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सद्गति

आशा को तीसरी लड़की हुई थी। सुनकर उसे कोई ख़ुशी नहीं हुई, वो जानती थी घर में कितना क्लेश होगा। वही हुआ भी। सुरेश को लड़का चाहिए था किसी भी क़ीमत पर। वो अक़्सर चीख़-चीख़ कर कहता था, "मरूँगा तो श्मशान किसके कंधे पर जाऊँगा? कौन मुखाग्नि देगा मुझे? अगर मैं अपने बेटे के कंधे पर नहीं गया तो मेरी आत्मा को कभी शांति नहीं मिलेगी"। ख़ैर चार लड़कियों के बाद आशा ने एक बेटे को जन्म दिया। अब सुरेश को तसल्ली थी कि किराए के कंधों का इंतज़ाम नहीं करना पड़ेगा। कुछ पंद्रह वर्ष बाद कोरोना नाम की महामारी फैल गई। जिसे हुआ उसकी शक्ल भी घरवालों को देखनी नसीब नहीं हुई। बदक़िस्मती से सुरेश और उसका परिवार इस महामारी की चपेट में आ गए। उसकी तबीयत बिगड़ी तो घरवालों ने हॉस्पिटल में भर्ती करवा दिया लेकिन वो ठीक नहीं हुआ और उसकी मृत्यु हो गई। बेटा क्योंकि ख़ुद कोरोना से पीड़ित था तो एक हफ़्ते सुरेश के शव को मोर्चरी में रखना पड़ा। जब बेटा उसका शव लेने गया तो हॉस्पिटल प्रशासन ने उसका शरीर घर ले जाने से मना कर दिया और एक निश्चित समय पर पास के श्मशान घाट पहुँचने को कहा। बेटे के पास कोई विकल्प नहीं था वो नियत समय पर श्मशान पहुँच गया। हॉस्पिटल के कर्मचारी स्ट्रेचर पर पीपीई किट में लपेटकर सुरेश का शरीर लेकर श्मशान पहुँचे; सिर्फ़ दिलासे के लिए उसका चेहरा खोलकर उसके बेटे को दिखा दिया। श्मशान के दरवाज़े से चिता तक भी कंधा देने की इजाज़त नहीं दी, ना ही आख़िरी बार पिता के चरण स्पर्श करने की। आशा ने घर से चलते समय बेटे को एक तुलसी का पत्ता और छोटी सी शीशी में गंगाजल दे दिया था; बड़ी मुश्किल से बिना पिता को छुए वही उसके होंठों पर रख कर श्मशान के कर्मचारियों की मदद से मुखाग्नि दे दी। ना मंत्र पढ़ने वाला कोई पंडित था ना कोई रिश्तेदार। ना स्नान करवाने की ज़रूरत पड़ी ना चार कंधों की। काश सुरेश ने जितनी शिद्दत से बेटा माँगा था अपने लिए सद्गति माँगता तो शायद अच्छी अवस्था में उत्तम लोक को प्राप्त होता। कौन कह सकता है कि उसकी आत्मा को शांति मिली या नहीं।

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टिप्पणियाँ

Krishan Saxena 2021/06/01 08:31 PM

The writer should be congratulated for bringing the indian mythology and the nature together in such a beautiful way. God bless you Geetika for penning such a beautiful laghu katha.

पाण्डेय सरिता 2021/06/01 05:30 PM

यही विडम्बना है चाहत की

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