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सह-अनुभूति

गाँव के सबसे नामी ख़ानदान की दो औरतें आज आमने सामने खड़ी थीं।

शहर के बड़े-बड़े डॉक्टरों से लेकर गाँव के पंडित ओझा तक सब जतन किए थे लतिका देवी ने, लेकिन बहू आस से न हुई थी। डॉक्टर के अनुसार कोई कमी न थी, दोनों पति-पत्नी में लेकिन दस बरस बीतने पर भी विधना ने गोद न भरी थी।

आज लतिका देवी के हाथ में गोलियों की एक छोटी सी शीशी थी और आँखों में अनेक प्रश्न।

बहू नज़र झुकाए मौन खड़ी अँगूठे से ज़मीन कुरेद रही थी और उस दिन को याद कर रही थी  जब वह ब्याह कर आई थी। सभी नाते-रिश्तेदारों ने उसके भाग्य को सराहा था। श्वसुर चौधरी दिव्यप्रताप  के सामने सारा गाँव सिर झुका कर चलता था।  दूर-दूर तक उनका रुआब था। उसने भी क़िस्से सुने थे उनके रंगीन मिज़ाज के, और यह भी कि  पिता की साख को उनके पुत्र रतन ने बना कर रखा था, लेकिन उसने कही-सुनी बातों पर यक़ीन न किया था।  विवाह का जश्न समाप्त कर जब रत्न ने कमरे में प्रवेश किया था, वह होश में न था। सच को और क्या प्रमाण चाहिए होता।

वह चुप रह गयी थी, और सब देखती-सुनती, रूह तक टीसती, आज दस बरस बाद भी चुपचाप ही थी। बस एक चूक हो गई कि, न जाने क्यों जब आज लतिका देवी उससे बाम माँगने आईं तो उसने, उन्हें दराज़ में से ले लेने को कह दिया था।

मौन का भार जब और न सहा गया तो लतिका देवी ने रुँधे गले से पूछा, "क्यों बेटी?"

"माँ मैं नहीं चाहती कि यह रंगीनियाँ एक और पीढ़ी तक जारी रहें . . ."

लतिका देवी ने बढ़कर उसे गले से लगा लिया और शीशी उसके हाथ पर रख उसकी मुट्ठी बन्द करते हुए बोलीं सँभालकर रखा करो।

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