अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

समय का क्या कहिये 

कैसा होता है,समझ से बहुत दूर की बात है, 
जब बच्चे थे तो टॉफ़ी, आईसक्रीम, 
खिलौने, घूमने और न जाने कितनी बातों के,   
स्वप्न बुनते थे। 
क्या क्या खाने को ललचाते थे? 
हलुआ,रसोगुल्ला, जलेबी  आदि के नाम से– 
ही लार टपकने लगती थी। 
जाने कितने क्यों, किसे किसके लिये 
फटी सी जेब में लिये घूमते थे, 
हर बात को जानने, समझने की उत्सुकता, 
कितने कितने कौतुहल दबाये फिरते थे।
जाने क्या हो गया? सारे सवाल, 
जवान हुए चंद रुपये कमाने लगे 
तो ज़िम्मेदारियों के चलते 
स्वप्न स्वप्न ही रह गये।
सोचते रहे जब चार पैसे बचा लेंगे 
तो 
कभी जी भर कर केक, पेस्ट्री, पनीर खायेंगे, 
होटल जायेगे,  घूमेंगे, फिरेंगे –  
वक़्त बदला 
रुपये तो हाथ में आ गये, 
पर ये क्या?
अब कुछ रुचिकर लगता ही नहीं,
जाने घूमने के सपने, 
कौन सी आँधी उड़ा ले गई, 
खाने का शौक़ जाने कहाँ हवा हो गया।
ये जो ’जी’  नाम का जीव है–
कहीं लगाने से भी नहीं लगता । 
सब खाना–सोना भी,
एक रस्म अदायगी सा हो गया

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

'जो काल्पनिक कहानी नहीं है' की कथा
|

किंतु यह किसी काल्पनिक कहानी की कथा नहीं…

14 नवंबर बाल दिवस 
|

14 नवंबर आज के दिन। बाल दिवस की स्नेहिल…

16 का अंक
|

16 संस्कार बन्द हो कर रह गये वेद-पुराणों…

16 शृंगार
|

हम मित्रों ने मुफ़्त का ब्यूटी-पार्लर खोलने…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

सामाजिक आलेख

ऐतिहासिक

सांस्कृतिक आलेख

सांस्कृतिक कथा

हास्य-व्यंग्य कविता

स्मृति लेख

कविता

ललित निबन्ध

कहानी

यात्रा-संस्मरण

शोध निबन्ध

रेखाचित्र

बाल साहित्य कहानी

लघुकथा

आप-बीती

वृत्तांत

हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी

बच्चों के मुख से

साहित्यिक आलेख

बाल साहित्य कविता

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं