अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

समाज और मीडिया में साहित्य का स्थान

साहित्य एक ऐसा नियोजन है ऐसा माध्यम, ऐसी संप्रेरणा है जिसके पीछे किसी एक वर्ग-जाति-धर्म-समाज-समूह-संप्रदाय-देश के बजाय समस्त विश्व-समाज के कल्याण की भावना सन्निहित हो। साहित्यकार के पास भरपूर कल्पनाशीलता और विश्वदृष्टि होती है। साहित्य समाज रूपी शरीर की आत्मा है। साहित्य अजर-अमर है। महान विद्वान योननागोची के अनुसार समाज नष्ट हो सकता है, राष्ट्र भी नष्ट हो सकता है, किन्तु साहित्य का नाश कभी नहीं हो सकता।

साहित्य हमारे सोचने के तरीक़े को बदल देता है। साहित्य न केवल हमारे लिए हमारी दुनिया का प्रतिनिधित्व करता है बल्कि यह हमें ऐसे तरीक़े भी दिखाता है जिससे हम दुनिया को बदल सकते हैं या उन परिवर्तनों के अनुकूल हो सकते हैं जो पहले से ही हमारी अनुभूति के बिना हो चुके हैं। साहित्य का संज्ञानात्मक आयाम हमें वर्तमान और भविष्य की चुनौतियों से निपटने में मदद करता है, जिस तरह से हम अपने बारे में सोचते हैं, हमारे समाज और जो हमारे समाज से बहिष्कृत या हाशिए पर हैं।

मीडिया का सामान्य अभिप्राय समाचारपत्र, पत्रिकाओं, टेलीविजन, रेडियो, इंटरनेट आदि से लिया जाता है. ये आधुनिक मीडिया के चर्चित और प्रभावशाली रूप हैं, जो सूचनाओं के संग्रहण एवं संप्रेषण का दायित्व बख़ूबी निभाते हैं। लेकिन जिसे हम मीडिया यानी संवादवहन की युक्ति मानते आए हैं, उसकी हदें इससे कहीं अधिक व्यापक और समाज में विभिन्न रूपों में पैठी हुई हैं। पुराने ज़माने के नौटंकी, स्वांग, नाटक सभा से लेकर बैनर, पोस्टर, पंफलेट्स, संभाषण, लोकगायन, विज्ञापन, सेमीनार, चित्रकला आदि मीडिया की प्रचलित परिभाषा से किंचित भिन्न होने के बावजूद उसी के विविध रूप हैं। हर परिवर्तन पहले विचार के रूप में जन्मता है, बाद में साहित्य के माध्यम से लोकचेतना का हिस्सा बनता है। मीडिया उसे जनांदोलन में ढाल देता है, जिनसे वास्तविक परिवर्तन की राह निकलती है। मीडिया का आदिरूप प्रिंट मीडिया यानी पत्रकारिता का है। वैश्विक पत्रकारिता का इतिहास लगभग 59 ईसवी पूर्व रोम से शुरू होता है। वहाँ का तत्कालीन सम्राट जूलियस सीज़र चाहता था कि राज्य की प्रमुख सामाजिक एवं राजनीतिक घटनाओं की जानकारी उसके प्रजाजनों तक भी पहुँचे।

सोशल मीडिया इलेक्ट्रॉनिक संचार का एक रूप है जिसके माध्यम से लोग विचारों, सूचनाओं और अन्य सामग्री को साझा करने के लिए ऑनलाइन समुदाय बनाते हैं। अगर हम दोनों को देखें तो पाएँगे कि उनके बीच एक कड़ी है, एक कड़ी है जो किसी तरह उन्हें एक बैनर के नीचे बाँधती है और वह है सूचना। पुनर्जागरण से लेकर डिजिटलीकरण के युग तक, साहित्य का उद्देश्य किसी न किसी तरह सोशल मीडिया द्वारा लिया जाता है, यानी सूचना फैलाने का उद्देश्य, संचार का उद्देश्य और सबसे महत्वपूर्ण समाज के प्रतिबिंब का कार्य। अपने क़रीब के तमाम संसाधनों का इस्तेमाल अपने लक्ष्य प्राप्ति की दृष्टि से की जाए तो वह भौतिक दूरी काफ़ी क़रीब आ जाती है। हम नागर और ग्रामीण समाज की बेचैनीयत छुपी नहीं है कि हम अपने अंदर की छटपटाहटों, हलचलों को दूसरे समाज, व्यक्ति और संस्कृति तक हस्तांतरित करना चाहते हैं। सोशल मीडिया और उसके चरित्र में जादू है जिसे अनभुव किया जा सकता है। यह इस माध्यम का आकर्षण ही है कि छह साल का बच्चा और अस्सी साल का वृद्ध सब के सब इसका इस्तेमाल कर रहे हैं। हर तकनीकी आविष्कार निरपेक्ष होता है। यानी हर तरह के काम के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है, चाहे वह अच्छा हो या बुरा। इसलिए हर तकनीकी आविष्कार की तरह इसके दुरुपयोग पर हमें ज्यादा आश्चर्य नहीं होना चाहिए।

समाज से साहित्य की दूरी से लोग एक-दूसरे से दूर हो जाते हैं, संचार बाधित होते हैं, और अंततः सामूहिक अलगाव, अमानवीयकरण और सभी सामाजिक संरचना के पतन की प्रक्रिया प्रारम्भ होती है। टेलीविजन, फ़िल्म और रेडियो—जो सामाजिक पतन को बढ़ाने की क्षमता रखते हैं, वास्तव में कलात्मक, बौद्धिक संस्कृति समाज के लिए आवश्यक है।

साहित्य अपने-आप में पूर्ण नहीं है यदि इसे पाठकों द्वारा पढ़ा और समालोचित नहीं किया गया है। और समीक्षा की इस प्रवृत्ति को सोशल मीडिया ने अगले स्तर पर ला दिया है। आजकल लोग सोशल मीडिया के माध्यम से कई लेखकों की पुस्तकों की समीक्षा कर रहे हैं, जिसका अर्थ है कि सोशल मीडिया ने पाठकों की एक विस्तृत शृंखला के लिए पुस्तकों के विभिन्न तत्वों पर चर्चा करने के लिए एक मंच प्रदान किया है जो पहले के समय में अनुपस्थित था। सोशल मीडिया ने साहित्य के प्रसार के लिए एक साहित्यिक मंच प्रदान किया है। एक पुस्तक के उद्देश्य पर चर्चा की जानी चाहिए और उस उद्देश्य को सोशल मीडिया द्वारा सक्रिय रूप से पूरा किया जा रहा है। साहित्य में लोकतंत्र बन रहा है, नई तकनीक के ज़रिये। फ़ेसबुक, ट्विटर पर लिखने वाले लेखक किसी ख़लीफ़ा, किसी मठाधीश से पूछ कर, उससे सहमति स्वीकृति लेकर नहीं लिख रहे हैं। ये नए लेखक प्रयोग कर रहे हैं, ये साहित्य का लोकतंत्र है, जो बन रहा है। हो सकता है कि नए मंचों, नए माध्यमों पर जो आए, वह कच्चा हो, सुघड़ ना हो। पर समय की छलनी में छनकर जो कुछ भी सार्थक है, काम का है, बचा रह जाएगा। फ़ेसबुक मठाधीशों को नागवार गुज़र रहा है। लेखक कह रहा है, पाठक देख रहा है, बीच के मठाधीश इससे नाराज़ हैं।

लाभ की अवधारणा परंपरागत प्रौद्योगिकी का भी अभिन्न हिस्सा थी। मगर नई अवधारणा ने लाभ को अधिकतम मुद्रार्जन के लक्ष्य तक सीमित कर दिया था, जबकि अपने परंपरागत अर्थों में लाभ का प्रत्यय उत्पाद के संपूर्ण सामाजिक-आर्थिक और नैतिक मूल्यों से जन्मता था। लाभवृद्धि की रफ़्तार को बनाए रखने के लिए मीडिया ने साहित्य के साथ अपनी सालों-साल पुरानी जुगलबंदी को किनारे कर, ख़ुद को सूचनाओं के आदान-प्रदान तक सीमित कर दिया।

समाचार-पत्रों की प्रासंगिकता सदैव रही है और भविष्य में भी रहेगी। मीडिया में परिवर्तन युगानुकूल है, जो स्वाभाविक है, लेकिन भाषा की दृष्टि से समाचार-पत्रों में गिरावट देखने को मिल रही है। इसका बड़ा कारण यही लगता है कि आज के परिवेश में समाचार-पत्रों से साहित्य लुप्त हो रहा है, जबकि साहित्य को समृद्ध करने में समाचार-पत्रों की महती भूमिका रही है, परंतु आज समाचार-पत्रों ने ही स्वयं को साहित्य से दूर कर लिया है, जो अच्छा संकेत नहीं है। आज आवश्यकता है कि समाचार-पत्रों में साहित्य का समावेश हो और वे अपनी परंपरा को समृद्ध बनाएँ। वास्तव में पहले के संपादक समाचार-पत्र को साहित्य से दूर नहीं मानते थे, बल्कि त्वरित साहित्य का दर्जा देते थे। अब न उस तरह के संपादक रहे, न समाचार-पत्रों में साहित्य के लिए स्थान। साहित्य मात्र साप्ताहिक छपने वाले सप्लीमेंट्‌स में सिमट गया है। समाचार-पत्रों से साहित्य के लुप्त होने का एक बड़ा कारण यह भी है कि अब समाचार-पत्रों में संपादक का दायित्व ऐसे लोग निभा रहे हैं, जिनका साहित्य से कभी कोई सरोकार नहीं रहा। मुझे याद नहीं पड़ता कि मैंने कब मुंशी प्रेमचंद को पढ़ा या मैंने किसी किताब के पन्ने अभी हाल में पलटे हों, मुझे नहीं पता चलता कि मैंने कब फणीश्वर नाथ रेणु या दिनकर को दोहराया हो, जब दिमाग़ पर ज़ोर डालता हूँ तो पता चलता है किताबों की जगह अब सोशल मीडिया और स्मार्टफोन ने ले ली है। हम सब की बौद्धिकता फ़ेसबुक और व्हाट्सएप से आगे नहीं बढ़ पा रही है। मैंने यह भी पाया है कि किसी ज़माने में हम अख़बार के संपादकीय पढ़ा करते थे। अब नया दौर है, स्मार्टफोन पर ही हम लोग न्यूज़ एप्प से समाचार पढ़ लेते हैं।

लेकिन कुछ प्रश्न बहुत प्रासंगिक हैं जैसे: साहित्य की गुणवत्ता में गिरावट के लिए हम सोशल मीडिया को दोष क्यों देते हैं? हम अपने आप को एक ऐसे स्थान पर क्यों पाते हैं जहाँ हम साहित्य के सुधार के मानकों को बेहतर बनाने के तरीक़ों की खोज करते हैं? हम अपने आप से सवाल क्यों नहीं कर सकते हैं कि हमें साहित्य के सौंदर्यशास्त्र को कैसे समझते हैं, इस पर पुनर्विचार करना चाहिए? क्या आपको नहीं लगता कि सोशल मीडिया और साहित्य को विपरीत दिशा में रखना साहित्य को ग़लत समझना है? क्या साहित्य ही मीडिया नहीं है? क्या साहित्य सोशल मीडिया की तरह संचार का साधन नहीं है? साहित्य की गुणवत्ता कौन तय करता है? क्या लोकतंत्रीकरण ने ख़राब साहित्य को मान्यता दी है? ध्यान स्पैमिंग के लिए सोशल मीडिया को दोष देना कितना उचित है? क्या सोशल मीडिया के विकास ने साहित्य का उपभोग करने वाले लोगों को प्रभावित किया है?

सोशल मीडिया को 'वास्तविक' साहित्य नहीं कहा जा सकता है, लेकिन यह हमें अपने विचारों को व्यक्त करने के लिए उपकरण और मंच प्रदान करता है और यह हम पर निर्भर करता है कि हम इसका उपयोग कैसे करते हैं क्योंकि जर्मनी केंट, अमेरिकी लेखक और पत्रकार, कहते हैं कि यदि आप सोशल मीडिया पर हैं, और आप सीख नहीं रहे हैं, हँस नहीं रहे हैं, प्रेरित नहीं हो रहे हैं या नेटवर्किंग नहीं कर रहे हैं, तो आप इसका ग़लत इस्तेमाल कर रहे हैं। मुझे लगता है कि अब हमें उस रेखा से ऊपर देखना चाहिए जिसके माध्यम से साहित्य का न्याय किया जा रहा है और स्वीकार करना चाहिए कि आधुनिक दुनिया ने हमें क्या दिया है। हमें अपनी निराशा को दूर करने के लिए आशा के शब्दों की आवश्यकता है क्योंकि शब्द और विचार दुनिया को बदल सकते हैं, और सोशल मीडिया इन विचारों के प्रसार के लिए एक अद्भुत उपकरण है। साहित्यकारों का एक वर्ग हमेशा ही पूँजी और प्रौद्योगिकी के अंतहीन विस्तार को मानवीय अस्मिता पर संकट के रूप में देखता है। हिंदी साहित्य और मीडिया के वर्तमान संबंधों के विरुद्ध उठ रही बहसें दरअसल इसी वर्ग के जीवट और संघर्ष चेतना की प्रतीति हैं। साहित्य और आधुनिक मीडिया में एक अंतर यह भी है कि साहित्य मानवीय विवेकीकरण के प्रति निरंतर प्रयासरत रहता है। जबकि पूँजीवाद प्रेरित मीडिया की व्यावसायिक नीति लोगों को अनुगामी बनाने की होती है। मीडिया के नकारात्मक प्रभाव को देखने की बजाय साहित्य व मीडिया के अंतर संबंध को देखने की ज़रूरत है। यह समाज पर निर्भर करता है कि वह मीडिया द्वारा पेश किए जा रहे किस प्रभाव को क़ुबूल करता है।
 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

काव्य नाटक

गीत-नवगीत

कविता

दोहे

लघुकथा

कविता - हाइकु

नाटक

कविता-मुक्तक

वृत्तांत

हाइबुन

पुस्तक समीक्षा

चिन्तन

कविता - क्षणिका

हास्य-व्यंग्य कविता

गीतिका

सामाजिक आलेख

बाल साहित्य कविता

अनूदित कविता

साहित्यिक आलेख

किशोर साहित्य कविता

कहानी

एकांकी

स्मृति लेख

हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी

ग़ज़ल

बाल साहित्य लघुकथा

व्यक्ति चित्र

सिनेमा और साहित्य

किशोर साहित्य नाटक

ललित निबन्ध

विडियो

ऑडियो

उपलब्ध नहीं