अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

सहनशक्ति

व्यापार में घाटे के दौरान पिता की मृत्यु के पश्चात भाई ने घर की आर्थिक स्थिति सँभाली। किशोरी उम्र की नीलिमा तब ज़िंदगी के संघर्ष से प्रथम बार रूबरू हुई। आर्थिक संघर्ष से दो-चार होते हुए जब उसकी शादी बहुत संपन्न परिवार में हुई तो उसकी ख़ुशी का ठिकाना न रहा।

"कैसे भूखे-नंगे समधियों से पाला पड़ा है। दहेज़ में तो देखो, इन्होंने क्या चिथड़े दिए हैं।" शादी के पश्चात प्रथम दिन सबके सामने सास के ये ताने सुनकर नीलिमा अपमान का विषैला घूंट पीकर रह गई। 

माँ के आँचल में बँधे पति ने उसका कभी पक्ष नहीं लिया। नीलिमा ने सोचा, "पति के प्रति समर्पण, असीम प्यार और उसके संघर्षों में कंधे से कंधा मिलाकर चलने पर वह उसके हृदय में स्थाई जगह बना लेगी।" परन्तु वह ग़लत थी। हार न मानकर छोटी ही सही परंतु नौकरी करके आत्मनिर्भर होकर बच्चों की परवरिश जी-जान से करने लगी। ससुराल व पति की प्रताड़ना व अपमान सहते हुए भी अदम्य साहस का परिचय देते हुए उसने अपने बच्चों को सफलता के ऊँचे मुक़ाम तक पहुँचाया। जीवन के कंटकाकीर्ण मार्ग पर चलते हुए नीलिमा कब भयानक बीमारी के आग़ोश में चली गई। उसे पता ही न चला। यह उसकी नियति थी या भाग्य की विडंबना। वह कभी समझ न पाई। जीवन के अंतिम दिनों में भी उसका पति उसे अपनी असफलताओं, कष्टों, मुसीबतों का केंद्र मानकर अपमानित करने से नहीं चूका। अंततः मौत ने नीलिमा को अपनी गोद में सुला कर उसके अनंत दुखों,कष्टों एवं संघर्षों का अंत किया।
 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

105 नम्बर
|

‘105’! इस कॉलोनी में सब्ज़ी बेचते…

अँगूठे की छाप
|

सुबह छोटी बहन का फ़ोन आया। परेशान थी। घण्टा-भर…

अँधेरा
|

डॉक्टर की पर्ची दुकानदार को थमा कर भी चच्ची…

अंजुम जी
|

अवसाद कब किसे, क्यों, किस वज़ह से अपना शिकार…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

लघुकथा

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं