साधु हो जाऊँ
काव्य साहित्य | कविता सुनिल यादव 'शाश्वत’1 Aug 2020 (अंक: 161, प्रथम, 2020 में प्रकाशित)
सभी दुखी है जीवन से,
बस एक सुखी है साधु,
अन्याय-अति,पाप-ताप से,
बस दूर एक है साधु,
नित-त्याग करू मैं संन्यासी बन जाऊँ,
अब मैं भी साधु बन जाऊँ।
उठा-पटक की ज़िंदगी में,
शांतिदूत है वो साधु,
मिज़राबों को तनिक आराम नहीं,
जीवन संगीत सुनाता साधु,
तप्त हृदय को शांत करूँ मैं तर जाऊँ,
अब मैं भी साधु बन जाऊँ।
कहीं तो लगी आग जो सुलग रही,
अग्निशमन-शील वो साधु,
आग पेट की, अग्नि प्रेम की,
अविनाशी है वो साधु,
दाह राह पर हाय! आह किसी की हर जाऊँ
अब मैं भी साधु बन जाऊँ।
मृत्यु का डर विशेष नहीं,
तप बल से मुस्काता साधु,
ना धन-कोठी, ना अमृत अभिषेक कहीं,
सदा करे विषपान वो साधु,
मुर्दा-मुस्काने सबकी शाश्वत कर जाऊँ,
हा! मैं भी साधु बन जाऊँ।
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