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सह-अनुभूति एवं काव्यशिल्प – रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

पु्स्तक : सह-अनुभूति एवं काव्यशिल्प
लेखक : रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
प्रकाशक : अयन प्रकाशन 1/20, महरौली, नई दिल्ली 2020
पृष्ठ : 149
मूल्य : 300 रु. 
समीक्षक – रमेश कुमार सोनी, बसना [छत्तीसगढ़]

शब्दकोष में बैठे हुए शब्द उदास होते हैं जब कभी ये किसी रचनाकार का स्नेहिल आमन्त्रण पाते हैं तो ये ख़ुशी से नृत्य करते हुए पंक्तियों, वाक्यों में भावों के साथ पिरो दिए जाते हैं जो हर पाठक को उसके रचानाकार के जीवंत पलों के दृश्यों से रूबरू करा देते हैं; दूसरे शब्दों में ये रचनाकार और पाठकों के मध्य में एक वार्ताकार का कार्य करते हैं। इन भावों को शब्दों की रचना में ढालकर परोसने की कला में एक कवि निपुण होता है, यथासमय कवियों की मनोदशा भिन्न होती है, उनके सोचने–विचारने की अलग प्रक्रिया होती है; फिर हरेक का मन भिन्न तरीक़े से उस अनुभूत वक़्त को लिखता है इसे हम कविता के रूप में रसास्वादन करते हैं। विधाओं की अपनी दुनिया होती है फिर भी एक बड़ा अंतर इनमें पाया जाता है और यही कारण है की किसी निश्चित समय में एक ही दृश्य को दो या अधिक रचनाकार भिन्न तरीक़े से अभिव्यक्त करते हैं। इन दिनों छंदमुक्त कविताओं का वक़्त है जिसे नयी कविताएँ कहा जाता है, मेरा मानना है कि – कविताएँ सुबोधगम्य एवं संदेशयुक्त होनी चाहिएँ ताकि कोई पाठक इसके साथ तादात्म्य स्थापित कर सके। कोई सृजक अपने विचारों को इन शब्दों के द्वारा बीजारोपण करता है ताकि ये पठित होकर उर्जावान हो सकें। इनमें कठिन शब्दावलियों का भार पाठक वहन नहीं कर पाता इसलिए आज पाठक वर्ग इससे लगातार दूर होते जा रहे हैं।

कविता लिखना और कविताओं के साथ जीते हुए सृजन करना भिन्न विषय होते हैं। इससे अनभिज्ञ लोग इन दिनों अपनी पीठ सोशल मीडिया में थपथपाते हुए देखे जा सकते हैं। लेकिन इनसे भिन्न है रामेश्वर काम्बोज जी की दुनिया क्योंकि आपने अपने मार्गदर्शन से अनेकों रचनाकारों की लेखनी को धार दी है, इसे आपकी कृति सह-अनुभूति एवं काव्यशिल्प में सहज ही महसूस किया जा सकता है। आपके अनुसार कोई सृजक इन निर्जीव शब्दों की प्राण-प्रतिष्ठा करता है जिनमें से कुछ के काव्य वैभव चमत्कृत करते हैं। इस पुस्तक के प्रथम खंड का आरम्भ सप्तक कवियों के प्रमुख हस्ताक्षर नरेश मेहता के पौराणिक गीतिनाट्य संशय की एक रात पर आपके आकाशवाणी में दिए वक्तव्य पर है जिसमें आपके अनुसार – राम के रावण से युद्ध से पूर्व का संशय का दृश्य है जो मानवीय मूल्यों की स्थापना के लिए युद्ध करने को उद्यत हैं जहाँ सीता साधारण जन की अपहृत स्वतंत्रता की प्रतीक है। प्रवाद पर्व के लोकपक्ष में आपने धोबी के राम के प्रति टिप्पणी को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बताया और कहा कि - इसपर अंकुश लगाकर शासन नहीं किया जा सकता क्योंकि राज्य और न्याय एक दूसरे के पूरक हैं। कोई भी व्यक्ति लोकतंत्र की नींव होता है जबकि मानवता उसके शिखर में होती है, लोकमर्यादा की स्थापना के लिए ही राम ने सीता का त्याग किया था। भक्ति परंपरा के सूरदास की कृति सूरसागर में वात्सल्य भाव का सौन्दर्य है, इसे आपने सर्व शुद्ध भाव माना है। इसमें बालकृष्ण का चातुर्य मुग्ध करने वाला है, मुरली शब्दब्रह्म का प्रतीक है एवं ब्रज में मानव एवं प्रकृति का समावेश है। इसमें कृष्ण का कहना – उधौ मोहि ब्रज बिसरत नाहीं और गोपियों की भक्ति भाव के साथ एक माँ का सर्वेश्वर को बाँध लेने के दृश्य की सटीक टिप्पणी लुभाती है। गिरधर की कुंडलियों की जीवन्तता का एकमात्र कारण आपने उसके लोक जीवन की अतरंगता को बताते हुए कहा कि – शिलालेख किसी को जीवित नहीं रख सकता यह शक्ति केवल जनमानस को मिली हुई है। दूसरा सप्तक के कवि भवानी प्रसाद मिश्र को आप आधुनिक कबीर की संज्ञा देते हुए लिखते हैं कि – आपने कविता को कभी भी अपने अनुभव की अभिव्यक्ति मात्र नहीं माना, कविता को जीवन से अलग नहीं किया जा सकता। आपने फक्कड़पन से हाथ मिलाकर नए भाषायी संस्कार प्रदान किए हैं।

