सागर तट पर
काव्य साहित्य | कविता संजय कवि ’श्री श्री’15 Feb 2021
सागर तट पर।
दूर से चमकती,
उफनते पास आती,
स्नेह का भ्रम कराती,
कंठ से लगाती,
हाँ वो सागर की लहर।
वो तुम थी,
तुम ही तो थी,
था संध्या का प्रहर।
सागर तट पर।
निशा से विहान हुआ,
प्रणय लहूलुहान हुआ,
एक शरीर निष्प्राण हुआ,
वो मैं था,
मैं ही तो था,
निर्जीव निष्प्राण,
सागर तट पर।
भीड़ में से कोई बोला,
इसे प्रेम था लहर से,
नहीं समझ पाया,
जो लहर के अंक में
समा जाता है,
सुबह निष्प्राण हो
वापस आ जाता है,
सागर तट पर।
एक स्वर दूसरा था,
देखो लहर को,
अभी भी उफनती,
दूर से चमकती,
कभी नहीं सोचती,
एक भाग्यहीन
इसकी चमक में खो गया,
आह सदा के लिए सो गया;
सागर तट पर।
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