अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

साड़ी

अपनी माँ को एक साड़ी भी न दे पाने के मलाल के कारण आज रमेश शहर के सबसे बड़ी साड़ी की दुकान में था और साड़ी के रंग और डिज़ाईन के चुनाव को लेकर उधेड़-बुन की स्थिति में था। दुाकनदार ने प्रिंटेड साड़ी, ज़री वाली साड़ी की एक दर्जन वेरायटी की साड़ियाँ रमेश के समाने रखकर कहा, "इससे ज़्यादा आकर्षक और मनमोहर साड़ियाँ आपको इस शहर की किसी भी दुकान में नहीं मिलेंगी।" 

रमेश की आँखें लगातार डिस्पले में लगी साड़ियों का मुआयना कर रहीं थीं। दुकानदार के साथ-साथ उनका स्टाफ़ भी बड़ी उत्सुकता से रमेश की तरफ़ देख रहे थे क्योंकि एक ही ग्राहक के पीछे एक घंटा दिया गया था।

"आप इस साड़ी की क़ीमत बता दें और अगर गुंजाइश हो तो क़ीमत थोड़ी कम लगा दें," हरी ज़रीदार साड़ी हाथ में लेकर रमेश ने कहा तो दुकानदार के साथ-साथ स्टॉफ़ ने भी चैन की साँस ली।

साड़ी ख़रीदकर रमेश दुकान की सीढ़ी तक ही आया होगा कि वापस लौटकर दुकानदार से कहा, "वो गुलाबी वाली साड़ी अत्यधिक सुन्दर है।" रमेश को स्मरण हो आया कि उसकी बड़ी माँ ने गुलाबी रंग की साड़ी के कारण ही माँ को नीचा दिखाया था।

गुलाबी रंग की साड़ी लेकर रमेश सड़क तक आकर फिर लौटकर दुकान गया और कहा, "क्षमा करें, लाल ज़रीदार काश्मीरी साड़ी मेरी अंतिम पसंद है, और माँ की भी।"

" सबको रतौंधी होती है, इनको दिनौंधी हो गयी है।" स्टाफ़ के द्वारा फुसफसा कर किए गए कमेन्ट ने रमेश को थोड़ा क्रोधित किया मगर उसने नज़रअंदाज़ कर दिया।

दो दिन बाद रमेश के हाथ में लाल साड़ी देखकर दुकानदार ने चश्मा उतारकर अपना सिर पीटा तो स्टाफ़ ने ’नो एक्सचेंज, नो रिटर्न’ के टैग वाला बोर्ड रमेश की आँखों के सामने लहरा दिया।

"भले ही इस साड़ी को बदलकर दूसरी साड़ी न दें या इसके पैसे वापस न करें, लेकिन अब इस साड़ी की आवश्यकता घर में नहीं है।"

अबकी बार दुकानदार ने ’नो एक्सचेंज, नो रिटर्न’ वाला बोर्ड रमेश के सामने लहराया तो रमेश की आँखों से कुछ अश्रु-बूँद लुढ़क गए, उसने दबी हुई आवाज़ में कहा, "मेरे पिताजी का स्वर्गवास हो गया है।" इससे पहले कि दुकानदार उसको रोक पाता, रमेश दौड़कर सड़क तक आ गया। 

अगले दिन दुकानदार ने रमेश के घर तीन सफ़ेद साड़ियाँ भिजवा दीं।

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

105 नम्बर
|

‘105’! इस कॉलोनी में सब्ज़ी बेचते…

अँगूठे की छाप
|

सुबह छोटी बहन का फ़ोन आया। परेशान थी। घण्टा-भर…

अँधेरा
|

डॉक्टर की पर्ची दुकानदार को थमा कर भी चच्ची…

अंजुम जी
|

अवसाद कब किसे, क्यों, किस वज़ह से अपना शिकार…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कहानी

कविता-ताँका

कविता - हाइकु

लघुकथा

सांस्कृतिक कथा

कविता

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं