साक्षी है पीपल
समीक्षा | पुस्तक समीक्षा डॉ. एम. वेंकटेश्वर21 Feb 2019
पुस्तक – साक्षी है पीपल (कहानी संग्रह)
लेखिका: जोराम यालाम नाबाम
प्रकाशक: यश पब्लिकेशन्स, 1/10753, गली नं 3 सुभाष पार्क,
नवीन शाहदरा, कीर्ति मंदिर के पास, दिल्ली 110032
मो: 09899938522
पृष्ठ: 100
मूल्य: 250/-
जोराम यालाम नाबाम अरुणाचल प्रदेश की उभरती हुई कहानीकार हैं। अरुणाचल प्रदेश पूर्वोत्तर भारत का जनजाति बहुल प्रांत है जहाँ लगभग छब्बीस जनजातियाँ अपनी मूल जनजातीय संस्कृति और परंपराओं को जीवित रखे हुए संघर्षशील जीवन जी रही हैं। यहाँ के गाँव और कस्बे इन्हीं जनजातियों से आबाद हैं। यहाँ की संस्कृति और सामाजिकता देश के मुख्य भूभाग से भिन्न है। यहाँ एक साथ अनेकों संस्कृतियाँ अनादिकाल से पनपती रहीं हैं। यहाँ का जीवन बाहरी लोगों के लिए ख़ासा आकर्षण और अचरज का विषय हो सकता है। जोराम यालाम नाबाम ने अपने प्रथम कहानी संग्रह "साक्षी है पीपल" में अरुणाचल के जनजीवन को सहज भाव से कथात्मक आवरण पहनाया है। "साक्षी है पीपल" में संग्रहीत आठ कहानियाँ अरुणाचल के ग्रामीण पारिवारिक जीवन को बिना किसी बनावटीपन और शैलीगत साज-सजावट के प्रस्तुत करती हैं। लेखिका का जन्म ‘न्यीशी’ जनजाति में हुआ। वे अपने जनजातीय परिवेश को इन कहानियों के माध्यम से प्रभावशाली ढंग से चित्रित करती हैं। ये कहानियाँ मुखर स्वर में अरुणाचल के वन्य आंचलिक परिवेश में जीवन यापन कर रहे अशिक्षित और अर्धशिक्षित लोगों के जीवन की कथाएँ हैं। यह समाज आज भी जनजातीय रूढ़ियों को सहेजकर रखे हुए है। इन कहानियों में उन परिवारों में व्याप्त जानजातीय रूढ़ियों से ग्रस्त विसंगतियाँ, शोषण और संघर्ष का यथार्थ चित्रण है। सभी कहानियाँ स्त्री केन्द्रित हैं जो जनजातीय स्त्री विमर्श को नया आयाम देती हैं।
इस समाज की स्त्रियाँ भिन्न-भिन्न भूमिकाएँ निभाती हैं। कभी बड़ी पत्नी बनाकर अपने पति का विवाह करवाती हैं और सहपत्नियों के संग गृहस्थी का भार उठाती हैं। पति की साझेदारी को लेकर इनमें घमासान भी मचता है। इन परिवारों में सभी पत्नियों के बच्चे एक साथ पलते और बड़े होते हैं। परिवार की सभी स्त्रियाँ अपने खेत में काम करती और स्थानीय दारू "आपोङ" बनाती हैं। आपोङ का सेवन दैनिक खान-पान का हिस्सा होता है । इन कहानियों में लेखिका ने दर्शाया है कि यहाँ की स्त्रियाँ सुख और दुःख समान रूप से स्वीकार करती हैं। अपनी मर्जी दर्शाते हुए पति की एक के बाद एक शादियाँ करवाती हुई, दोनों वक्त भोजन पकाती हुई खेत-जंगल में काम करती हुई, सामूहिक उत्सवों में स्थानीय शराब का प्रबंध करती हुई, बार-बार छली जाकर टूटती हुई जीवन जीती हैं। ये स्त्रियाँ सबसे छोटी पत्नी के रूप में अपमान सहती हुई जीती हैं। कभी-कभी वे किसी सौत के हम उम्र पुत्र की ओर आकृष्ट होती हुई दिखाई देती हैं। यालाम की कहानियों में जनजातीय स्त्रियाँ के जीवन के ऐसे टूटे बिखरे रूप छाए हुए हैं जो कि आज की तथाकथित आधुनिक सभ्यता और संस्कृति से रूबरू होते हैं।
"साक्षी है पीपल" इस कहानी संग्रह की प्रतिनिधि कहानी है। ‘यालाम’ की कहानियाँ अपने प्राकृतिक परिवेश की पृष्ठभूमि में विकसित होती है। लेखिका प्रकृति से संवाद करती है। "यहाँ की हवा में चुभन सी क्यों है? क्यों पेड़ों की छायाएँ विचित्र तरीके से नाचती हैं? ये पीपल का पेड़ जैसे कुछ सुन रहा है। जिसके कान हैं, वे सुन लें। इस वादी ने उन्हें देखा था और समझा था। क्यों न हों, वे इसके अपने थे, बेहद अपने। यहाँ के पेड़ों की शाखाओं पर आज बंदर इंतजार करते हैं कि कब कोई मकई की खेती करे और नन्हे-नन्हे कई पैर उनका पीछा करें और वे जीभ दिखाकर भाग जाएँ।"
यह कहानी है "ताजुम" के परिवार की। वह एक साथ दो-दो तीन-तीन महीने के अंतराल पर पाँच पत्नियों से पाँच पुत्रों का पिता बना था। तापू, तालू, ऐपा, खोदा और तातो नाम हैं उन बच्चों के। वे अनेक माओं किन्तु एक ही पुरुष की संतान होकर साथ-साथ रहते, सोते, खाते, शिकार करते, खेती में सहायता करते, शैतानी करते तथा अपनी ज़रूरतें ख़ुद पूरी करने को आतुर रहते। ये बच्चे सिर्फ पिता से डरते हैं, माँ से कभी नहीं। यालाम की कहानियों में पुरुष पात्र कमज़ोर और विलासी प्रवृत्ति के हैं जो केवल स्त्रियाँ के प्रति आधिपत्य का भाव रखते हैं। अधिकतर पुरुष पात्र कोई बड़ा काम नहीं करते, सिवाय "दाब" (तलवारनुमा छुरी) उठाए पत्नियों को धमकाने के। बच्चे समझते हैं कि उनका पिता अलग-अलग दिन अलग-अलग माओं के पास जाता है, लेकिन उनके मन में कोई सवाल नहीं उभरता, वे जन्म से इसके अभ्यस्त हो चुके हैं। यह उनकी समाज व्यवस्था का अंग बनकर सदियों से इसी तरह चली आ रही जीवन शैली है। लेखिका इन असाधारण दांपत्य संबंधों को बिना दुराव के भावमय शैली में प्रस्तुत करती हैं। अब धीरे-धीरे शिक्षा के के प्रसार से इन स्थितियों में बदलाव आने लगा है किन्तु ये प्रथाएँ मौजूद हैं। संगलों नदी के तट पर बसा गाँव जो गाँव वालों के लिए माँ है। पास ही जंगल है जिसमें से शेर और अन्य जानवरों की आवाज़ें रातों में लोगों में भय पैदा करती है। एकाएक पड़ोसी गाँव के लोग संगरी गाँव पर रातो-रात तीर कमान से हमला कर सबको मार डालते हैं। बची हुई औरतों को खूंटी से बाँधकर दासी बना लेते हैं। इस हमले का कारण है एक रंगबिया जो संगरी में आता जाता रहता है और वह बाहर से बीमारी लेकर आता है। ऐसे हमले और हादसे उन गाँवों में होते रहते हैं जिसका साक्षी एक पीपल का पेड़ है जो अरसे से इस तरह की मारकाट को देखता रहा है। यही यहाँ का जीवन है।
इन कहानियों में लेखिका ने स्थानीय जनजातीय शब्दों का प्रयोग करके इसे आंचलिक पुट दिया है। ‘न्यीशी’ जनजाति के अनुसार सूर्य को माँ तथा चंद्रमा को पिता माना जाता है। "क्या सच में वे कभी मिले थे" एक प्रेम कहानी है। इस कहानी से यहाँ की विवाह परंपरा का ज्ञान होता है। यहाँ कम उम्र की लड़कियों को वर पक्ष द्वारा बहुत सारा पशुधन (मिथुन नामक पशु) और सोना देकर खरीदकर ब्याह करने की पद्धति है। बाल विवाह इन जनजातियों में