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सामाजिक चेतना के अग्रदूत : प्रेमचन्द

संपादक : सुमन कुमार घई
तिथी : ३० सितम्बर, २०१४

धनपतराय श्रीवास्तव जो अपने पाठक वर्ग के बीच प्रेमचन्द के नाम से प्रसिद्ध हुए हैं का जन्म काशी के निकट लमही ग्राम में 31 जुलाई, 1980 को हुआ था। कुछ बीघा ज़मीन और बीस रुपए मासिक वेतन, इतनी-सी आय से प्रेमचन्द के पिता लाला अजायबराय पूरे घर का खर्च चलाते थे। प्रेमचन्द अभी सात वर्ष के ही थे कि माँ चल बसी, पन्द्रह वर्ष के हुए कि प्रेमचन्द का विवाह हो गया और सोलहवां वर्ष भी उनकी आयु के पूरे नहीं हुए कि पिता का स्वर्गवास हो गया। बचपन में ही गृहस्थी की ज़िम्मेदारी उनके कंधों पर आ पड़ी। सौतेली माँ, दो सौतेले भाई, पत्नी और स्वयं-पाँच प्राणियों के भरण-पोषण की समस्या और अपनी पढ़ाई-यह सब कुछ उन्हें निभाना था। सौतेली माँ का व्यवहार, बचपन में शादी, पंडे-पुरोहितों का निर्मम कर्मकांड, किसानों और क्लर्कों का दुःखी जीवन यह सब प्रेमचन्द ने सोलह साल की अवस्था में ही देख लिया था। इसलिए उनके ये कटु अनुभव एक सत्य बनकर उनके कथा-साहित्य में झलक उठे थे। गाँव से पाँच मील चलकर शहर के स्कूल में जाकर पढ़ना, टयूशन पढ़ाना, फिर घर आकर कुप्पी की रोशनी में पढ़ना, इस प्रकार प्रेमचन्द ने हाईस्कूल किया था, मेहनत से चूर और बीमार होकर। गणित के कारण इंटर में दो बार फेल होना पड़ा और तब पास हुए जब इंटर में गणित ऐच्छिक विषय बना दिया गया, फिर तो उन्होंने बी.ए. भी कर लिया। किंतु ‘‘प्रेमचन्द को जहाँ वास्तविक शिक्षा मिली वे विश्वविद्यालय दूसरे ही थे। उनके अध्यापक लमही के किसान, बनारस के महाजन और किताबों के नोट्स बिकवाने वाले बुकसेलर थे। उनकी टेस्टबुकें वे सैंकड़ों उपन्यास थे जो उन्होंने लाइब्रेरियों, बुकसेलरों की दुकानों और तमाखूवाले दोस्त के घर पर पढ़े थे। भले ही वे गणित पढ़ने योग्य न रहे हो, वे हिन्दुस्तानी समाज का बीजगणित अच्छी तरह समझ गए थे और अपने उपन्यासों में बहुत-से प्रश्न हल करने की तैयारी भी कर चुके थे।’1 कहानियाँ और उपन्यास पढ़ने का चस्का उन्हें बहुत पहले लग चुका था। ये उपन्यास उनके दुःखी बचपन के साथी थे, जो उन्हें ढाढ़स बँधाते थे और कुछ देर के लिए वास्तविक जीवन से दूर ले जाते थे। इन उपन्यासों ने उनकी कल्पनाशक्ति को प्रखर बनाया और उन्हें खुद लिखने की प्रेरणा दी।

प्रेमचन्द हिन्दी साहित्य में कथा सम्राट, पत्रकार, नाटककार और एक महान् सम्पादक के रूप में स्थापित है। वे साहित्य को मनोरंजन से ऊपर उठा कर जीवन की गम्भीर समस्यओं और यथार्थ रूप से जोड़ते हैं। उन्होंने अपनी बात जनता तक पहुँचाने के लिए साहित्य को चुना क्योंकि साहित्य ही जीवन की विस्तृत व्याख्या करने और उसे परिवर्तित करने में समर्थ है। उन्होंने अपने लेखन में जो कथानक चुना है, उनका आधार भारतीय नागरिक और ग्रामीण समाज के विविध वर्ग हैं। प्रेमचन्द अपनी लेखनी से हिन्दी साहित्य को उस समय प्रभावित किया जब देश राष्ट्रीय नवजागरण और सुधारवादी मनोवृत्ति से गुज़र रहा था। वे अपनी लेखनी के माध्यम से मध्य और निम्न वर्ग के उन लोगों के स्वर को वाणी दे रहे थे जो सदियों से शोषित और अत्याचार से त्रस्त थे। वे अपने लेखन के माध्यम से साम्राज्यवाद, सामन्तवाद, पूंजीवाद आदि की चुनौती को स्वीकार कर स्थिति को बदलने की कोशिश कर रहे थे। वे समाज की उन समस्याओं को बदलने की कोशिश कर रहे थे जो जड़ पकड़ चुकी थीं और वे अपने इस उद्देश्य में काफी हद तक सफल भी हुए हैं। वह नारी जीवन की विभिन्न समस्याओं जैसे बाल विवाह, दहेज प्रथा, पर्दा प्रथा, विधवा जीवन आदि कई पक्षों पर एक सजग लेखक की दृष्टि से विचार करते हैं। वे नारी जाति के उत्थान को समाज और राष्ट्र के उत्थान के लिए आवश्यक मानते हैं। वे जातिप्रथा, मध्यवर्ग की संकुचित मानसिकता, अशिक्षा, निर्धनता प्रचलित रूढ़ियों, अन्धविश्वास आदि को समाज की प्रगति में बाधक मानते हैं।

प्रेमचन्द जिस समय लिख रहे थे उस समय हमारा समाज कई समस्याओं से जूझ रहा था। एक ओर हमारा देश विदेशी सत्ता से मुक्ति पाने की कोशिश में था, तो वहीं दूसरी ओर हमारा देश लोगों के सामाजिक और धार्मिक जीवन में व्याप्त में व्याप्त विभिन्न समस्याओं से लड़ रहा था। ऐसे समय में प्रेमचन्द ने अपनी लेखनी से समस्याओं की ओर दृष्टिपात् करने के साथ ही साथ उन समस्याओं से मुक्ति पाने के उपाय भी बता रहे थे। 1910-1936 तक का भारतीय इतिहास उनकी लेखनी में आज भी जीवित है। वे उस युग के असहयोग आन्दोलन की पृष्ठभूमि, तत्कालीन जीवन दशा, राष्ट्रीय जागरण व संघर्ष और स्वतन्त्रता की उद्दाम भावना व देश के भविष्य को अपनी कलम से लिख रहे थे। वे तत्कालीन समय के समाज में जाग्रत होने वाली जन चेतना का चित्रण कर रहे थे। वे समाज की सोच व जीवन स्तर दोनों को रूढ़ियों से मुक्त कर प्रगतिशील बनाना चाहते थे। वे देश की जनता को बताते हैं कि जब तक हम व्यक्तिगत रूप से उन्नत नहीं हैं तब तक कोई भी सामाजिक व्यवस्था आगे नहीं बढ़ सकती है। वे सच्चे अर्थों में भारतीय जनता के प्रतिनिधि लेखक के रूप में हमारे सामने आते हैं। वे साहित्य के साथ-साथ समाज के स्रष्टा भी रहे है। साहित्य में प्रेमचन्द का आगमन एक वरदान माना जाता है जो युगान्तकारी परिवर्तन लेकर हमारे सामने आता है। उन्होंने न केवल वर्तमान को लिखा बल्कि युगद्रष्टा होने के नाते कहीं न कहीं देश के भविष्य को भी अपनी लेखनी में उतारा है। उनकी वाणी अपने भविष्य में विश्वास रखनेवाली भारतीय जनता की वाणी हैं, जो आज भी यह कहते हुए सुनाई पड़ रही है। ‘‘यह अंत नहीं है, और आगे बढ़ो जब तक कि कर्मभूमि में विजय न हो, जब तक कि देश का कायाकल्प न हो, जब तक कि इस कर्मभूमि में गबन और गोदान से होरी और रमानाथ का त्रस्त होना बंद न हो और हमारा देश एक नई तरह का सेवा-सदन, एक नई तरह का प्रेमाश्रम न बन जाए।’’2

प्रेमचन्द एक उद्देश्यनिष्ठ साहित्यकार हैं। वे साहित्य को अपने लेखन के माध्यम से एक महान् उद्देश्य से जोड़ते हैं। उनका कथा-साहित्य केवल मनोरंजन की वस्तु नहीं है, वरन् वे सोद्देश्य है और वह उद्देश्य है मानव-मन का परिष्कार करना। उनकी मान्यता थी कि, ‘साहित्यकार का काम केवल पाठकों का मन बहलाना नहीं है, यह तो भाटों और मदारियों, विदूषकों और मसखरों का काम है। साहित्यकार का पद उससे कहीं ऊँचा है। वह हमारा पथ-प्रदर्शक होता है, वह हमारे मनुष्यत्व को जगाता है-हमारे सद्भावों का संचार करता है, हमारी दृष्टि को फैलाता है - कम-से-कम उसका यही उद्देश्य होना चाहिए।’’3 प्रेमचन्द से पूर्व कथा-साहित्य की सर्जना किसी विशेष साहित्यिक लक्ष्य को सामने रखकर नहीं की गई थी। उनमें मनोरंजन की सामग्री जुटाने का ही प्रयास किया गया था। मानव-जीवन की वास्तविकता से उनका कोई संबंध न था। प्रेमचन्द पहले कथाकार थे जो क्रांतिकारी परिवर्तन का महान संदेश लेकर साहित्य में उतरे। उन्होंने ही सर्वप्रथम हिन्दी-उपन्यास में उद्देश्य-पक्ष की महत्ता स्थापित करते हुए उसके विकास की दिशा मोड़ी है। मानव-जीवन से असंबद्ध हिन्दी का उपन्यास-साहित्य प्रेमचन्द का सक्रिय दिशा-निर्देश पाकर जीवन की वास्तविकता की ठोस चट्टान पर आ खड़ा हुआ। मायावी लोकों की परिक्रमा समाप्त हुई, ज़िंदगी के सम-विषम धरातल मिले और उन पर कलम का अधिकार हुआ। वे मानते हैं कि ‘‘वही साहित्य चिरायु हो सकता है जो मनुष्य की मौलिक प्रवृत्तियों पर अवलंबित हो। ईर्ष्या और प्रेम, क्रोध और लोभ, भक्ति और विराग, दुःख और लज्जा, ये सभी हमारी मौलिक प्रवृत्तियाँ हैं, इन्हीं की छटा दिखाना साहित्य का परम उद्देश्य है और बिना उद्देश्य के तो कोई रचना हो नहीं सकती।’’4

अपने समय के समाज के बारे में प्रेमचन्द काफी परिचित थे। छोटे-से-छोटे प्रसंग भी उनकी दृष्टि से ओझल नहीं हुए। वे जानते थे कि एक निष्क्रिय पतन के लिए बिंदु पर खड़ा समाज जागृत होकर किस तरह अपने अतीत और वर्तमान के संकटों के बीच भविष्य के प्रति आशावादी होता है। सामाजिक चेतना के महीन बिंदुओं को उन समाजों के बीच, प्रेमचन्द ने पहचाना था। ऐसे लोगों की कथाओं के वाचक के रूप में प्रेमचन्द उपदेशक, प्रचारक और सुधारक नहीं लगते, वरन् संघर्षशील नागरिक की तरह बीच में उपस्थित होते हैं। ‘गोदान’ में मेहता के आदर्शवाद तथा होरी के संघर्ष के बीच प्रेमचन्द विद्यमान रहते हैं - अर्थात् वे एक लेखक के रूप में और आदमी के रूप में - दोनों रूपों में व्यक्तित्व की गतिमयता के साथ उपस्थित रहते हैं। अपने वर्तमान के यथार्थ, वैचारिक पृष्ठभूमि, सामाजिक संस्कार और विगत सांस्कृतिक कसाव के बीच से प्रेमचन्द ने लेखन के लिए जिस अनुभव को चुना था, वह अनुभव अपने आप में समाज के नवीन संस्कार का एक चयन-आयाम बन जाता है। यह चयन-दृष्टि ही वह कलादृष्टि है, जो प्रेमन्द के यथार्थवादी दृष्टिकोण से जुड़ती है। यह यथार्थ-सत्य ही कला-सत्य के रूप में प्रेमचन्द की रचनाओं में उभरा है।

