सच भी कभी झूठ था
काव्य साहित्य | कविता राहुलदेव गौतम1 Jun 2019
यह तुम्हारा और मेरा,
बिखराव भी एक सच था।
जो मैं नहीं जान पाया था,
तुम रुके थे,
लेकिन तुम्हारा सर्मपण नहीं।
आज मुझे एहसास हो चला है,
यह ज़िन्दगी अँधेरों का बिखराव था,
और तुम चिराग की भाँति समर्पित,
उजाले की ओर।
करते थे हम पगडंडियों में,
ज़माने भर की शिकायतें।
तुम अधूरे थे मगर,
मेरे लिए कारवां की तरह थे।
तुमने मुझे कितना तराशा था,
लेकिन तुमने कोई चिन्ह नहीं छोड़ा था,
अपने नर्म हथेलियों का।
तुम जब भी आये ख़ामोशी में,
एक उलझन की तरह।
जिसका सही और ग़लत का फ़ासला भी,
न कर सका था।
तुम सोच में एकान्त की तरह थे,
जैसे कहीं दूर दीये की लौ,
जो साफ़-साफ़ महसूस होते थे।
फिर भी मैं नहीं मानता था,
कि तुम चाँद की तरह हो,
जिसे सही आकार नहीं दिया जा सकता था,
लेकिन तुम पूर्ण थे।
मेरे दुःखों का परिक्रमण,
तुम्हारे आधे स्वरूप से बेख़बर था।
आज जीवन का एक पक्ष,
गुज़र चला है।
और तुम सम्पूर्ण की भाँति,
मुझसे बहुत दूर खड़े हो।
मैं जान ही नहीं पाया था,
मैं अपने जीवन का कृष्ण पक्ष,
सहमा-सहमा गुज़ार रहा था।
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