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सबको सन्मति दे भगवान

प्रजातन्त्र में सन्मति ढूँढ़ने लायक़ चीज़ होती है।

डार्विन ने बतलाया था, एक आदमी की खोपड़ी दूसरे से बिलकुल भिन्न होती है। वे आगे के अनुसन्धान में हाथ-पैर मारते रह गए उन्हें इस सब्जेक्ट को सबित करने के लिए मॉडल का अभाव लगा। वे तब के दिन थे जब प्रजातन्त्र को कोई उधर जानता नहीं था।

तब राजतन्त्र में राजा अपनी हांकता था। उसे किसी की गरज करने की बाध्यता नहीं थी।

पहले ज़माने की खोपड़ी में कुछ अपवाद को छोड़ के कहें, तो ज़्यादातर में भूसा भरे होने का अनुमान लगता है। वे लोग ज्यादा मीन-मेखू नहीं थे। जो दिया सो खा लिया, जो मिला पहन लिया। 
वैसे ज़माने में बड़ी बात ये थी कि किसी की महत्वाकांक्षा के दीपक में केवल टिमटिमाने लायक़ तेल पाया जाता था। बेटा... इससे ज़्यादा जले तो जिंदगी छोटी रह जायेगी...! वे लोग तब भी मज़े में थे।

आज माहौल भिन्न है। 

अपने लोक में, लोक तन्त्र है। 

इस तन्त्र की ख़ासियत ये है कि हर बात की आजादी है। 

यूँ कहो, आज़ादी का भरपूर खुला माहौल है। फ़र्ज़ करें, किसी सागर किनारे 'बीच' में आप बीचों-बीच, सपरिवार फँसे हैं, अनुमान कर सकते हैं, आपके सामने, कितनी अजीब दुविधा, पेशो-पेश की स्थिति है।

अपने लोक में इस बोलने की आज़ादी ने, बहुत बड़बोलों को, इन दिनों, टकसाल में ढलने वाले रेज़गारी के सिक्कों की तरह ढाल दिया। आप इन्हें खोटे सिक्के होने की तर्ज़ में जानते तो हैं मगर चलन से बाहर कर नहीं पा रहे हैं।

आज के माहौल में आप, चार लोगों के बीच चौपाल में बैठ जाइये, ट्रेन में सफ़र कीजिये दफ़्तर में घूम आइये, लोकल बस्ती, कॉलोनी में घूमिये, सब जगह मति-भिन्नता का माहौल मिलेगा। ज़्यादातर विषय राजनीति प्रेरित मिलेंगे।

नेता सबके अपने-अपने हैं। प्रजातन्त्र में समाजवाद है, जाति है, धर्म है, अगड़ा-पिछड़ा है, अलग झंडे, अलग टोपियाँ हैं, यानी किसी भी टॉपिक को खोल लीजिये, सबके अपने-अपने बहस करने के मुद्दे हैं। सबका आत्मसम्मान है। 

सबको ठेस लगने के अकारण, कारण मौजूद हैं।

ये मुद्दे, देश में दिवाली, ईद, क्रिसमस होली को अपने तरीक़े से मनने-मनाने नहीं देते।

कुछ लोगों का कांफ़ीडेंस लेवल इतना है होता है कि उतरने का नाम नहीं लेता। इन पर अपना बस चले तो, ग़ैर-इरादतन हत्या जैसा आरोप सिद्ध करने की कुलबुलाहट होती है। मसलन, ये आरोप लगभग हत्या के होते है मगर ग़ैर-इरादतन जोड़कर, उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा को आँच न आये इसका ख़्याल रखा जाता है। ये कांफीडेंस वाले लोग इतिहास के गहन जानकार, प्रबुद्ध नेता, बड़ा डॉक्टर, इकनॉमिस्ट, स्पेस के मर्मज्ञ और साहित्य को घोल कर पिए हुए लोग होने का दम भरते हैं। आपने, ज्ञान-मर्मज्ञ किसी एक कटे हुए नीबू को निचोड़ने के लिए उठाया नहीं, कि बस एक टुकड़े से इतनी खटास भर जायेगी कि आप नीबुओं से तौबा करने की सोचने लगेंगे।

ये लोग गाँव के पंसारी से लेकर, ट्रंप यानी यूएसए वाले तक की सारी जानकारी दावे और सबूत के साथ परस देते हैं।

अपनी पार्टी के झंडे के साथ चिपकने की इनकी आदत ने इन्हें मजबूर कर रखा है; तभी तो ये पार्टी के किसी भी निर्णय को शिरोधार्य-स्वीकार्य की गति में लेते हैं।

आप एक श्रोता की हैसियत से अंदाजा लगायें, किसी बंदी को एक देश भक्त कहेगा दूसरा बोलेगा देश-द्रोही है। उसे बचाना मानों देश को सालों पीछे धकेलने का काम हुआ समझो।

एक ताल ठोकेगा! जनाब! देखते रहिये परिणाम आने में ज़्यादा दिन नहीं लगने वाले।

सारे कारखाने ठप्प हैं। मज़दूरों को काम नहीं है। घर में दो जून रोटी के लाले पड़े हैं।

लगता है, मई दिवस के कर्त्ता-धर्ता, पार्टी के साथ घुल-मिल गए हैं। लाल-सलाम कहने वाले लीडरान अब दुआ-सलाम के क़ाबिल नहीं रह गए। 

अपने हक़ की लड़ाई हमें ख़ुद लड़नी पड़ेगी...!

ऐसे तैश वाले सीन अब आम जगहों पर आम है।

इन लोगों को बुद्धि मिले, आओ इनके लिए दुआ करें "सबको सन्मति दे भगवान"!

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