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समय का परिवर्तन

आज सुबह से ही माँजी की तबियत ठीक नहीं लग रही थी, शायद बुख़ार था, थर्मामीटर लगाया तो बुख़ार ज़्यादा था। उनका कुछ काम करने का मन नहीं कर रहा था पर कोई और था भी तो नहीं करने वाला मेरे अलावा। पति थे नहीं, कहने को तो दो बच्चे पर दोनों दिल्ली में थे, प्रिया दीदी की शादी हो गई थी, स्कूल में पढ़ाती भी थी और राहुल बाबा तो अभी पढ़ाई कर रहे थे।

अकेलेपन में वो अकसर पुरानी यादों में खो जाती थी, जब पूरा परिवार साथ में था। राहुल बाबा तो सभी का प्यारा था, क्यों ना होता; था भी समझदार और ज़िम्मेदार, घर में कुछ भी हो जाये वह सब सँभाल लेता था। घर में सबसे छोटा था पर लगता सबसे बड़ा था, सभी पसन्द करते थे।

इधर प्रिया दीदी उसके विपरीत अपने में मस्त, थोड़ी ज़िददी और किसी की बात न सुनने वाली लड़की थीं। कभी-कभी तो सभी को ग़ुस्सा आता था उसकी ग़ैरज़िम्मेदारी और लापरवाही से परन्तु वो किसी की परवाह नहीं करती थी, बस अपने में ही रहती थी। उससे किसी को कोई उम्मीद भी नहीं होती थी।

फोन की घंटी  बज रही थी, आवाज़ सुन कर वो अपनी यादों से बाहर आ गई। राहुल बाबा का फोन था मुस्करा रही थी, अच्छा लगा कि दिल से उसकी ज़रूरत महसूस हुई और उसका फोन आ गया था। फोन पर तबियत के बारे में बताया तो उसने अगले दिन आने की बात कही और फिर फोन कट गया था। उनके चेहरे पर राहुल के आने ख़ुशी थी और उन्हें सुबह का इंतजार था बस।

अगले दिन सुबह जल्दी उठ वो तैयार हो गईं और मैंने नाश्ता भी तैयार कर दिया; राहुल  बाबा को सुबह जल्दी नाश्ते की आदत जो थी। दरवाज़े की घंटी बजी राहुल के आने की ख़ुशी में वो अपनी तबियत को भूल ही गईं और दरवाज़े की तरफ़ दौड़ लगा दी, जल्दी से दरवाज़ा खोला तो सामने प्रिया दीदी खड़ी थी। उनके चेहरे पर कुछ मिली-जुली सी अनुभूति दिखी, जो थोड़ी अजीब राहुल बाबा के ना दिखने से और थोड़ी ख़ुशी प्रिया दीदी के आने से। वो दोनों अन्दर आ कर सोफ़े पर बैठ गये।

मैंने उनसे कहा, ‘‘आप लोगों के लिये चाय बना के लाती हूँ।" 

प्रिया दीदी ने मुझे रोक कर कहा, “तुम्हारे हाथ की चाय तो माँ रोज़ ही पीती हैं, उनके लिये आज मैं बनाती हूँ।" और राहुल के फोन के बारे में बताने लगी, ‘‘उसे कोई ज़रूरी काम था सो वो नहीं आ सका इसलिये मैंने स्कूल से छुट्टी कर ली और तुम बैठो अब आराम से मैं सब काम देख लूँगी।" कह कर उसने माँजी को सोफ़े पर बिठा दिया और ख़ुद रसोई की तरफ़ चल दी चाय बनाने के लिये।

मैंने माँजी को देखा, वो मुस्कुरा रही थीं, उनकी मुस्कुराहट बहुत ख़ूबसूरत थी। मैं सोच रही थी, ‘‘राहुल बाबा के लिये माँ की तबियत से ज़्यादा ज़रूरी क्या काम हो गया था और कब प्रिया दीदी ने दो परिवारों को सँभालना सीख लिया"। यह समय का परिवर्तन है, जो महसूस भी नहीं हो पाता है और समय के साथ हो जाता है। आज वो भी ख़ुश थीं कि उनकी बेटी अब समझदार हो गई और शायद बेटा भी अब व्यवहारिक हो गया।

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