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रूपा की शादी 

उसने एक बार फिर बालकॉनी से नीचे झाँककर देखा गली में अभी भी बहुत भीड़ थी। वो पिछले डेढ़ घंटे में करीब छह बार नीचे लोगों की आवाजाही को देखकर सहम जाता है और फिर अंदर जाकर निरुद्देश्य-सा बैठ जाता है। रमाकांत को अपनी भतीजी रूपा से बहुत लगाव था इसी से कल ही वो भतीजी के विवाह के लिए शहर आया था। 

गाँव में तो शौचालय आदि के लिए आज भी मजबूरी या दुविधा भरी स्थिति में कहीं भी जाया जा सकता है, पर शहरों में तो जहाँ ठौर-ठिकाना है बस वहीं तक ज़िन्दगी सिमटी है। यहाँ कोई किसी को नहीं जानता-पहचानता और फिर कोई किसी से संबंध रखता भी है तो केवल मतलब से। वरना शहरों में लोग एक-दूसरे से कटे-कटे से ही रहते हैं। सीमित साधनों में ज़िन्दगी भी सिमटी सी दिखाई देती है। रमाकांत गाँव की मिट्टी से जुड़ा और वहाँ स्वच्छ हवा में जीने वाला व्यक्ति है। शहर में वो कभी-कभार ही आता है फिर पेट की व्याधि और काका होने की ज़िम्मेदारी से वो क्यों पीछे हटे।

रमाकांत उम्र क़रीब साठ साल, गिरता शरीर, मोटी मूँछ ऐंठन भरी पर पेट की व्याधि से इन दिनों परेशान है। रिश्तेदारी और भाईचारा निभाने और फिर रूपा– उसकी चहेती भतीजी का विवाह भी तो है। इसी से वो शहर किसी तरह बेटे के साथ पहुँच गया पर उसे क्या मालूम था कि वो यहाँ बुरी तरह फँस जायेगा। पेचिश की वज़ह से कल रात से कुछ खाया भी नहीं था। केवल स्वयं की जिलाने हेतु अल्प आहार ले लिया था। रात तो जैसे-तैसे कई मर्तबा ग़ुस्लख़ाने में ही उसने निकाल दी थी पर अब दिन में कहाँ जाए। चेहरे के भाव उसकी देह की हालत से अधिक बुरे होते जा रहे थे। उसने कितनी ही मर्तबा सोचा कि पेट से निजात पाने हेतु बाथरूम चला जाए पर हमेशा उसे बंद मिलता देख उसका चेहरा सुर्ख़ हो जाता। एकाध बार उसने गौरव के साथ बाहर जाने का सोचा पर गौरव तो अपने हम उम्र नौजवानों की संगत में इधर-ऊधर ब्याह के किन्हीं कामों में व्यस्त दिखा। 

इससे रमाकांत के लिए मुश्किल होता गया और पेट का दवाब लगातार बढ़ता गया। बाथरूम लोगों के बीचों-बीच था सो यहाँ एकाध बार तो हिम्मत करके पहुँचा जा सकता था पर बार-बार और यहाँ तक परिवार के मध्य यहाँ तक पहुँचना टेढ़ी खीर था। रमाकांत छह भाई और तीन बहने हैं। सबका बड़ा पूरा परिवार है और फिर घर में बड़े भाई की बेटी के विवाह पर शहर तक आना इतना ज़रूरी था कि इसे टाला भी नहीं जा सकता था। रमाकांत कल शाम से ही स्वयं को ऐसे हालात में यहाँ पाकर कोस रहा था।

क्या होता जो मैं यहाँ न होता तो फिर सावित्री ही आ जाती पर अब?

क्यों न मैं आज ही गाँव लौट जाऊँ? अगर किसी तरह बाथरूम तक न पहुँचा तो मेरी हालत ही बिगड़ती जाएगी।

"अब क्या करूँ?"

वो सोच-सोचकर बाहर बालकॉनी में इधर-ऊधर देखने लग जाता और किसी तरह स्वयं को सँभालता अंदर लौट जाता।

परिवार के बच्चे चाचा काका बोलते उसे अलग से थाम लेते। उसकी हालत पल-पल बिगड़ती जा रही थी। सहसा उसे बाथरूम खुला दिखा वो तुरंत दौड़ता हुआ बाथरूम की तरफ दौड़ा पर उसमें एक छोटे से बालक को बैठा देख उसने दिल थाम लिया। 

"चाचा जी आप कैसे हैं? मुझे चेंज करना हैं। आप अंदर बैठिये ना?" रूपा ने मुस्कुराते हुए कई सवाल कर दिए। रमाकांत बनावटी हँसी के साथ ख़ुद को सँभाले रहा और किसी तरह बताने जा ही रहा था कि उसका अंदर जाना अत्यंत ज़रूरी है पर रूपा ने मुस्कुराते हुए बिना रमाकांत की बात सुने, बाथरूम के भीतर जाकर चिटकनी लगा ली। रमाकांत क्रोध और विस्मय से देखता रहा।

"अरे रमाकांत इधर बीच में कहाँ खड़े हो? आओ सबके बीच आ जाओ फिर तुमसे बात भी तो करनी है।" रमाकांत ने यकायक सामने बड़े भाई को देखा और एक पल सब कुछ भुलाकर उसके साथ अंदर कमरे में हो लिया।

रूपा की हल्दी उबटन आरंभ हो गया सब ख़ुशी से एक-दूसरे को देखकर मुस्कुरा रहे थे। रमाकांत पतलून थामे सबसे पीछे निर्जीव-सा खड़ा दिखा।

बाथरूम के भीतर अभी भी कोई है। उसे लगा अब सब बैंड बाजे के साथ दूसरी रस्मों में व्यस्त हो जाएँगे और वो आराम से बाथरूम जा सकेगा। पर ये क्या! अब भाभी कपड़े बदलने के लिए अंदर चली गयी। वो काँपने लगा और कोने में खड़ा होकर सोचने लगा कि अब भी वो यदि न जा सका तो वो गिर जाएगा। किसी तरह नीचे सड़क पर आकर बेचारगी से एक-एक मकान को देखने लगा। शहर की गली में सब अपने में व्यस्त दिखे।

तेज़ धूप अब धीमी होती जा रही थी। वो पतलून की जेब में हाथ डाले अपनी जाँघ को कसके थामे था। जिससे कि वो स्वयं को कुछ देर और रोक सके।

उसने एक दो लोगों से नाले, जंगल, बावड़ी आदि के लिए पूछा पर सब मोबाइल में व्यस्त होने के कारण उसे अनसुना करते रहे। वो पुनः कमरे में लौट आया और सबसे अलग एक कमरे में आराम कुर्सी पर बैठ गया और आते-जाते परिवार के लोगों को देखता रहा। दर्द से वो अंदर ही अंदर कसकता रहा उसे लगा कि अब वो नहीं बचेगा; वो हाँफने लगा और गौरव (लड़के) को बुलाने लगा पर शब्द गले के अंदर ही घुड़घुड़ करते रहे। उसकी आँखें मुँदने लगीं वो रुआँसा होकर बाथरूम की ओर सरकने लगा।

सब विवाह में मस्त होते गये । बाहर बैंड बाजा बजने लगा। लड़कियाँ औरतें सुन्दर परिधानों में घूमती बतियाती दिखीं। बच्चे मिठाई खाते दिखे। सैल्फियाँ और फोटो लेने में सब मस्त थे। कोई कमरे के भीतर कोई छत पर तो कोई गली में। पर रमाकांत कहीं नहीं बाथरूम अब अंदर से बंद है।

रमाकांत का बेटा गौरव बाऊजी-बाऊजी चिल्लाता-चिल्लाता इधर से ऊधर घूम रहा है। "अरे कहाँ हैं? बाऊजी! कहीं देखा क्या उन्हें?"

सब तो यहीं हैं फिर वो कहाँ?

शायद बाथरूम में हों?

वो बाथरूम में?

"अरे बाऊजी! आप अंदर हैं क्या?"

कोई जवाब न पाकर उसने पुनः पुकारा। कोई जवाब नहीं।

"ताऊ जी आपने बाऊजी को देखा है?"

"नहीं यहीं होंगे कहीं! थोड़ी देर पहले तो उसको बालकॉनी में खड़े देखा था। कहीं नीचे बैंड-बाजे के बीच तो नहीं।"

गौरव बालकॉनी की तरफ़ दौड़ा पर वहाँ कोई नहीं था।

बैंड-बाजे वाली भीड़ में भी वो नहीं दिखे।

उसे अचानक याद आया कि बाथरूम से किसी ने जवाब नहीं दिया था। कहीं बाअऊजी बाथरूम में तो नहीं?

उसने फिर पुकारा!

इस बार जवाब न पाकर उसने बाथरूम के दरवाज़े को धकेला। शायद कोई होगा तो जवाब देगा।

कोई प्रतिक्रिया न पाकर उसने तेज़ी से बाथरूम को धक्का मारा। तीन-चार बार तेज़ धकेलने से उसकी कुंडी खुल गयी तो वहाँ का दृश्य ही भयाभय था।

रमाकांत बाथरूम के एक कोने में लुढ़के हुए मृत मिले।

उनका शरीर नीला हो चुका था। बंद आँखें और खुली पतलून!

बाहर बैंड बजता रहा। बारात तो आठ बजे तक पहुँच जाएगी पर रमाकांत के जीवन का अब तक अंत हो चुका था।

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