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रंगमंचीय दृष्टिकोण और राधेश्याम कथावाचक के नाटक

पुस्तक: पंडित राधेश्याम कथावाचक: रंगायन 
संपादक: हरिशंकर शर्मा
प्रकाशक: बोधि प्रकाशन,जयपुर 
मूल्य: ₹ 299 
पृष्ठ: 304

पंडित राधेश्याम कथावाचक अपनी रामायण के साथ-साथ अपने नाटकों के माध्यम से भी देश भर में प्रसिद्ध रहे हैं। अपने धार्मिक और सामाजिक नाटकों के मंचन के द्वारा उन्होंने पारसी रंगमंच का एक विशिष्ट मानक स्थापित किया। पौराणिक कथावस्तु पर आधारित उनके नाटकों में रंगमंच के तत्त्वों का भी पूर्ण ध्यान रखा गया है। उनके लगभग सभी नाटक अपने प्रस्तुति विधान और मंचन सापेक्षता को दृष्टिगत रखते हुए सफलतम कहे जा सकते हैं। नाटक लिखा तो शब्दों में जाता है परंतु जब रंगमंच पर उसकी प्रस्तुति होती है, तब वह दर्शनीय बन जाता है। किसी भी नाटक की सफलता या असफलता मात्र उसकी पठनीयता पर नहीं, अपितु उसके रंगमंचीय प्रस्तुतिकरण पर भी निर्भर करती है। नाटक के निर्देशक, रंगशिल्प, अभिनय और उसके नाटककार— इन चारों की महत्त्वपूर्ण भूमिकाएँ किसी नाटक को रंगमंच पर सफलतापूर्वक प्रस्तुत करने में सहायक सिद्ध होती हैं। वास्तव में ये चारों तत्त्व एक-दूसरे के पूरक हैं। पंडित राधेश्याम कथावाचक के नाटक उपरोक्त तथ्यों को प्रमाणित करते हैं। पंडित राधेश्याम कथावाचक के नाटक, साहित्य की दृष्टि से और रंगमंच की दृष्टि से भी, नाट्यशास्त्र की कसौटियों पर पूर्णतया खरे उतरते हैं।

पंडित राधेश्याम कथावाचक के नाटकों में न केवल पौराणिक और धार्मिक कथासूत्र मिलते हैं; अपितु स्वदेश प्रेम, समाज-सुधार, मानवता, नारी उद्धार जैसे तत्त्वों का संयोजन भी उनके नाटकों के पात्रों में मिलता है। तत्कालीन पारसी रंगमंच के उत्कर्ष काल सन् 1918 से 1938 तक में नारायण प्रसाद ‘बेताब’, आगा हश्र ‘कश्मीरी’ और पंडित राधेश्याम कथावाचक ने क्रमशः पौराणिक, रोमानी और पुनरुत्थानवादी धाराओं का प्रतिनिधित्व किया। इसके अतिरिक्त हरिकृष्ण ‘जौहर’ और किशन चंद जेबा भी अपने सामाजिक और राजनीतिक नाटकों को लेकर आए। इसी कालखंड में भारतेन्दु हरिश्चंद्र भी अपने नाट्य सृजन की सुगंधि लेकर प्रतिष्ठित थे। भारतेन्दु और उनका परिमंडल नाटक का साहित्यिक परिष्कृत रूप लेकर चले थे जबकि पारसी रंगमंच व्यवसायिक दृष्टि से सक्रिय रहा। ज्ञातव्य है कि भारतेन्दु मंडल के नाटकों पर तो समालोचना भरपूर मात्रा में मिलती है जबकि नारायण प्रसाद ‘बेताब’, आगा हश्र ‘कश्मीरी’ और राधेश्याम कथावाचक के नाटकों पर बहुत अधिक मात्रा में समीक्षात्मक सामग्री नहीं प्राप्त होती। समय के साथ ये सामग्रियाँ विलुप्तप्राय भी होती गई हैं। जयपुर के हरिशंकर शर्मा अपनी नवीनतम पुस्तक ‘पंडित राधेश्याम कथावाचक: रंगायन’ में रंगायन और रूपायन के माध्यम से पंडित जी की कथावाचकीय नाट्य परंपरा को पाठकों के सम्मुख लाते हैं। पूरी पुस्तक दो खंडों में विभक्त है— पहला खंड है ‘रंगायन’ और दूसरा खंड है ‘रूपायन’। रंगायन और रूपायन के कुल पंद्रह-पंद्रह आलेख समग्र रूप में पंडित जी के नाटक संबंधी अवदान को स्पष्ट करते हैं। ये सभी आलेख विभिन्न विद्वानों द्वारा समय-समय पर लिखे गए हैं।

पंडित राधेश्याम कथावाचक अपने नाटकों के विषय में समय-समय पर अपनी भूमिकाओं में बहुत तथ्यपरक बातें कहते थे। उनके द्वारा लिखित आत्मकथा ‘मेरा नाटक काल’ अत्यंत प्रसिद्ध रही है। स्वयं पंडित राधेश्याम कथावाचक के तीन आलेख यहाँ पठनीय हैं। प्रेमचंद द्वारा स्थापित व संपादित ’हंस’ पत्रिका के जनवरी-फरवरी 1932 के ‘आत्मकथा विशेषांक’ में पंडित जी का आत्मकथ्य प्रकाशित हुआ था। अपने आत्मकथ्य ‘मेरा नाटकीय जीवन और उसके कुछ अनुभव’ में पंडित जी अपने नाटक जीवन के बारे में बहुत विस्तार से बताते हैं। तत्कालीन नाटकों के मंचन की व्यवस्था, उनके कलाकारों, नाटकों की भाषा-शैली के साथ-साथ प्रसिद्ध नाट्य अभिनेताओं का वर्णन भी पंडित जी ने यहाँ विस्तार से किया है। पंडित राधेश्याम कथावाचक अपनी मातृभाषा और मातृभूमि के प्रति सदैव अपने निष्काम प्रेम का प्रदर्शन करते रहे। उनका एक प्रसिद्ध नाटक था ‘भारतमाता’ जिसकी भूमिका में वे लिखते हैं, “अपनी स्वल्प क्षमता और योग्यता के अनुसार मातृभाषा की सेवा करके हम भी अपने को कृतकृत्य करने का अवसर प्राप्त करें। अतः भला या बुरा जैसा कुछ है, मातृभाषा की सेवा का यह एक तुच्छ निदर्शन है।” ‘कीर्तन राधेश्याम का’ आलेख में भी पंडित जी की नाट्ययात्रा का उन्हीं की क़लम से वर्णन किया गया है। मुंशी प्रेमचंद पंडित राधेश्याम कथावाचक के नाटकों के बहुत प्रशंसक थे। उन्होंने पंडित जी के ‘श्रीकृष्णावतार’ और ‘रुक्मणीमंगल’ नाटक देखे थे, जिनसे वे बहुत अधिक प्रभावित हुए थे। अपनी पत्रिका माधुरी में प्रेमचंद ‘नाटकप्रेमी’ के नाम से लिखते थे। ज्ञातव्य है कि मुंशी प्रेमचंद ने अपने प्रसिद्ध उपन्यास ‘गबन’ में पंडित राधेश्याम जी का उल्लेख करते हुए लिखा है, “एक दिन मनोरमा थिएटर में राधेश्याम का कोई नया ड्रामा होने वाला था। इस ड्रामे की बड़ी धूम थी। एक दिन पहले से ही लोग अपनी जगह रक्षित करा रहे थे।” प्रेमचंद न्यू अल्फ्रेड कंपनी के नाटकों के अत्यधिक प्रशंसक थे। स्वयं प्रेमचंद के शब्दों में, “हाँ तो न्यू अल्फ्रेड कंपनी के हमने कितने ही नाटक स्वयं देखे हैं। हमारी राय है कि इस समय हिंदी नाटकों की दृष्टि ही से नहीं, स्टेज की दृष्टि से भी यह कंपनी आदर्श है। श्रीयुत् राधेश्याम जी, जिनके नाटक इस कंपनी में खेले जाते हैं और मिस्टर सोराबजी ओबरा के रिटायर हो जाने के बाद, जो स्वयं इसमें अपने नाटक स्टेज कर रहे हैं; निःसंदेह सफलता प्राप्त कर रहे हैं। वीर अभिमन्यु का जिक्र तो ऊपर आ ही चुका है। इसके अतिरिक्त राधेश्याम जी के प्रह्लाद, परिवर्तन, मशरिकी हूर आदि सब वर्क एक से एक उत्तम हैं। इन नाटकों में आदर्श है, शिक्षा है,पवित्रता है और है वह जिसका विशेष परिचय हम फिर कभी देंगे।”

