रूढ़ियाँ
काव्य साहित्य | कविता रीता तिवारी 'रीत'15 Jun 2021 (अंक: 183, द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)
रूढ़ियाँ जब बेड़ियाँ,
बन जाती हैं समाज में।
जी नहीं सकता ख़शी से,
कोई भी आज में।
रूढ़ियों को तोड़कर,
नवसृजन कर समाज का।
ले नया संकल्प कर लो,
कायाकल्प आज का।
जो समाज की प्रगति में,
बाधा बनकर हैं खड़े।
उन लकीरों को मिटाकर,
नवसृजन करके बढ़ें।
नवसृजन से ही है खुल,
जाते प्रगति के रास्ते।
नवसृजन से ही है मिटते,
रूढ़ियों के रास्ते।
रूढ़ियों को तुम मिटा कर,
राह अपनी लो बना!
"रीत" कहती है स्वयं,
जीवन सुहाना लो बना!
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
कहानी
कविता
- आशियाना
- आस्था के स्वर
- कजरारे बादल
- चूड़ियाँ
- जन्मदिवस पर कामना
- जीवंत प्रेम
- नशा
- पंछियों से भरा द्वार
- प्यार का एहसास
- प्यारा बचपन
- प्रकृति की सीख
- प्रेम प्रतीक्षा
- फिर आया मधुमास
- बारिश की बूँदों की अनकही बातें
- भारत का यश गान
- मधुर मिलन की आस
- माँ का आँचल
- मुसाफ़िर
- मैं बाँसुरी बन जाऊँ
- यह कैसा जीवन है?
- रिश्ते
- रूढ़ियाँ
- स्त्री की कहानी
- स्त्री है तो जीवन है
- हमारे बुज़ुर्ग हमारी धरोहर
- ज़िंदगी एक किताब है
गीत-नवगीत
कविता-मुक्तक
बाल साहित्य कहानी
लघुकथा
स्मृति लेख
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं