रवि-कवि
कथा साहित्य | सांस्कृतिक कथा राजीव कुमार15 Jun 2019
मानव के आसपास का अंधकार तो मिट चुका था। देव ने कोई कसर नहीं छोड़ी। मानव को असमंजस में देखकर देव ने प्रश्न किया, "अँधेरा तो दुम दबाकर भाग निकला, अब उदास क्यों बैठे हो?"
"अँधेरा तो मन-मस्तिष्क को भी जकड़े है, देव," उत्तर में मानव ने कहा।
देव ने कहा, "देखूँ, मैं प्रयत्न करूँ। मन-मस्तिष्क में कौन-सा अँधेरा बैठा है?"
देव ने पुरज़ोर कोशिश की, मगर असफल रहे।
मानव उदास ही बैठा रहा।
मानव की ही बिरादरी का कोई उपस्थित हुआ, उसने स्थिति का पूरा भावात्मक जायज़ा लिया, प्रकृति की तरफ़ देखा और कुछ वाक्य कहे।
श्लोक के सुनते ही मानव खिल-खिलाकर हँस पड़ा। मन-मस्तिष्क एकदम तरोताज़ा हो गया। देव को आभास हो गया कि यह सामने जो खड़ा है, इसके मन-मस्तिष्क में प्रवेश कर अंधकार ख़त्म कर दिया है।
देव ने आश्चर्यचकित होकर पूछा, "तुम कौन हो वत्स? मैं इसके मन-मस्तिष्क में प्रवेश नहीं कर सका और तुम आसानी से कर गए प्रवेश। जबकि मैं रवि हूँ, रवि देव।"
सामने खड़े ने जवाब दिया, "मैं कवि हूँ, कवि देव।" प्रणाम किया और वहाँ से चला गया।
रवि देव भी आशीर्वाद देने की मुद्रा बनाकर उसको जाते देखते रहे।
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