मुंशी प्रेमचंद ने ‘कृष्णावतार’ और ‘रुक्मणीमंगल’ नाटकों की विस्तृत समीक्षा ‘माधुरी’ पत्रिका में सचित्र प्रकाशित की थी। उन्हीं के शब्दों में, "पंडित राधेश्याम स्वयं भी एक बड़े अच्छे नट हैं, कारण कि उन्होंने अपनी सारी उम्र कथाओं के कहने में बिताई है। अतः यदि वह स्टेज पर स्वयं पार्ट करने लगें, तब तो संयुक्त प्रांत को भी इस बात पर गर्व हो जाए कि हमारे यहाँ भी एक गिरीश, शिशिर बाबू या दानी बाबू जैसा नट है। पंडित राधेश्याम जी गाने में और तर्ज बनाने में तो कुशल ही हैं, उर्दू का मशरिकी हूर लिखकर आपने उर्दू नाटक जगत में भी एक क्रांति पैदा की है। पंडित राधेश्याम जी का विचार क्रमशः संपूर्ण श्रीकृष्ण चरित्र को स्टेज पर कर देने का है। भगवान श्रीकृष्ण उन्हें सफल प्रयास करें। यह भी सुना है कि तीन-चार वर्ष से वे ‘सती पार्वती’ नाम का भी एक नाटक इसी कंपनी के लिए लिख रहे हैं, जो आधे से ज्यादा लिखा जा चुका है और जिसकी बाबत यह सुनने में आया है कि ऐसा नाटक आज तक न कहीं लिखा गया और न स्टेज ही हुआ।”

पंडित गोपीवल्लभ उपाध्याय ने ‘राधेश्याम नाटकावली’ के नाम से कथावाचक जी के नाटकों की समीक्षा ‘त्यागभूमि’ पत्रिका में प्रकाशित की थी। उपाध्याय जी पंडित जी के नाटकों में सामाजिक और आध्यात्मिक–दोनों प्रकार की चेतना को रेखांकित करते हैं। पुस्तक में विशंभरनाथ शर्मा ‘कौशिक’ द्वारा लिखित पंडित जी के तीसरे नाटक परिवर्तन की समीक्षा भी दी गई है। माधव शुक्ला ने पंडित राधेश्याम कथावाचक के प्रसिद्ध उर्दू नाटक ‘मशरिकी हूर’ की समीक्षा करते हुए लिखा है,“नाटक के दृश्य ऐसी मौजूनियत के साथ सेट किए गए हैं कि नाटक जो दृश्यकाव्य कहलाता है, सचमुच दर्शनीय बन गया है। धारा-प्रवाह की नांई एक के बाद एक दृश्य स्वाभाविक शोभा के साथ उतरता चला जाता है। इसके लेखक पंडित राधेश्याम जी कथावाचक नाटक प्रेमियों के और विशेषत: उर्दू नाटक प्रेमियों के धन्यवाद के पात्र हैं। द्वारिकाप्रसाद बी.ए. ने ‘श्रवण कुमार’ नाटक में जीवन मूल्यों की तलाश करते हुए लिखा है, “संपूर्ण नाटक पर विचार की दृष्टि डालते हुए हम इस परिणाम पर पहुँचे बिना नहीं रह सकते कि जिन सामान्य और विशेष उद्देश्यों का लक्ष्य करके यह नाटक लिखा गया है, वे उच्च कोटि के हैं और लेखक को उनकी पूर्ति में बहुत बड़ी सफलता प्राप्त हुई है। विशेष उद्देश्य की पूर्ति नायक और नायिका के चरित्र-चित्रण में हो जाती है और सामान्य उद्देश्य की पूर्ति अन्य पक्षों के कैरेक्टर्स में मिलती है।” प्रख्यात नाट्य समीक्षक लक्ष्मीनारायण लाल पारसी थियेटर की तत्कालीन समय में विशिष्टता को रेखांकित करते हुए लिखते हैं, “ऐसा लगता है कि जैसे उस समय देश की राजनीति, धर्म, सामाजिक चेतना को वहन करने वाली संस्थाओं धाराओं में पारसी थियेटर और उसका नाटककार कितना अधिक महत्वपूर्ण था। वह उस काल की भावात्मक-रागात्मक चेतना का प्रतीक ही नहीं, बल्कि वही उसका माध्यम भी था। एक कथावाचक, उपदेशक, गायक ब्राह्मण राधेश्याम को इस काल विशेष ने इतना महत्त्वपूर्ण नाटककार बनाया और उसे इतना सामाजिक महत्व दिया; आज यह बात आश्चर्यजनक-सी लगती है।” पुस्तक में स्मृतिशेष साहित्यकारों के साथ-साथ वर्तमान साहित्यकारों के भी महत्वपूर्ण आलेख राधेश्याम के नाट्य चिंतन पर सम्मिलित किए गए हैं। इनमें से कुछ वरिष्ठतम सौभाग्यशाली साहित्यकार ऐसे भी हैं जिन्होंने पंडित राधेश्याम की रामायण और नाटकों का मंचन होते स्वयं अपनी आँखों से देखा है। समय-समय पर उसमें दर्शक और अभिनेता की भूमिकाएँ भी उन्होंने निभाई हैं।

वरिष्ठ विचारक रणवीर सिंह राधेश्याम कथावाचक के नाटकों को सामाजिक मुद्दों पर चिंता और ब्रिटिश सरकार के ख़िलाफ़ आवाज़ के रूप में देखते हैं। पंडित जी के तत्कालीन सामाजिक राजनैतिक चेतना को दर्शाते हुए वे लिखते हैं, “समाज को बदलने के लिए एकता का होना बहुत ज़रूरी है। राधेश्याम हर भारत निवासी को याद दिलाते हैं कि तुम एक अच्छे जानदार, सुगंधि से परिपूर्ण, लहकते और महकते हुए पुरुष हो। परंतु तुम एक तागे में पिरोए हुए नहीं हो। शैव और वैष्णव के बीच की विवाद की बात करते हुए वे संगठन पर ज़ोर देते हैं। वे बाणासुर को ब्रिटिश सरकार बताते हैं। उसका वध करने के लिए संगठन की अहमियत पर ज़ोर देते हैं। कृष्णदास की ज़ुबां से अपनी बात ब्रिटिश सरकार के ख़िलाफ़ आवाम तक पहुँचाते हैं ताकि संगठन के जरिए एक होकर उनका मुक़ाबला कर सकें। मधुरेश बरेली के ही हैं जहाँ के पंडित राधेश्याम कथावाचक रहे। मधुरेश पंडित राधेश्याम के नाटकों के सजग दर्शक और पाठक भी रहे हैं। अपने आलेख ‘प्रेमचंद और राधेश्याम कथावाचक की जुगलबंदी’ में वरिष्ठ समालोचक मधुरेश प्रेमचंद और राधेश्याम की रचनात्मक सक्रियता की लंबी पड़ताल करते हैं। प्रस्तुत आलेख में पंडित राधेश्याम के व्यक्तित्व की विशेषताओं को भी सामने लाया गया है। मधुरेश पंडित राधेश्याम के अंतिम समय का वर्णन करते हुए लिखते हैं, “सांसारिकता से काफ़ी कुछ मुक्त होकर वह उसी धर्म और अध्यात्म की शरण में चले गए, जिसने उन्हें हमेशा सहारा दिया था। तेज़ी से बदलते समय के साथ अपने को बदल पाना उनके लिए कठिन था। ऐसी कोई कोशिश भी उन्होंने नहीं की। महाजनी सभ्यता और उपभोक्तावाद के प्रतिरोध का कोई सक्रिय उद्यम उन्होंने नहीं किया। लेकिन स्वयं वे कभी उसका हिस्सा भी नहीं बने। उसके प्रति उदासीन रहकर ही अपने ढंग से वे उसका विरोध कर सकते थे और वही उन्होंने किया।” इन कुछ पंक्तियों में ही मधुरेश अपनी पैनी दृष्टि से पंडित राधेश्याम के पूरे जीवनकाल का आकलन कर लेते हैं। डॉ. हेतु भारद्वाज अपने बचपन के संस्मरण में पंडित राधेश्याम की रामायण और नाटकों के पठन-पाठन और मंचन को याद करते हैं। वे राधेश्याम जी को जनचेतना से संपन्न नाटककार मानते हैं। उनका विचार है, “पंडित राधेश्याम कथावाचक को हमने शिष्ट साहित्य से अलग-थलग रखा तथा उनका सम्यक् मूल्यांकन नहीं किया। वे सही रूप में जनकवि, लोक कलाकार तथा अपनी कला से जनता का मन बदलने वाले थे। उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन में दलित जनता को जागरूक बनाने का कार्य किया। वस्तुतः विभिन्न प्रदेशों में लोक साहित्य के क्षेत्र में जो अद्वितीय प्रतिभाएँ जन्मीं, जैसे उनमें पंडित राधेश्याम कथावाचक उच्चतम स्थान पर आते हैं। साहित्य में वे एक समृद्ध परंपरा का प्रतिनिधित्व करते हैं।” जीवन सिंह अपने आलेख में राधेश्याम की लोकजीवन संपन्न शैली और जनरंजन को रेखांकित करते हुए लिखते हैं, “राधेश्याम कथावाचक एक ऐसे युग सम्बद्ध नाटककार थे, जिन्होंने मंचीय कला को धार्मिक होते हुए भी एक तरफ अपने युग की राष्ट्रीय ज़रूरतों से सम्बद्ध करते हुए युगीन संदर्भ प्रदान किया, वहीं दूसरी तरफ़ उससे जनरंजन का काम भी बख़ूबी किया। इस मामले में वे अपनी बातें लोकजीवन से भी लेते थे और उसे अपनी वाणी और कला के साथ इस तरह लौटाते थे कि उनका दर्शक उनका मुरीद हो जाता था। भारतेंदु जी के समय से जो हिंदी रंगमंच बना था, उसको एक नये रूप में पारसी थिएटर के सहयोग से न केवल राधेश्याम जी ने विकसित किया वरन पारसी थियेटर को भी अपनी कला के अनुरूप एक मनोरंजनधर्मी कला से आगे बढ़कर सामाजिक कला के मंच के रूप में परिवर्तित कर दिया। यह उनकी सबसे बड़ी देन है।”

प्रस्तुत पुस्तक में अमेरिका में एशियन स्टडीज की प्रोफेसर डॉ. पामेला लोथस्पिच की प्रसिद्ध पुस्तक ‘द एपिक नेशन: रिमेजनिंग द महाभारत इन द एज ऑफ द एंपायर’ के एक अध्याय ‘वीर अभिमन्यु’ का अँग्रेजी से हिंदी अनुवाद डॉ. नितिन सेठी द्वारा किया गया है। डॉ. पामेला ने प्रज़ीत आलेख में ‘वीर अभिमन्यु’ नाटक के सभी महत्त्वपूर्ण पक्षों पर प्रकाश डाला है। प्रोफेसर भोलानाथ शर्मा ने पंडित राधेश्याम कथावाचक के रचनाकर्म की सार्थकता का समाकलन वर्तमान परिप्रेक्ष्य में किया है। क्षेमचंद्र सुमन, डॉ. रामस्वरूप आर्य, राघवाचार्य के आलेख भी महत्वपूर्ण हैं। डॉ. अशोक उपाध्याय राधेश्याम कथावाचक के नाटकों में मनोरंजन और समाज सुधार को रेखांकित करते हुए लिखते हैं, “पंडित राधेश्याम कथावाचक ने समय और समाज की माँग के अनुरूप नाट्य रचना करके दर्शकों को स्वस्थ मनोरंजन तथा समाज सुधार की प्रेरणा देने का यथासंभव प्रयत्न किया है। भारतेंदु जी के देश सुधार या समाज सुधारवादी विचारों का उन पर व्यापक प्रभाव था जो कि उनके स्वाभिमान का व्यापक आधार था।” सुधीर विद्यार्थी राधेश्याम कथावाचक के पूरे जीवनकाल को बरेली से संबंधित करते हुए लिखते हैं, “बरेली के दिनों की उनकी कुछ एक छवियाँ उनकी आत्मकथा में भी दर्ज हैं। बरेली और पंडित राधेश्याम को अलग करके देखना किसी के लिए संभव नहीं था। ये दोनों एक-दूसरे में ऐसे गूँथे हुए हैं कि कोई राधेश्याम की बरेली कहता है तो उनके जेहन में बरेली के राधेश्याम अपने पूरे क़द के साथ अभी तक ज़िंदा है। डॉ. नितिन सेठी ने पंडित राधेश्याम की नाट्ययात्रा को पारसी थिएटर से हिंदुस्तानी रंगमंच तक देखा है। भारतेन्दु की सामाजिक और राष्ट्रीयता की भावना के साथ राधेश्याम कथावाचक ने पुनरुत्थान का दृढ़ संकल्प लिया था। ज्ञातव्य है कि पंडित राधेश्याम कथावाचक को फ़िल्मी दुनिया ने भी पर्याप्त सम्मान दिया था। नाटक कंपनी में काम करते-करते उनकी प्रसिद्धि तत्कालीन फ़िल्मकारों जेजे मदान, कुंदनलाल सहगल, नरगिस की माँ जद्दनबाई तक पहुँच चुकी थी। रंजीत पांचाले ने अपने आलेख ‘पंडित राधेश्याम कथावाचक और फ़िल्मी दुनिया’ में पंडित जी के फ़िल्मी जीवन और उससे धीरे-धीरे अलग होने का वर्णन किया है। प्रभात ने जीवन के विविध रंग राधेश्याम कथावाचक के सृजन में देखे हैं। अनंतराम मिश्र ‘अनंत’ राधेश्याम रामायण पर अपने महत्वपूर्ण विचार प्रस्तुत करते हैं। डॉ. लवलेश दत्त ने राधेश्याम कथावाचक को हिंदी के अनन्य उपासक के रूप में रेखांकित किया है। सुरेंद्र मोहन मिश्र पंडित जी का संबंध विक्टोरिया ड्रैमेटिक कंपनी से दर्शाते हैं। प्रस्तुत पुस्तक में संपादक हरिशंकर शर्मा के चार आलेख अलग-अलग शीर्षकों से हैं जिनमें ‘राधेश्याम कथावाचक बनाम अधीर’ और ‘राधेश्याम कथावाचक की राजनीतिक दृष्टि’ महत्वपूर्ण आलेख हैं। हरिशंकर शर्मा के शब्दों में,“पश्चिमी बंगाल में रविंद्रनाथ टैगोर ने कला,संगीत,शिक्षा तथा साहित्य के माध्यम से बंगाल की धरती को उर्वरा बनाया तथा राष्ट्रीय चेतना भी जागृत की। पूर्वी उत्तर प्रदेश संयुक्त प्रांत में भारतेंदु जी ने ब्रिटिश मानसिकता से मुक्ति के लिए जमीन तैयार की। लेकिन पंडित राधेश्याम कथावाचक ने इन दोनों मार्गों से पृथक राष्ट्रीय चेतना जागृत करने का कार्य किया है।” पुस्तक के प्रथम और अंतिम आवरण पृष्ठों पर क्रमशः ‘वीर अभिमन्यु’ और ‘मशरिकी हूर’ नाटकों के दुर्लभ आवरण चित्र दिए गए हैं, जो ‘भ्रमर’ पत्रिका से लिए गए हैं।

प्रस्तुत पुस्तक पंडित राधेश्याम कथावाचक के नाटकों पर तो समीक्षा दृष्टि केंद्रित करती ही है, साथ ही साथ राधेश्याम कथावाचक के सृजन को सामाजिक-राजनैतिक विषयों के अंतर्गत देखने का उपक्रम भी यहाँ है। सामाजिक चेतना के साथ-साथ साहित्यिक चेतना को भी राधेश्याम कथावाचक अपने सृजन में भूले नहीं बल्कि पुरानी कथाओं को अपनी विशिष्ट गायन शैली और रंगमंचीय विशेषताओं से युक्त करके उन्होंने लोकजीवन के विभिन्न रंग भी अपने नाटकों में बिखेरे। ‘रंगायन’ और ‘रूपायन’ के माध्यम से राधेश्याम जी को समझने के ऐसे प्रयास सर्वथा स्तुत्य और सराहनीय हैं। एक लोक रचनाकार को विस्मृत किए जाने से पूर्व ही उसकी समग्र विशेषताओं को सामने लाने का जो प्रयास हरिशंकर शर्मा कर रहे हैं, उसके लिए वे साधुवाद के पात्र भी हैं। ‘पंडित राधेश्याम कथावाचक:सफर एक सदी का’, ‘पंडित राधेश्याम कथावाचक: डायरी का व्याकरण’ के क्रम में ही प्रस्तुत पुस्तक ‘पंडित राधेश्याम कथावाचक: रंगायन’ को देखा जाना चाहिए। पंडित राधेश्याम कथावाचक की रामायण पर तो फिर भी कुछ सामग्री प्राप्त होती है, परंतु उनके नाटकों पर विभिन्न दृष्टिकोणों से समालोचन का यह प्रथम और सर्वथा स्तुत्य प्रयास है।

डॉ. नितिन सेठी
सी-231,शाहदाना कॉलोनी 
बरेली (243005)
मो. 9027422306


 

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