सर्वसाधारण है। ताजो अपनी बहन आमीन का विवाह तादर नामक एक गठीले सुंदर युवक से कर रहा है। उसे बहन से अपार प्रेम है। यह कहानी आबोतानी जनजाति के एक परिवार की है। नवविवाहित तादर और आमीन का दांपत्य संबंध इसलिए टूट जाता है क्योंकि तादर के पिता की छोटी पत्नी जो कि उसकी हमउम्र की है उससे ज़बर्दस्ती करती है। यह कहानी स्त्रीपुरुष संबंधों के अपरिभाषित स्वरूप को प्रस्तुत करती है, जहाँ स्त्री छोटी उम्र से ही अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए कई-कई बार पुरुषों के छल का शिकार होकर अंत में आत्महत्या कर लेती है। यह कहानी जनजातीय स्त्रियों के प्रति गाँव से शहर तक व्याप्त पुरुष की भोगवादी और वस्तुवादी मानसिकता को चित्रित करती है। ये कहानियाँ यहाँ की स्त्रियों के प्रति विशेष सहानुभूति और संवेदना को व्यक्त करती हैं। इन कहानियों में लेखिका द्वारा अनुभूत यथार्थ परिवेशगत मान्यताओं के साथ उजागर हुआ है। अरुणाचल प्रदेश के गाँव और कस्बे (जोराम और ज़ीरो) इन कहानियों में जीवित हो उठे हैं। यहाँ के ग्रामीण जीवन का चित्रण लेखिका की विशेषता है। "उसका नाम यापी था" कहानी ‘यापी’ नामक ग्रामीण लड़की के विफल प्रेम कि कहानी है जो कि प्रेम में छली जाकर गर्भवती होकर आत्महत्या कर लेती है। स्त्री पुरुष संबंधों की अंतहीन विसंगतियाँ जनजातीय समाज में अधिक मुखर होकर प्रकट होती हैं जिन्हें लेखिका ने चुन चुनकर अपने इस संग्रह में पिरोया है। इस संग्रह की अंतिम कहानी "चुनौती" शीर्षक से है जो कि एक प्रतीकात्मक व्यंग्यात्मक कहानी है। घने जंगल में छोटे-बड़े जानवरों के राज में टिड्डों का आक्रमण, जंगल की सारी व्यवस्था को तहस-नहस कर देता है। इन टिड्डों के हमले को रोकने के लिए सारे जानवर तत्पर होते हैं। उस जंगल के सभी पेड़-पौधे, कीड़े-मकोड़े, पशु-पक्षी सबके सब बंदरों के शासन में थे। किसी में उनका विरोध करने की हिम्मत नहीं थी। बंदरों का वह झुंड बड़ा आतंकी था। बंदरों की मान्यता है कि मानव की खेती पर पुरखों से उनका ही राज है। किन्तु टिड्डों का आक्रमण उनके अधिकार को ललकारता है। बंदर आगबबूला हो उठते हैं। जंगल के सारे जानवर इकट्ठा होकर टिड्डों से युद्ध की घोषणा कर देते हैं। टिड्डे भी इस युद्ध के लिए तैयार होकर मैदान में कूद पड़ते हैं। इस युद्ध में शेर, चीता, हाथी, भालू आदि तरह-तरह के पंछी मैदान के किनारे जमा हो जाते हैं। घमासान युद्ध छिड़ता है। अंत में ’विजय’ टिड्डों की होती है। बंदरों की औरतें टिड्डों की दासी बनने के लिए तैयार हो जाती हैं। कुछ बंदर जो बचे हुए थे पलायन कर जाते हैं। लेखिका द्वारा रचित यह कहानी एक प्रयोगात्मक कहानी है जो आज की राजनीतिक व्यवस्था पर चुटीला व्यंग्य करती है।
"साक्षी है पीपल" कहानी संग्रह की कहानियाँ भाषा और शैली के धरातल पर नवीन पाठकीय अनुभव प्रदान करती हैं। ये कहानियाँ अरुणाचल की समाजशास्त्रीय व्याख्या करने में सक्षम हैं।
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