के इसी स्नेहमयी रूप एवं उसकी सूक्ष्म अन्तर्दशाओं का चित्रण करते है-

”दाग़ कितने ही लगा बाहर से घर आते हैं लोग
आँच में ख़ुद को गला कर के उन्हें धोती है माँ
जलती रहती है अँगीठी-सी रसोई घर के बीच
देके पूरी ज़िदंगी कुछ भी कहाँ खोती है माँ”4

मिश्रजी के काव्य में नारी ‘माँ’ के रूप में सर्वोच्च स्थान पाती है। ‘नारी की प्रेरणा’, ‘माँ’, ‘मैं दादा बन गया’, ‘माँ के वास्ते’, ‘माँ बाजार में’, ‘माँ उग रही है मेरे भीतर’ आदि कविताओं में कवि का मन माँ की ममता से सराबोर दिखाई देता है। मिश्रजी ‘माँ’ को ऊर्जा-शक्ति पुंज, विश्व कल्याण की धारणा से युक्त पथ प्रदर्शिका सदृश देखते हैं। इसी कारण उनका अंतर्मन घोषणा कर देता है-

”जहाँ कहीं भी हैं
मेरी माँ हैं।
माँ, जब तक तुम हो
मैं मरूँगा नहीं।”5

नारी और पुरुष जीवन में दो मार्ग है, जो स्नेह के बंधन में बँधकर एकाकार होते हैं। कवि उनको समानांतर मानता है। समाज में पत्नी सर्वाधिक पारिवारिक जिम्मेदारियाँ उठाती है। वह आत्मसंघर्ष करती हुई संसाधनों के अभाव में भी परिवार का संचालन करती है। अपने पति व बच्चों के यश अर्जन में स्वयं अनाम हो जाती है। रामदरश मिश्र पत्नी रूप में ऐसी स्त्री की कल्पना करते हैं जो पति की मित्र व प्रेयसी दोनों हो और परिवार के सुख-दुःख में सहभागिनी हो। ‘सरस्वती पचहत्तर ही हुई’ कविता में पत्नी के साथ को कवि इस तरह व्यक्त करता है-

”मेरे साथ तुम्हारा होना
गहन तम पी-पीकर
अपने प्रसन्न साहचर्य का उजास देता रहा
सहारा बनता रहा मेरे कमज़ोर पड़ते इरादों का 
तुम्हारी खिलखिलाती हँसी
ग़मों के अंधकार में
दीप-मालिका-सी जगमगाती रही
तुम अपने गहरे से गहरे दर्द छिपाकर
मेरे गीत गुनगुनाती रहीं”6

भारतीय समाज में एक तरफ स्त्री को सरस्वती, लक्ष्मी, देवी और दूसरी तरफ लड़की को बोझ माना जाता है। मिश्रजी ने नारी जीवन के इस यथार्थ को गहराई से समझा है। उन्होंने लड़की के जीवन संघर्ष एवं वेदना और उसके अस्तित्व का यथार्थ चित्रण किया है। आधुनिक सभ्य एवं शिक्षित समाज में कन्याभ्रूण-हत्या, बलात्कार, दहेज प्रताड़ना आदि ज्वलन्त त्रासदियाँ हावी है। लड़की को जन्म से मृत्यु पर्यन्त तक समाज के कुचक्रों से संघर्ष करना पड़ता है-

”उसके आगे
पैसों की प्यास से जलती
भेड़ियों की आँखें गुर्राती रहेंगी
जीभें लपलपाती रहेंगी
सोते-सोते
उसे आग दिखाई पड़ेगी
या छत पर लटकती हुई रस्सी
और वह चीख भी नहीं पायेगी।”7

नारी केवल घर के बाहर ही शोषित नहीं होती है, अपितु घर की चहारदीवारी रूपी कैद में उस पर अत्याचार-उत्पीड़न अधिक होता है। रामदरश मिश्र इस शोषण चक्र से मुक्ति का नवीन मार्ग तलाशते हैं। उनके मतानुसार नारी को अत्याचारों से मुक्त करने के लिए बाह्य शक्तियों एवं अधिकारों के बजाय उनमें आन्तरिक शक्ति व जागृति पैदा करना आवश्यक है। इसीलिए कवि माँ-बाप से आग्रह करता है कि वे लड़कियों को मर्यादा संस्कारों के साथ-साथ अन्याय और अत्याचारों को सहने की बजाय उनसे लड़ने के संस्कार प्रदान करे-

”काश, ये माँ-बाप
लड़की को भी थोड़ा सा सही प्यार दे पाते
उसे ढाल बनने के साथ
हथियार बनने का भी संस्कार दे पाते”8

रामदरश मिश्र नारी को सीमित परिधियों से निकालकर एक विस्तृत धरातल पर प्रतिष्ठित करते हैं। वे नारी को शोषण तंत्र के खिलाफ एकजुट होकर विद्रोह कर स्वयं अपनी मुक्ति का मार्ग चुनने की दिषा देते हैं। “मिश्रजी नारी-विर्मश के तहत नारी के चरित्र को विद्रोही बनाने के पक्षधर हैं। अनेक कविताओं में वे नारी को उनकी गुलामी का एहसास कराते हुए नारी-मुक्ति की आकांक्षा से जुड़े अनेक मुद्दे उठाते हैं।”9 किन्तु इस मार्ग में कहीं न कहीं स्वयं नारी को बाधक देखकर व्यथित होते हैं-

”एक ओर से छीनती हो
दूसरी ओर सरका देती हो दहेज की पेटी
एक ओर ना हो, एक ओर हाँ
एक ओर सास हो, एक ओर माँ”10

नारी के दोहरे रूप को कवि स्त्री जीवन की समस्याओं का मूल मानता है। वह अपनी जाति के दमन के लिए बार-बार पुरुष वर्ग के साथ संधि करती है। इस दोहरे रूप को कवि स्त्री जाति पर अभिशाप मानते हुए, नारी को अपनी जाति के संरक्षण की सद्प्रेरणा देता है।

रामदरश मिश्र नारी को अधिकार प्रदान कर शक्तिशाली बनाने के पक्ष में है। मूलतः मिश्रजी नारी के स्वतंत्रचेता एवं उदारचेता व्यक्तित्व के पक्षधर हैं और उसे समाज की रीढ़ मानते हैं। समाज में नारी अपने संघर्षमयी जीवन से सुव्यवस्थित सामाजिक संरचना बुनती है। इसीलिए मिश्रजी नारी को आन्तरिक शक्ति संचय करने की प्ररेणा देते हैं। मिश्रजी की दृष्टि में पुरुष और स्त्री एक-दूसरे में जीवन-ऊष्मा बनकर समाहित है। इनका आपसी सामंजस्य ही एक स्वस्थ एवं सुखी समाज-जीवन का आधार है। रामदरश मिश्र का काव्य इसका समर्थन करता हुआ इक्कीसवीं सदी में अत्यन्त प्रासंगिक है।

सन्दर्भ सूची

1. रामदरश मिश्र रचनावली, खण्ड-एक, पथ के गीत, पृ. 25, नमन प्रकाशन, नई दिल्ली, प्र.स. 2000
2. वही, खण्ड-दो, जुलूस कहाँ जा रहा है, पृ. 12
3. वही, पृ. 10
4. तू ही बता ऐ जिन्दगी, रामदरश मिश्र, पृ. 59, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, प्र. स. 2005
5. रामदरश मिश्र रचनावली, खण्ड-एक, दिन एक नदी बन गया, पृ. 461, नमन प्रकाशन, नई दिल्ली, प्र.स. 2000
6. कभी-कभी इन दिनों, रामदरश मिश्र, पृ. 70, इंद्रप्रस्थ इंटरनेशनल प्रकाशक, दिल्ली, प्र. स. 2010
7. रामदरश मिश्र रचनावली, खण्ड-दो, जुलूस कहाँ जा रहा है, पृ. 47, नमन प्रकाशन, नई दिल्ली, प्र.स. 2000
8. वही, पृ. 47
9. रामदरश मिश्र की काव्य-यात्रा, सं. डॉ. स्मिता मिश्र, साधारणजन के असाधारण कविः रामदरश मिश्र, जगन्नाथ पंडित, पृ. 152, नमन प्रकाशन, नई दिल्ली, प्र. सं. 2011
10. रामदरश मिश्र रचनावली, खण्ड-दो, जुलूस कहाँ जा रहा है, पृ. 40, नमन प्रकाशन, नई दिल्ली, प्र.स. 2000

दयाराम
शोधार्थी, हिन्दी विभाग,
डॉ. भीमराव अम्बेडकर
राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय,
श्रीगंगानगर (राजस्थान)
335001

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