दूसरे खंड में मंजू मिश्रा का कविता संग्रह ‘जिंदगी यूँ तो’ को आप संवेदना से परिपूर्ण काव्य कहते हुए लिखते हैं कि ये सामाजिक चिंता और जीने की ललक से भरी हुई हैं। अनीता ललित की कृति ‘बूँद – बूँद लम्हे’ में आपने कहा कि -यह अनुभूति, कल्पना और भाषा का मणिकांचन प्रयोग है जो पाठकों को रससिक्त करने का सामर्थ्य रखती है। आपकी क्षणिकाएँ अर्थ गाम्भीर्य सँजोए हुए हैं तथा जीवन के विविध बिम्बों का का संयोजन आपके हर अनुभव को सरस बना देता है। डॉ.कविता भट्ट की कविताओं में आपको पहाड़ का सौदर्य और वहाँ की प्राकृतिक संपदाओं के अति दोहन से उपजी समस्याएँ कचोटती हैं, इन बहुआयामी कविताओं में व्यष्टि से समष्टि तक की भाव कल्पना और चिंतन की यात्रा है, इन सबके केन्द्रीय भाव में प्रेम सन्निहित है। आपके ‘घूँघरी’ काव्य संग्रह में प्रकृति का अद्भुत सौदर्य रचा – बसा हुआ है, फूलदेई का लोकपर्व का चित्रण मोहक है; प्रशासनिक उपेक्षा की शिकार प्रकृति और पहाड़ी औरत की पगडंडियों पर जीवन निर्वाह का दृश्य वृहत्तर अनुभवों को समेटे हुए है। रश्मि शर्मा का काव्य संग्रह – ‘वक़्त की अलगनी पर’ के बारे में आपने लिखा है कि – आपके शब्दकोश में दरिया के पानी से बहते भाव हैं आपकी रचना के नेपथ्य में आपका आत्मसंघर्ष, परिवेश और मनोभाव एक साथ कार्य करते हैं। किशन सरोज का गीत संग्रह – ‘चन्दन वन डूब गया ’ को आपने परिमार्जित भाषा का नव संस्कारों से युक्त गीत संग्रह माना है जिसमें नवीन उद्भावनाओं से इसके शिल्प को सँवारा गया है। हस्तीमल हस्ती के ग़ज़ल संग्रह – क्या कहें किससे कहें? में आप लिखते हैं कि -व्यापक फलकों की ये ग़ज़लें प्रतिगामी शक्तियों पर प्रहार है तथा अभिव्यक्ति और संवेदना का संतुलन इसकी ताक़त है। डॉ. सतीश राज पुष्करणा का काव्य संग्रह – ‘यह मेरा उत्तर है’ में आपने कविताओं की संवेदना, आधुनिक भावबोध और यथार्थ के बहुआयामी अनुभव को मौलिक ढंग से प्रस्तुत माना है जो आस्था, संघर्ष, वैचारिक भेद, मूल्यों का विघटन एवं सुख–दुःख का उत्तर लिए प्रस्तुत हैं। हरेराम समीप का काव्य संग्रह – ‘मैं अयोध्या’ में आपने वक़्त के दफ़्न दर्द का बयान देखा जो जनमानस की हताशा को प्रस्तुत करते हैं। डॉ. स्वामी श्यामानंद सरस्वती ‘रौशन’ का – ‘मैं कितने जीवन जिया!‘, त्रिवेणी संग्रह में आपने उनके विभिन्न भावानुभूतियों का इन्द्रधनुष देखा, यह नवचंडिका छंद पर आधारित है जो भाषा और अलंकार पर उत्कृष्टता का बेजोड़ नमूना है। डॉ. शैलजा सक्सेना का काव्य संग्रह – ’क्या तुमको भी ऐसा लगा?’ में आपने पाया की ये आँसुओं से भीगी, मुस्कान से खिली, धूप से धुली तो कहीं ये जीवन के खुरदुरे यथार्थ से जूझती कविताएँ हैं। कीर्ति केसर के काव्य संग्रह- ‘अस्तित्व नये मोड़ पर’ के चार खण्डों में – अनुभूति, विचार, परिवेशऔर बोध हैं जो मन के प्रसुप्त कोने से प्रकृति के अनंत और अनुरागमय क्षितिज तक डोर बाँधे हुए हैं। यह संग्रह अनुभव के ताप से पिघले मानस की अनुकृति है। राजेश जोशी का कविता संग्रह – ‘दो पंक्तिओं के बीच’ में आपने पाया कि इसमें अनकहा ज़्यादा है तथा सहजता इनकी भाषा का सौदर्य है; जन सामान्य की संवेदना की पक्षधरता स्पष्ट परिलक्षित होती है। डॉ. शील कौशिक का काव्य संग्रह – ‘खिड़की से झाँकते ही’ एक सुखद सौन्दर्यबोध की कविताओं का संग्रह है जिसमें सर्जना की ऊँचाई है और प्रभावशाली नवीन अभिव्यक्ति है। सुभाष नीरव द्वारा अनूदित काव्य संग्रह – ‘हवा में लिखी इबारत’ [लेखक दिओल परमजीत] को आपने पंजाबी से हिंदी में कुशलतापूर्वक अनूदित कहा जिसमें ख़ुद की अंतर्यात्रा है। इसके तीसरे खंड में हरियाणवी लोकगीतों की संवेदनाओं का प्रसंग है तथा अंत में किशन सरोज जी के साथ साक्षात्कार हैं।

यह एक शोध संग्रह है जिसके द्वारा कोई भी शोधार्थी इनमें उल्लिखित रचनाकारों की शैली, भाषा, विचार एवं उनका समाज से सरोकार जैसे विषयों से अवगत हो सकता है। मेरी सलाह है कि नवलेखक इसे पढ़ें - समझें और लेखन की कला में महारत हासिल करें क्योंकि यह लेखन एक लंबे अंतराल को समेटे हुए है। सुंदर कलेवर के साथ काम्बोज जी को एक और पठनीय संग्रह की शुभकामनाएँ । 

 रमेश कुमार सोनी
जे.पी.रोड, एच.पी.गैस के सामने – बसना, ज़िला – महासमुंद
[छत्तीसगढ़] पिन – 493 554

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