प्रेमचन्द गरीबी से परिचित थे, गरीब परिवार ही उनका जन्म और जीवन-स्रोत था-अर्थात् वे गरीबी के बीच जीने के आदी थे। अपने इस निजी अनुभव को उन्होंने अपनी रचनाओं में विस्तृत धरातल पर प्रस्तुत किया। वे स्वयं जीवन-भर गरीबी से लड़ते रहे। उनकी रचनाओं में यह लड़ाई बड़े पैमाने पर आकर देश की आज़ादी की लड़ाई में बदल गई। यही प्रेमचन्द के व्यक्तित्व का निर्वैयक्तिता में परिवर्तित होने की प्रक्रिया है। वह रूपांतर प्रेमचन्द के व्यक्तित्व को सांस्कृतिक गरिमा प्रदान करता है। उन्होंने जिस वर्ग के विषय में लेखनी चलाई, अपने व्यक्तित्व की गरिमा के अनुकूल ही उसे अंकित किया। सरकारी नौकरी में रहकर इन्होंने उसके वातावरण का स्वयं अनुभव कर लिया था, अतः अपनी रचनाओं में वे अपने अनुभूत सत्य की सच्ची तस्वीर खींच सके। अपने समय के यथार्थ को चित्रित करने की ‘विलक्षणता’ प्रेमचन्द में विद्यमान थी। वर्ग संघर्ष तथा समान वर्गों की परस्परिक सहानुभूति अंकित कर प्रेमचन्द ने जन-आंदोलन की सुदृढ़ पृष्ठभूमि तैयार की थी। इसमें संदेह नहीं है कि प्रेमचन्द ने अपने समय के जन-मानस की कलात्मक तस्वीर को अपने कथा-साहित्य में चित्रित किया है। जन-मानस की इस तस्वीर के उपकरण घटनाएँ ही नहीं हैं, अपितु घटनाओं के परिप्रेक्ष्य में प्रवाहित वह जीवन भी है, जो अनेक स्तरों पर जीने और मरने के संघर्ष में जूझ रहा है। ग्रामीण जन-समाज है, शहरी जन-समाज और छोटे-छोटे कस्बों की परम्परागत ऊब में व्यक्त वह जीवन है, जो स्वाधीनता की लड़ाई में जाग रहा है। प्रेमचन्द आस्थावादी उपन्यासकार है। अतः वे रंगभूमि में कहते हैं जीवन एक खेल है, इसे खेलो, हारो तो घबराओ नहीं, जीतो तो घमंड में चूर न हो। सूरदास के माध्यम से वे आम पाठकों को संदेश देते है, ‘‘हम हारे तो क्या, मैदान से भागे तो नहीं, रोए तो नहीं, धांधली तो नहीं की। फिर से खेलेंगे, ज़रा दम ले लेने दो, हार-हार कर तुम्हीं से खेलना सीखेंगे और एक न एक दिन हमारी जीत होगी, जरूर होगी।’’5 उन्हें अपने सामाजिक परिवेश का पूरा अनुभव मिला था। निजी जीवन में पारिवारिक विसंगतियाँ, शिक्षा की कठिनाइयाँ, धनाभाव, अव्यस्थित पारिवारिक जीवन के प्रसंग, ‘सोजेवतन’ की जब्ती, नौकरी से परित्याग, राज्याश्रय और राजसम्मान को ठुकराने तथा फिल्मी जीवन के कटु अनुभवों में वह व्यापक धरातल पा लेते हैं। विशेषता यह है कि वे अपनी ही स्थितियों की परिधि में घूमते नहीं रहते, वरन् अपने व्यक्तिगत सन्दर्भ से उठकर विस्तीर्ण प्रसंग से जुड़ने की प्रक्रिया को अपनाते हैं। उनके कथा-साहित्य में समाज के प्रत्येक वर्ग तथा जीवन के प्रत्येक क्षेत्र से पात्रों का चयन हुआ है। उसमें राजा भी हैं और भिखारी भी, पूँजीपति भी हैं और मजदूर भी, नौकरी-पेशा वाले भी हैं और कृषक भी, पंडे-पुजारी भी हैं और कर्मचारी भी, कुलीन भी हैं और अछूत भी। पहली बार प्रेमचन्द ने अपनी रचनाओं के द्वारा विविध प्रसंगों के माध्यम से समाज के उन त्याज्य वर्गों से भी परिचय कराया जो आज दलित विमर्श का विषय बने हुए हैं। प्रेमचन्द की विशेषता रही है कि सर्वागीण जीवन की झाँकी देने के लिए पात्र-बाहुल्य के बीच में कुछ ऐसे पात्रों का सृजन कर देते हैं, जो भीड़ में तुरंत दिखाई पड़ जाते हैं और पाठक के मनः पटल पर अपनी अमिट स्मृति छोड़ जाते हैं। जैसे सेवासदन की ‘सुमन’ रंगभूमि का ‘सूरदास’, गोदान का ‘होरी’। उनके सामाजिक परिवेश के बौद्धिक संस्कार गांधी और मार्क्स के अतिरिक्त भारतीय जन-जीवन से छनकर प्रकट हुए हैं।
हिन्दी-कथा साहित्य में प्रेमचन्द प्रगतिशील दृष्टि के सर्जक हैं। वास्तव में अपने 12 उपन्यासों-प्रेमा, वरदान, प्रतिज्ञा, सेवासदन, प्रेमचन्द प्रेमाश्रम, रंगभूमि, गबन, कर्मभूमि, निर्मला, कायाकल्प, गोदान, मंगलसूत्र(अपूर्ण) और 300 कहानियों में वे मनुष्य और समाज की सदाशयता एवं मंगल भावना के पोषक रहे हैं। विसंगतियों पर प्रहार, सुधार की आशा तथा मानवीय दृष्टिकोण उन्हें सही अर्थों में ‘कलम का सिपाही’ बनाता है। जीवन की वास्तविकता अर्थात् ज़मींदारों, महाजनों के चंगुल से मुक्ति की छटपटाहट लिए किसानों का मूक विद्रोही, नौकरीपेशा मध्यवर्ग की अल्पवेतन में दिखावे की प्रवृत्ति व आत्मरक्षा के लिए आजीवन प्रयास, अन्धसंस्कार, अछूतों की दरिद्रता-तड़प, क्रान्तिकारी देशभक्तों का आक्रोश, मानवीय विश्वासों के विरुद्ध धर्म के नाम पर ढोंग, न्याय के नाम पर नीतिकुशल घूसखोर विचारकों के कुचक्र, विदेशी शासन के दोष- यह सब साहित्य लेखन के विषय बने। अपने समय के ज्ञान-विज्ञान, विचार-दिशाओं से प्रेमचन्द पूरी तरह परिचित मालूम होते हैं। प्रेमचन्द जिस रचना पीढ़ी के लेखक थे, उसके बहुत कम लेखक इतने स्पष्ट तथा प्रखर विचारवाले मिलते हैं। डॉ. रामविलास शर्मा प्रेमचन्द को यथार्थवादी साहित्यकार मानते हुए कहते हैं, ‘‘वह एक यथार्थवादी कलाकार थे। वह जीवन की सच्चाई आँकना चाहते थे, जीवन के भ्रमों का खंडन करना चाहते थे। ‘सेवासदन’ से ‘गोदान’ उन्होंने कथा-साहित्य में यथार्थवाद को इस प्रकार विकसित किया, जिस तरह एक ही साहित्यकार बहुत कम कर पाता है। अपने यथार्थवाद से उन्होंने हिन्दी कथा-साहित्य के लिए वह राज-मार्ग बना दिया है, जिस पर नई पीढ़ी के लेखक निर्भय होकर आगे बढ़ सकते हैं।’’ आम जनता के लेखक होने के कारण उन्होंने आम जनता को समझ उन्हीं की भाषा में अभिव्यक्ति दी। उसमें ओजस्विता का प्रखर प्रकाश है, मार्मिकता की गहरी अनुभूति है, प्राणवान् चित्रात्मकता है, विचार और भावनाओं का स्वभाविक तरंग-प्रवाह है। डॉ. रामविलास शर्मा के शब्दों में- ‘‘प्रेमचन्द शैलीकार न थे, साहित्यकार थे, वह भाषा नहीं लिखते थे, अपनी वेदना लिखते थे। इसी से पंडित के पहले जनता ने उन्हें अपनाया, आचार्य से पहले नागरिक ने उन्हें समझा। उनको प्रत्येक मानव से सहानुभूति थी तथा उन्हीं की भाषा में प्रस्तुत करने में वे सिद्धहस्त थे। प्राणों का उत्सर्ग देकर उन्होंने भाषा और भारत को संस्कार दिया।’’7

