रस्म
कथा साहित्य | लघुकथा शबनम शर्मा1 Jun 2019
छुट्टियों के बाद स्कूल में मेरा पहला दिन था। नीना को सामने से आता देख मुझे अचम्भा सा हुआ। वह स्कूल की पी.टी. अध्यापिका है। पूरा दिन चुस्त-दुरुस्त, मुस्काती, दहाड़ती, हल्के-हल्के क़दमों से दौड़ती वह कभी भी स्कूल में देखी जा सकती है। आज वह, वो नीना नहीं कुछ बदली सी थी। उसने अपने सिर के सारे बाल मुंडवा दिये थे। काली शर्ट व पैंट पहने कुछ उदास सी लग रही थी। कुछ ही समय में पता चला कि इन छुट्टियों में उसके पापा की मृत्यु हो गई थी। सुनकर बुरा लगा। शाम को मैं क़रीब चार बजे उसके घर गई। उसने मुझे बैठक में बिठाया। पानी लाई व मेरे पास बैठ गई। पूछने पर पता चला कि उसके पिता की मृत्यु हृदय गति रुकने के कारण हुई थी। रात का समय था, वह उन्हें अस्पताल ले गई जहाँ डाक्टरों ने उन्हें मृत घोषित कर दिया। घर आकर उसने अपने रिश्तेदारों को पिता जी मृत्यु की सूचना दे दी।
सुबह पूरा जमघट लग गया। सवाल कि संस्कार पर कौन बैठेगा? चाचा के 3 बेटे थे। तीनों खिसक लिये। समय का अभाव था। नीना की दो बड़ी बहनें शादीशुदा थीं, उनके बच्चे व पति भी व्यस्त थे। वह 10 दिन बैठ नहीं सकते थे। लाश को उठाने से पहले यह कानाफूसी नीना तक पहुँच गई। वह माँ के पास बैठी थी। उसने आँसू पोंछे व पिछवाड़े वाले ताऊजी से कहा जो रात से उनके साथ थे, "ताऊजी, मैं करूँगी पिताजी का अन्तिम संस्कार, मैं बैठूँगी सारी पूजा पर।"
सबके दाँतों तले अंगुली आ गई। पर नीना ने किसी की परवाह न की। कंधे पर सफ़ेद कपड़ा रख कर, सबसे पहले अपने पापा की लाश को कंधा दिया व शमशान तक पूरी विधिपूर्वक सब कार्य किया। बताते-बताते उसकी आँखें कई बार नम हुईं। बोली, "मैडम, मेरे पापा अकसर कहते थे मेरी दो बेटियाँ, एक बेटा है। मुझे क्या पता था कि आज..."
मैंने उसके कंधे पर हाथ रखा और कहा, "नीना, मुझे तुझ पर गर्व है।"
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
कविता
लघुकथा
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं