समय की शिला पर
काव्य साहित्य | कविता सुरेशचन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक'3 May 2012
वह कर्ज ले रहे हैं।
मन्दी में चिकित्सक भी
बीमार हो रहे हैं॥
आदर्श की दुकानें
अब और न चलेंगी।
बुजुर्गों छोड़ो कुर्सी
अब युवा आ रहे हैं॥
अनपढ़ गँवार सा जो
नेता कहा रहे हैं।
जो तैर नहीं पाते
नौका चला रहे हैं॥
जिनपर था नाज हमको
हिंसा बढ़ा रहे हैं।
मैंगलोर में रावण
सीता भगा रहे हैं॥
जैसे आतंक पीछे,
छिपकर खड़ा है ऐसे,
मुँह में लगी कालिख,
दर्पण छिपा रहे हैं॥
आतंक डर दिखाकर
किसको डरा रहे हैं।
वह देश के हैं शत्रु
मुम्बई जला रहे हैं॥
चोर, डाकू अचानक
बन गये हैं जेहादी।
लूट का नया नारा,
कब से चला रहे हैं॥
कैसी दुनिया है यह
स्वतन्त्रता नहीं है।
बरताव एक जैसा
समता जहाँ नहीं है॥
भटके हुए जवानो
अब तो लौट आओ।
अलगाव माउवादी,
जीवन जला रहे हैं॥
मेरी कलाई में जो
कंगना बन गये हैं॥
तुलसी चौरे रचकर
अंगना बन गये हैं॥
अपना जिन्हें बनाया
सपना बन गये हैं।
हैवान इस हृदय में,
इनसान बन रहे हैं॥
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