सामण मइनो आयो राज
आलेख | ललित निबन्ध डॉ. श्रवण कुमार सोलंकी 'सावन'28 Jul 2014
(मालवा के विशेष संदर्भ में)
वसंत को भले ऋतुराज कहे कोई किन्तु सावन में मालवा की वसुन्धरा अपने पूर्ण यौवन की अलौकिक छटा लिए अलका से उतरी किसी अप्सरा के सौन्दर्य को भी लज्जित करती प्रतीत होती है। ग्रीष्म ऋतु की भीषण गर्मी में जैसे वह अपने प्रिय के विरह में कृशकाय हो जाती है और जब आषाढ़ में घनराज प्रिय के आने की घोषणा करते हैं तो उसके श्यामल बदन पर अलौकिक आभा का विस्तार हो जाता है। वह रजस्वला हो जाती है और किसान बीज लिए बोनी की राह तकने लगते हैं। वह नखसिख हरितिमा से आच्छादित धानी चुनर ओढ़े नवल वधु की तरह मुस्काती है, तो मालवा के निवासियों के कंठ से अकस्मात स्वर लहरी फूट पड़ती है -
लींबे लींबोली पाकी सावन महिनों आयोजी
उठो हो म्हारा बाला बीरा लीलड़ी पलाणोजी
झूलों की ऊँची-ऊँची पेंद लगाती हुई जब ये पंक्तियाँ मालवा की नव विवाहिताएँ और कन्याएँ गाती हैं तो मन आनंद से सराबोर हो जाता है। यही नहीं यह मौसम हर हृदय की तह को झंकृत करता है इसलिए जब कारे कजरारे बादल आषाढ़ में भीषण उमस लिए मालवा की धरती से गुजरने लगते हैं तो बच्चों की ललचाई आँखें उन्हें निहारने लगती हैं। और वे तुतलाती बोली मे पुकार उठते हैं-
पाणी बाबा आजे
कांकड़ी भूट्टो लाजे
बच्चों का कोमल मन भी इस यथार्थ से परिचित है कि पानी बरसेगा तभी उन्हें कांकड़ी व भुट्टा खाने को मिलेगा; किन्तु बादल कहाँ ठहरने वाले? वे तो मेघदूत है और विरह विदग्ध यक्ष का संदेश अलकापुरी मे उसकी यक्षिणी को दिये बगैर ठहर नहीं सकते हैं, किन्तु बालमन की पुकार आखिरकार वे सुनते हैं और मोटी-मोटी बूँदे बरसती हैं तो मालवा की अंकुरित यौवनाओं के हृदय में मनसीज स्पदंन करने लगता है। उनके पैर थिरकने लगते हैं और वे फूँदी देते हुए कहती हैं-
फूँदी फटाको
जी हो म्हारो काको।
एक दूसरे का हाथ थामे फूँदी लगाती लड़कियों के अद्भुत सौंदर्य का निहारते हुए घनराज एक पल के लिए यक्ष का संदेश भूल जाते हैं और मालव भूमि को पानी से तरबतर कर देते हैं। और इसके साथ ही बरसाती कीट पतंग धरती पर जैसे अवतरित हो जाते हैं, वे झूमने लगते हैं। देखते ही देखते सारी धरा पर कीट पतंगो का उत्सव प्रारंभ हो जाता है। झींगुर और मेंढक की ध्वनि पानी बरसने की घोषणा करती है तो बच्चे आनंद से लबरेज़ हो पुकार उठते हैं -
डेंढक माता, डेंढक दे पानी की बौछार दे
म्हारा बीरा की आल सुखे पाल सुखे
गद्दी भूके भों-भों भट्ट।
मालवा में इस आंनदमयी मौसम की अनेक कलाएँ धरती पर अवतरित होती हैं। फुहारें, छोटी-छोटी बूँदे, मूसलाधार और कभी रुक-रुक के बरसते बादल सावन को विविधता प्रदान करते हैं और इसी विविधता के दिग्दर्शन जब दिन में कई बार होते हैं तो प्रेम वियोगी के मन की दशा ठीक नहीं रहती, यथा-
सावण में आया नहीं, तीजाँ लागी मेख ।
सुदंर दन गण-गण थगी, दाड़ नहीं दिन रेख।
अतः सावन का आनंद तो तब है जब प्रिेयतम संग हो अन्यथा हर मौसम निरस होता है, किन्तु कारणवश प्रियतम यदि साथ न होतो विरहणी की आंखो से अश्रुधाराएँ बहने लगती हैं, तथा हेमन्त विरहाग्नि को सौ गुना अधिक बढ़ा देता है। अतः प्रियतम से निवेदन कर रही है कि वर्षा ऋतु में आप घर ही रहना, क्योंकि सावन में बिजली चमकेगी तथा मेघ गर्जना करेंगे, तब आपके बिना रहना अत्यन्त कष्टदायी होगा। उदाहरण है -
ओ पिया अब के चोमासे घर रे वो, घरे रे वो बाई जी का वीर
म्हारा हरिया बागाँ का केवड़ा, सायब जावाँनी देवाँजी म्हारा राज
म्हारा काल बादला की बिजली, सोवानी देव जी म्हारा राज
ओ पिया जाओ तो रादूँ लापसी रे वो तो छाटूँ मोती चूर ......
वैसे हर माह का अपना महत्त्व होता है, किन्तु मालवी लोकगीतों में जितना चित्रण सावन एवं फाल्गुन का हुआ है उतना अन्य किसी माह का नहीं। यद्यपि दीपावली पर हीड़ आदि लोक काव्य गाये जाते हैं किन्तु उनकी तुलना सावन से कहाँ? सावन में तो तरु-तरु रसमय हो जाते हैं।
आसमान में मृग से चौकड़ी भरते कजरारे बादल, शीतल हवा, उफनते जल स्रोत, मिट्टी की सौंधी सुगंध, ठिठुरते पेड़ को देख कर मालवा की नव विवाहिताओं का हृदय नैहर के लिए मचल उठता है और उनके चंद्रमुख से स्वर लहरी फूट पड़ती है-
राखी दिवासो आयो, लेवा आवो म्हारा वीराजी
हूँ कैसे आऊँ बई, सिपरा नदी हुई गई पुर
सिपरा के कपड़ा चढ़वा म्हारा बीराजी, हूँ चकरी भंवर भेजूँ
खेलता खेलता आव म्हारा बीराजी।
सावन माह का सौंदर्य ही अद्भुत होता है इसमें मन से सहज ही उद्गार फूट पड़ते हैं। चाहे बच्चे, नवयौवना, पतिव्रता कोई भी सावन के मौसम से प्रभावित हुए नहीं रहता फिर कवि हृदय की तो बात ही क्या?
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