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सामयिक दोहे – 002 – सुशील यादव

1.
घर की देखो दुर्दशा, जंगल तक विस्तार।
क्या काटें क्या बो सकें, हक़ में क्या सरकार॥
2.
कितने दिन की त्रासदी, कितने दिन का त्राण।
प्रभु लीला को देखते, हलक़ रखे हैं प्राण॥
3.
मन की होती दुर्दशा, मन ही करता ठीक।
मन आगे फीके सभी, निर्मित मनुज  प्रतीक
4.
उफ़ ये कितनी तेज़ है, जीवन की रफ़्तार।
चलना धीमे सीख लो, दो धारी तलवार॥
5.
पटरी से उतरी हुई, लगती उनकी रेल।
खेला-खेला सब करें, कौन समझता खेल॥
6.
सब की अपनी हैसियत, है सब की औक़ात।
देख भाल कर जानिए, मतदाता की जात॥
7.
ढोर मरे तो खाल से, बन जाता है ढोल।
मर के जी भर बज सके, तुझे हुनर है बोल॥
8.
मास्क जो पहने नहीं, ना दूरी अपनाय।
मनुज वही तो सिरफिरा, सबके काल बुलाय॥ 
9.
कहीं सदी का जब कभी, लिखना हो इतिहास।
लोग करोना से मरे, बात रहेगी ख़ास॥
10.
वे जो बैठे भूल के, गुज़रा कहीं अतीत।
कोरस वे ही गा रहे, आज करोना गीत॥
11.
धीरे धीरे मर रहा, भीतर बचा विवेक।
कई स्वजन की मौत ने, छील दिया दिल एक॥
12.
जाते-जाते कह गया, प्राण वायु की चाह।
जैसे हम रुख़सत हुए, होता कौन तबाह॥ 
13.
अपने बस में है नहीं, बस में करना आज।
कहाँ हुई है ख़ामियाँ, चिन्तन करे समाज॥
14.
इन लाशों के ढेर को, कहाँ लगाएँ आग।
प्राण वायु की चाह में, करके दौड़म भाग॥

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