निष्कर्षतः कह सकते हैं कि हिन्दी में प्रेमचन्द ही ऐसे समर्थ कथाकार हुए जिनकी वाणी उत्तर भारत से सुदूर दक्षिण क्षेत्रों का स्पर्श करती है। इतना ही नहीं, बल्कि देशकाल की संकुचित परिधि का अतिक्रमण कर इनका साहित्य अन्तर्राष्ट्रीय सीमाओं को लांघ कर विश्व मानवता का आलिंगन करता है, जो एक महान् उपलब्धि है। सीधी, सरल, आम जनता की भाषा में रची उनकी रचनाओं के माध्यम से आम आदमी की समस्याओं को उन्होंने इतनी गहनता एवं सापेक्ष-दृष्टि से पहचाना कि उनका जीवन-दर्शन आज भी प्रासांगिक जान पड़ता है। तभी आ. हजारी प्रसाद द्विवेदी यह कहते हैं- ‘‘प्रेमचन्द के कथा साहित्य के अध्ययन से उत्तर भारत की समस्त जनता के आचार-विचार, भाषा-भाव, आशा-आंकाक्षा, दुःख-सुख, रीति-रिवाजों को जान सकते हैं। झोपडि़यों से महलों, तक, खोमचेवालों, से बैंको तक, गाँव से शहर की रगीनियों तक, अमीरों से कृषकों तक आपको इतने कौशलपूर्वक व प्रमाणिक भाव से अन्य कोई नहीं ले जा सकता। इतनी विविधता अन्यत्र नहीं मिलेगी।’’ वर्षों बीत गए, किन्तु प्रेमचन्द की सधी हुई कलम से निकली उनकी रचनाएँ आज भी हमारे बीच अमर बनी हैं। प्रेमचन्द ने कहा है, ‘‘जनता को उठानेवाला जब मिट जाता है, तभी वह सम्मान पाता है।’’8 इसलिए प्रेमचन्द ने अपने ‘निजत्व’ को इतना खपाया और मिटाया कि वे व्यक्ति से समष्टि बन गए और उनकी रचनाएँ व्यक्ति-कथाएँ न रहकर हर उस समाज की कहानियाँ बन गई, जिनके भीतर मध्यवर्ग, किसान तथा अन्य व्यवसायों के एक घुटन-एक कसमसाहट का अनुभव करते हैं। प्रेमचन्द को किसी एक विचारधारा में बाँधना कठिन जान पड़ता है। कहीं उनमें समाजवादी-साम्यवादी भावना पनपती दिखायी देती है तो कहीं उन पर गाँधीवादी विचारधारा हावी है। प्रेमचन्द साहित्य को जीवन की आलोचना मानते हैं और साहित्य का केन्द्रबिन्दु मानव जीवन को मानते हैं। प्रेमचन्द का साहित्य किसी विदेशीपन से परिचालित या प्रभावित नहीं अपितु विशुद्ध भारतीय संस्कृति की व्यापकता को सहेजे हुए है। सीधी, सरल, आम जनता की भाषा में रची उनकी रचनाओं के माध्यम से आम आदमी की समस्याओं को उन्होंने इतनी गहनता एवं सापेक्ष-दृष्टि से पहचाना कि उनका जीवन-दर्शन आज भी प्रासांगिक जान पड़ता है। निस्संदेह प्रेमचन्द आज भी अपने साहित्य के रूप में हमारे बीच विद्यमान है।

सन्दर्भ:

  1. डॉ. रामविलास शर्मा, प्रेमचन्द, और उनका युग, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2008 पृ. 20
  2. डॉ. रामविलास शर्मा, प्रेमचन्द और उनका युग, पृ. 17
  3. प्रेमचन्द, कुछ विचार, डायमंड केट बुक्स, नई दिल्ली, 2011 पृ. 45
  4. प्रेमचन्द, कुछ विचार, पृ. 9-10
  5. प्रेमचन्द, रंगभूमि, डायमंड पॉकेट बुक्स, नई दिल्ली, 2011 पृ. 45
  6. डॉ. रामविलास शर्मा, प्रेमचन्द और उनका युग, पृ. 150
  7. डॉ.. रामविलास शर्मा, प्रेमचन्द और उनका युग, पृ.155
  8. शिवरानी देवी, प्रेमचन्द घर में, आत्माराम एंड संस, 2006 पृ. 204

सन्तोष विश्नोई, जे.आर.एफ. शोधछात्रा
हिन्दी विभाग, वनस्थली विद्यापीठ, राजस्थान (भारत)

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