साँझी रोटी
काव्य साहित्य | कविता मधुश्री15 Feb 2021 (अंक: 175, द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)
ग़रीब की थाली में
कोई संभ्रांत रोटी
साझा कर ले
पल भर को उसकी
छाती फूल जाती है
संस्कृति, सभ्यता की
स्वधर्म, परधर्म की
स्पृष्य व अस्पृश्य की
देखते ही देखते
सीमायें टूट जाती है
काश ये दौर बार बार
यूँ ही चला करता
कुछ पल ग़रीब की
आँखों की चमक
बढ़ जाती है
ये करिश्मा रोटी का है
या है ये संवेदना
दीवारे ऊँची
रेत के टीलों सी
ढह जाती हैं
रोटी तो रोटी है
ग़रीबी या अमीरी की
गंध सौहार्द की
क्यों स्वार्थ में
बँट जाती है?
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