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रसगुल्लों के प्राण

के.बी. बाबू का किस प्रकार वर्णन किया जाए, बड़ा ही गूढ़ विषय है। एक महान चिंतक, विचारक, अपने कार्य में निपुण, भोजन के शौकीन, कुल चार फुट लंबाई और पचीस किलो की भारी भरकम काया के स्वामी का नाम वैसे तो (रहने दीजिए क्या फ़र्क पड़ता है, कोई भी नाम चुन लीजिए)। वैसे तो लोग उन्हें कई नामों से बुलाते हैं, किंतु हम उन्हें के.बी. बाबू ही कहेंगे।

बंगाली हैं, भोजन के शौकीन, ख़ासकर निरामिष भोजन के, समय के पाबंद और एकदम सजीले नौजवान। जिस चीज़ को दिल से लगा लेते कभी नहीं भूलते, एक समय था कि कार्यालय की सबसे रूपवती कन्या को हृदय दे बैठे थे, वर्षों तक स्वप्नों के श्याम-पटल पर अपने अरमानों की चॉक से उसका नाम लिखते और मिटाते रहे। वो तो ये हुआ कि वो कन्या कहीं चली गयी अन्यथा के.बी. बाबू ने अपने जीवन की पूर्ण रूप-रेखा बना ली थी अपने स्वप्न संसार में। फिर अब किसी और कन्या पर दृष्टि हो तो हमें पता नहीं है।

चलिए लौट के आते हैं वर्तमान पर। तो घटना कुछ यूँ हुई कि एक दिन हमारे दफ़्तर के के.बी. बाबू, जो कि पद से अब बड़े बाबू हो गये, हम जैसे छोटे लोगों को मुँह नहीं लगाते, जब तक साथ में थे तब तक बड़ा ही अनुराग था उनको हमसे, ऊपर पहुँचते ही अब हम तुच्छ लगने लगे हैं। जैसे चार वर्ष का बालक ख़ुद को बड़ा समझने लगता है और अपने से हर छोटे बच्चे को अपना बेटा या छोटा बेबी कहने लगता है।

हालाँकि इस बात में कोई दो-राय नहीं कि के.बी. बाबू अपनी मेहनत के दम पर इस मुकाम पर पहुँचे हैं कि वो बड़े और हम छोटे हो गये और इसके लिए सभी उनका सम्मान भी करते हैं।

ओह, मैं घटना से पुनः भटक गया, लौट आता हूँ। तो घटना कुछ ऐसी है कि मैं और मेरे परम मित्र, स्वामी, कार्यालय की केंटीन में पहुँचे तो देखा चाय के काउंटर पर के.बी. बाबू कुछ ऐसे खड़े थे जैसे अपने ऑर्डर का इंतज़ार कर रहे हों, शायद उन्होंने कुछ ऑर्डर किया था। किंतु उनके हाथों की मुद्रा कुछ ऐसी थी जैसे अपनी हथेलियों से कुछ छुपा रहे हों। मैं और स्वामी क्योंकि चाय पीने जा रहे थे, के.बी. बाबू के दोनों ओर जा कर खड़े हो गये, और पूछा -

"क्यूँ के.बी. बाबू क्या छुपा रहे हैं हाथों से?"

उन्होंने अपने छोटे-छोटे हाथों से एक प्लास्टिक की कटोरी में दो बड़े-बड़े, रस-भरे, मुँह में पानी लाने वाले, जिह्वा पर कूद कर उदर में जाने को व्याकुल, गुलाब-जामुन छुपाने की यथा-संभव कोशिश की, और बोले, "कुछ नहीं, कैसे हो?"

स्वामी से मैंने व्यंग्य करते हुए कहा - स्वामी एक तुम्हारा एक मेरा, ले लो के.बी. बाबू से, मिठाई का इतना हक तो बनता ही है। स्वामी ने कहा हाँ हाँ ले लो। के.बी. बाबू ने बोला नहीं नहीं ये नहीं।

अब हमने और खींचा, "क्यूँ नहीं भाई, इतना हक तो है हमारा, आप इतने पराए तो हुए नहीं, अभी कि दो रसगुल्ले न खिला सकें लाइए दीजिए।"

के.बी. बाबू कुछ अलग सा बर्ताव करते हुए बोले, "नहीं! ये नहीं खुद ले लो, वहाँ उस काउंटर पर मिल रहे हैं, खरीद कर खा लो।" मुझे और स्वामी को हँसी आ गयी, किंतु उन्हें छोड़ने का मन नहीं हुआ, फिर खींचा।

"अरे भाई तो आप खिला दीजिए। ये दो हमें दे दीजिए, आप दो और ले आइए," वे थोड़ा खीझते हुए बोले, "खुद खरीद कर खाओ।"

हम थोड़े हँसे किंतु चाय के इंतज़ार में खड़े रहे और के.बी. बाबू अपनी पाव-भाजी के।

चलिए प्रतीक्षा का अंत हुआ और पहले के.बी. बाबू की पाव-भाजी आई, लग रहा था गरम थी, काग़ज़ की प्लेट पे गरम पाव-भाजी, के.बी. बाबू ने अब प्रयत्न आरंभ किया। पहले एक हाथ में रसगुल्ले की प्लेट रखी और दूसरे से पाव-भाजी की। जो संभव ना हो सका। फिर पहले पाव-भाजी की प्लेट पकड़ी और बाद में रसगुल्ले की प्लेट उठाने का प्रयत्न आरंभ हुआ, उसमें भी असफल रहने पर बड़े असमंजस में पड़ गये। किसी भी प्रकार से दोनों प्लेट एक साथ नहीं जा सकती थी। उन्हें मात्र शंका ही नहीं पूर्ण विश्वास था की अगर वो दो में से एक प्लेट भी छोड़ कर गये तो उनके अपनी जगह पर रख कर आने तक दूसरी वाली हम साफ कर देंगे।

बड़े ही किंकर्तव्यविमूढ़ थे, मैंने कह ही दिया जाइए एक-एक कर ले जाइए प्लेट, उन्होंने शंका से देखते हुए एक प्रयत्न और किया, अंतिम प्रयत्न, पर पाव-भाजी गरम थी, उनका हाथ जला भी सकती थी। अब उन्हें एक-एक कर के ही ले जाना था। पर क्या सोच रहे थे वो?

हमने मदद करने के लिए सुझाव दिया, "जाइए पहले पाव-भाजी रख आइए फिर रसगुल्ले ले जाइएगा"। शंका ही भय का मूल होती है, और भय क्रोध का, क्रोध से उत्तेजना होती है, और उत्तेजना अक्सर युद्ध के रूप में सामने आती है। यहाँ मानसिक युद्ध चल रहा था। के.बी. बाबू सोच रहे थे की अगर पाव-भाजी ले गया तो ये दोनों पेटू अवश्य ही मेरे प्राणों से प्रिय, जीवन का सार, रस से परिपूर्ण, स्वाद से जिह्वा के कण-कण को आनंद विभोर कर देने वाले इन दो गोल-गोल रसगुल्लों का भक्षण कर लेंगे। और अगर रसगुल्लों के प्राणों की रक्षा पहले की तो अवश्य ही पाव-भाजी पर हमला किया जाएगा। जिसमें उसका प्राणांत भले ही ना हो किंतु अपनी आधी देह अवश्य ही खो देगी।

हमें नहीं ज्ञात था कि हम दोनों को किसी अन्य के भोजन पर इतनी कुदृष्टि डालने वाला समझा जाता है, हालाँकि किसी अन्य का भोजन हम लोग कभी छीनते तो नहीं, किंतु हमसे भोजन को इतना ख़तरा - हमें आश्चर्य हो रहा था!! जैसे कि शेर पेट भरा होने पर बिना बात शिकार नहीं करता वैसे ही कभी मनुष्य तृप्त होने पर दूसरे की थाली में क्या है, ये देखता अवश्य है परंतु झपट्टा नहीं मारता, खाली पेट हो तो फिर सामने क्या और किसका भोजन है इसकी परवाह नहीं करता। हमने तो अभी-अभी उत्तम भोजन किया था और चाय पीने जा रहे थे, रसगुल्लों को हमने अभय दान दिया हुआ था। परंतु रसगुल्लों के प्राणों का इतना भय? हालाँकि के.बी. बाबू और हमारे संबंधों को शोभा नहीं देता फिर भी!!

मानसिक द्वंद्व में फँसे के.बी. बाबू को स्वामीजी ने पथ दिखलाया। उनका मार्ग-दर्शन करते हुए बोले, "जाइए पहले रसगुल्ले ही रख आइए"। के.बी. बाबू को उपाय जमा। उन्होंने रसगुल्लों की रक्षा को अपना धर्म समझते हुए, पाव-भाजी के प्राणों को दाव पर लगाना श्रेयस्कर समझा। सबसे पहले उन्होंने विद्युत की स्फूर्ति से पाव-भाजी को हम दोनों से गज भर की दूरी पर, सुरक्षित किया और पुनः विद्युत-गति से - उन स्वाद के मीठे विस्फोटक - रसगुल्लों को सुरक्षित निकाल कर निश्चित स्थान पर रख आए। और फिर अपनी पाव-भाजी को भी अंत में सुरक्षित कर लिया। एक कुटिल विजयी मुस्कान के साथ के.बी. बाबू ने ये द्वंद्व जीत लिया था। वो विजयी रहे थे, उन्होंने ना केवल रसगुल्लों के प्राणों की रक्षा की थी, बल्कि पाव-भाजी को भी क्षतिग्रस्त नहीं होने दिया था।

धन्य हो के.बी. बाबू!! धन्य!! तुम्हीं तो सच्चे क्षत्रिय!!

मैं और स्वामी सोच रहे थे कि आख़िर के.बी. बाबू को क्या हो गया है, वो ऐसे कैसे हो गये। हम दोनों ने अभी भोजन किया था और रसगुल्लों पर कोई कुदृष्टि नहीं थी हमारी, किंतु प्रेम से के.बी. बाबू ने खिलाए होते तो अवश्य खा लेते, परंतु जिस प्रकार अपने भोजन की रक्षा के.बी. बाबू ने की अगर उससे से पाँच प्रतिशत भी हमारी सरकारें ग़रीब के भोजन की रक्षा करें तो शायद कोई ग़रीब भूखा न सोए।

अपनी चाय लेकर अपने स्थान पर आकर हम दोनों ने एक घोर अट्टहास किया और अपनी चाय का आनंद लेने लगे। और सोचने लगे - उन दो रसगुल्लों का स्वाद आख़िर रहा कैसा होगा।

हे के.बी. बाबू! तुमसे सविनय निवेदन है कि मेरे इस लेख पर क्रुद्ध मत होना! मुझे ज्ञात है की आपका क्रोध मुझे भस्म तो नहीं कर सकता किंतु मेरे जीवन को कष्टमय अवश्य बना सकता है। किंतु आपके साथ काम करते-करते आपसे भी कुछ निजता का अनुभव हुआ है। जिसको दृष्टि में रखते हुए इस घटना का वर्णन कर रहा हूँ। हे के.बी.बाबू! अब तुम बड़े बाबू हो, और हम अब भी वही तुच्छ, मूर्ख, सदैव आत्ममुग्ध, आजीवन बाबू होने का तमगा लेकर प्रसन्न रहने वाले लोग। आपकी अनुकंपा हम पर सदैव बनी रहे!!

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