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 रावण ऐसे नहीं मरा करते दोस्त

अबकी बार, एक बार फिर पहले से अधिक सिर नीचा किए रावण को पूरा जलता देखने के बाद किसी अज्ञात डर से लंबे-लंबे क़दम भरता बुद्धि पर पत्थर रखे घर को लौट रहा था कि पता नहीं जलाने के बाद भी रावण पहले की तरह ठट्ठा लगाता हुआ किस मोड़़ पर सीना चौड़ा किए रास्ता रोक ले।

पर शुक्र ख़ुदा का! अबके वैसा नहीं हुआ। मैं रावण को जलाने के बाद सकुशल घर पहुँचा तो लगा अबके रावण जल ही गया। थैंक गॉड! अगले बरस से दशहरे को रावण जलाने के नाम पर देशभर में प्रदूषण नहीं होगा।

पर ज्यों ही घर का सड़ा-फड़ा ज़बरदस्ती खड़ा गेट खोला कि सामने रावण! मुझसे पहले मेरे घर में। मतलब, नेता जी अबकी फिर रावण जलाने से चूक गए। मैंने तो रावण कमेटी के प्रधान से कहा भी था कि अबके रावण किसी ईमानदार से जलवाओ, शायद, शहर में अमन चैन लौट आए। पर वे नहीं माने थे। बोले थे- रावण बनाने से लेकर जलाने तक का सारा भार उन्होंने अपनी जेब से उठाया है। दूसरे आज तक देश के साथ-साथ देश में रावण को जलाने की क्रिया नेताओं के हाथों से ही पूरी होती रही है। जो नहीं हो सकता सो नहीं हो सकता।

जहाँ तक मुझे स्मरण है मारा तो तीर नेताजी ने आँखें बंद कर रावण के सीने पर ही था। अब रावण ही जाने किसके सीने पर जाकर लगा होगा?? कई दिनों से मेरे देश के नेताजिओं का निशाना चूका जा रहा है। वे तीर मारते महँगाई के सीने पर हैं और जा लगता कहीं और है। वे मूँछें खड़ी कर तीर मारते बेरोज़गारी के सीने पर हैं और जा लगता कहीं और है। वे तीर सीना चौड़ा कर मारते भ्रष्टाचार के सीने पर हैं और जा लगता कहीं और है। लगता है हमारे पास बेहतर तीरंदाज़ हैं ही नहीं। वरना महँगाई के सीने पर लगा तीर जनता का सीना नहीं, महँगाई का सीना तार-तार कर देता। बेरोज़गारी के सीने पर चला तीर बेरोज़गारों के सीने को तार-तार करने के बदले बेरोज़गारी के सीने को तार-तार करके रख देता।

सामने सीढ़ियों पर बैठे रावण को मूँछों पर ताव देते देखा तो अपनी तो सरकारी अस्पतालों की तरह ऑक्सीजन की ख़त्म हो गई। देखते ही देखते मैं तड़पने लगा। मुझे तड़पते देख रावण ने मुझे सहारा देते कहा, "डरो मत! मैं तुम्हें मरने नहीं दूँगा। मैं नहीं चाहता तुम्हारी मौत का कलंक मुझे लगे। सरकार ही यह कलंक लेगी।"

"पर यार! कमीनेपन की भी हद है कि अब के फिर तुम साफ़ बच निकले? बड़े बेशरम हो तुम तो यार। अगर तुममें ज़रा सी भी शरम होती तो सदियों से जलाने के बाद अबके तो दशहरे से पहले ख़ुद ही आत्मदाह कर लेते।"

"मैं बेशरम तो हूँ, पर तुमसे कम।"

"मतलब??" मैं तो आजतक अपने का राम समझता रहा।

"दोस्त! कभी अपनी चारपाई के नीचे भी झाड़ू दो तो पता चले कि तुम मुझसे भी कितने अधिक गंदे हो। पर नहीं! तुम्हें तो काँधे पर बंदूक की तरह झाड़ू लिए देश की सफ़ाई करनी है। अपनी चारपाई के नीचे का गंद जाए भाड़ में। घासफूस जला रावण नहीं मरा करते दोस्त!"

उसे लगा कि मुझमें फिर ऑक्सीजन की कमी हो रही है सो उसने मेरे मुँह में अपने मुँह से साँस देना शुरू किया तो मुझे बंदा कुछ नेक लगा। वरना यहाँ तो लोग और के पेट से रोटी तो रोटी, आदमी के फेफड़ों से ऑक्सीजन भी सिरींज से निकाल अपने फेफड़ों में भर समाज सेवा के भारत रत्न, पद्मश्री हथियाए जा रहे हैं।

"मतलब??"

"एक बात पूछूँ, उत्तर दोगे?"

हद है यार! इस देश में वे रावण भी अब प्रश्न पूछने लगे जिन्हें जनता के सवालों के उत्तर देने चाहिएँ। पर बंदे ने मुझे ऑक्सीजन दी थी सो मैंने उससे कहा," पूछो!"

"जिस देश में द्रौपदी का चीरहरण भरी राज सभा में राजा के सामने हुआ था उसे तो तुमने आजतक कुछ नहीं कहा। फिर मुझ पर ही यह अत्याचार क्यों? फिर मुझसे सौतेला व्यवहार क्यों? राजा तो वे भी थे। कहीं ऐसा तो नहीं कि वे इंद्रप्रस्थ से हैं और मैं लंका से? इस देश का सब समझ आया, पर वोट की घटिया राजनीति समझ नहीं आई दोस्त! मैंने तो ...... हरण से कम संगीन चीरहरण कबसे हो गया तुम्हारी क़ानून की किताब में? अतीत के दशानन जलाने के बदले वर्तमान के सहस्त्रानन जलाओ तो बात बने," कितना गधा हूँ मैं भी? बुद्धिजीवी होने के कितने पुरस्कार ले चुका हूँ।

"ज़रा सोचो इस बारे में भी। मिथ को जलाने के बदले वर्तमान के रावणों को जलाओ तो देश का कल्याण हो मित्र! अलविदा, अगले बरस आज ही के दिन एक शाम फिर जलेंगे। अगले ही पल से हर कहीं, हर पल, आठ पहर चौबीसों घंटे मुस्कुराते रोज़ मिलेंगे।"

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