समय और मेरे बीच
काव्य साहित्य | कविता सुदर्शन रत्नाकर16 May 2007
मैं उसकी हथेलियाँ थामकर
चला करती थी
लेकिन धीरे-धीरे उसकी गिरफ़्त
मज़बूत होती गई
और मेरी ढीली।
यह एक तकाज़ा था
या एक समझौता
समय और मेरे बीच।
धरती और चन्द्रमा
अपनी रफ़्तार से घूमते रहे,
अपनी- अपनी सीमाओं में ।
सूर्य चमकता रहा,
समय भागता रहा
और मेरी हथेलियाँ
शिथिल होती गईं।
पूर्वजों के लगाए पेड़ की एक शाखा थी,
जिसने और शाखाओं को जन्म दिया
और फिर
उन पर लिपटी लताओं ने मुझे थाम लिया।
अब मेरी शिथिल होती हथेलियों को
मेरी बेटी की मज़बूत हथेलियाँ
थामती हैं;
जिन्हें कभी मैं थामा करती थी
मुझे कोई अफ़सोस नहीं कि
मैं चल नहीं सकती ; क्योंकि
मैं अब अपनी बेटी के पाँव से चलती हूँ
कभी मैं उसकी हथेलियाँ थामकर चलती थी
अब वह मेरी हथेलियाँ थामकर चलती है।
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
कहानी
कविता
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं