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समकालीन कवि रघुवीर सहाय की कविता में दलित विमर्श

हिन्दी साहित्य जगत में आधुनिक काल की सीढ़ी पर समकालीन कविता भी विद्यमान है जो अपनी उपस्थिति ज़बरदस्त तरीक़े से दर्ज कराती है। इसका समय सन् 1960 से शुरू होता है, इसे साठोत्तरी कविता के नाम से भी जाना जाता है। समकालीन कविता का क्षेत्र हमारे आस-पास का परिवेश है। आम आदमी की भाषा में कही गयी यह कविता सहज, धारदार एवं प्रभावशाली जान पड़ती है। समय के साथ-साथ चलना इस कविता की विशेषता है। आम आदमी के महत्त्व को स्वीकार करते हुए उसके दुःख दर्द को व्यक्त करने की कोशिश और व्यवस्था का विरोध इस कविता में किया गया है।

चूँकि हर कवि या लेखक अपने आस-पास के परिवेश से प्रभावित व प्रेरित होता है या कहें कि वह भोगे हुए यथार्थ से टक्कर लेकर ही आगे सृजन करता है। इस सन्दर्भ में अगर हम रघुवीर सहाय की बात करें तो ज्ञात होता है कि अज्ञेय द्वारा सम्पादित दूसरे सप्तक के कवियों में सहाय जी व्यक्तित्व के धनी थे जिन्होने महत्वपूर्ण सृजन करते हुए समकालीन कविता के प्रमुख कवियों में अपनी जगह बनायी है। आम आदमी की भाषा में सृजन करना इनकी एक अलग विशेषता है इनकी इसी विशेषता को डॉ. शेरजंग ने प्रमाणित करते हुए कहते हैं कि - "कविता की भाषा को साधारण बोलचाल के निकट ले आना और उसे फिजूल खर्ची से बचाए रखना भी रघुवीर सहाय का शौक रहा है।"1

दलित से तात्पर्य है जिसका दलन या शोषण हुआ हो या जो सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक आदि रूपों से पिछड़ा हुआ हो। आत्महत्या के विरुद्ध कविता संग्रह की कविता "अकाल" में कवि ने सहज व स्वाभाविक दलित महिला की दयनीय स्थिति का चित्रण बहुत सटीक ढंग से किया है जिसे पढ़कर पाठक मन भावुक हो जाता है-

"औरतें बाँधे हुए उरोज
पोटली के अंदर है भूख
आसमानी चट्टानी बोझ
ढो रही है पत्थर की पीठ
लाल मिट्टी लकड़ी ललछौर
दॉत मटमैले इकटक ढीठ"02

मामूली अभावग्रस्त और उपेक्षित जीवन जीने वाली महिलाओं को रेखाँकित करती इन पंक्तियों से यह साफ़ ज़ाहिर होता है कि ग़रीबी से त्रस्त महिलाएँ अपनी शरीर की तनिक भी परवाह न करते हुए किसी भी कार्य को बड़ी तन्मयता से करती हैं।

सहाय जी की कविताओं में जिन नारियों की चर्चा है वे शोषित, पीड़ित और पुरुष पर आश्रित हैं। पुरुष की कामना-आकांक्षा ही नारी की कामना-आकांक्षा बन जाती है। उनके सुन्दर सपने काँच के टुकड़े की तरह बिखर जाते हैं, समाज में आज भी नारी उपेक्षित है, कर्मनिष्ठ नारी को पुरुष के आश्रित कर देना किसी अभिशाप से कम नही है। इस संन्दर्भ में पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं-

"नारी बिचारी
पुरुष की मारी
तन से क्षुधित
मन से मुदित
लपक-झपक
अंत में चित्त"03

कवि की "रामदास" कविता सबसे प्रसिद्ध कविता है जिसमें मामूली और ईमानदार आदमी की चर्चा बड़ी मार्मिक ढंग से की गयी है। इस कविता में कवि व्यक्ति व समाज की कायरता एवं स्वार्थपरता को सामने लाया है। रामदास हमारे समाज का प्रतीक है-

"चौड़ी सड़क गली पतली थी
दिन का समय घनी बदली थी
रामदास उस दिन उदास था
अंत समय आ गया पास था
उसे बता यह दिया गया था, उसकी हत्या होगी।"04

दलितों की व्यथा को व्यक्त करती इस कविता में यह बताया गया है कि वर्तमान समय की परिस्थितियॉ बड़ी क्रूर हैं। सामान्य जन भयपूर्वक जीवन बीता रहा है क्योंकि उसे डर है कि कहीं कुछ घटित न हो जाए।

नेताओं के खोखले वायदे का ज़िक्र भी कवि ने सजगता से निर्भय होकर किया है। काग़ज़ों में सिमटे झूठे नेताओं के वायदे को कवि ने "एक अधेड़ भारतीय आत्मा" में इस ढंग से बताया है-

"बीस साल
धोखा दिया गया
वहीं मुझे फिर कहा जायेगा विश्वास करने को
पूछेगा संसद में भोलाभाला मंत्री
मामला बताओ हम कार्रवाई करेंगे"05

तत्कालीन समय में लिखी यह कविता वर्तमान समय में भी अत्यन्त प्रासंगिक है। नेताओं के बड़बोलेपन और लालच देकर वोट पाने की होड़ में सिर्फ दलित वर्ग ही उनके चंगुल में फँसता है। शराब, मांस और साड़ी बाँटकर नेतागण वोट पाने के लिए तरह-तरह के हथकंडे अपनाते हैं ताकि विजय होकर वे सरकार के पैसे को डकार सकें।

दलित सब काम करने में सक्षम है, सभी समस्याओं से लोहा लेने में तत्पर हैं, परंतु देश, राज्य की गड़बड़ राजनीति ने उनके विकास के अवसर से उन्हें वंचित रखा है। ये दलित जब अपनी आवाज़ उठाते हैं तो भी इनकी आवाज़ों को अनसुना कर दिया जाता है। एक अधेड़ भारतीय आत्मा से निम्नलिखित पंक्तियाँ इस बात की गवाह हैं-

"बाँध में दरार
पाखंड वक्तव्य में
घटतौल न्याय में
मिलावट दवाई में
नीति में टोटका
अहंकार भाषण में
आचरण में खोट हर हफ्ते मैंने विरोध किया।"06

देश में फैली अव्यवस्था, मलिन राजनीति, स्वार्थलोलुप नेताओं की मीठी ज़ुबानी से शोषित वर्ग जीवन रूपी कठिन चक्की में अपना एक-एक दिन गिनकर गुज़ार रहा है। दलितों के स्वर से स्वर मिलाती कवि की "अपने आप और बेकार" कविता प्रस्तुत है-

"लोग लोग लोग चारों तरफ हैं मार तमाम लोग
खुश और असहाय
उनके बीच में सहता हूँ
उनका दुख
अपने आप और बेकार" 07

आम आदमी के कवि रूप में प्रतिष्ठित या हम कह सकते हैं कि लोक कवि सहाय जी की कविताओं में मामूली, उपेक्षित और अभावग्रस्त लोगों की पीड़ा है। वे इन उपेक्षित लोगों को ऊपर उठाकर उनका भविष्य उज्जवल करना चाहते थे। शोषण के चित्र को कवि ने इन पंक्तियों में व्यक्त किया है-

"निर्धन जनता का शोषण है
कह कर आप हँसे
लोकतंत्र का अंतिम क्षण है
कह कर आप हँसे
सब के सब भ्रष्टाचारी
कह कर आप हँसे"08

सहाय जी की कविता में जो दलित विमर्श की चर्चा की गयी है वह दलित ज़िंदा रहकर भी मृतक के समान है, या हम कहें कि वह मरता नही उसकी हत्या हो जाती है। कवि की कविता में इस तरह क़दम-क़दम पर रोज थोड़ा-थोड़ा मरने आदमी की पीड़ा प्रतिबिम्बित हो रही है-

"रोज-रोज थोड़ा थोड़ा मरते हुए लोगों का झुण्ड
तिल-तिल खिसकता है शहर की तरह
फरमाइशी सम्भोग में सुनो एक उखड़ी साँस की
साँय-साँय, इस महान देश में क्या करें, कहाँ जायें
घबराते लड़के गदराती औरत लेकर।09

उपरोक्त पंक्तियों में यह स्पष्ट है कि आदमी की अभिलाषा और उसकी स्वाधीनता एक चट्टान के नीचे दबी छटपटा रही है। ज्यों ही वह अपनी स्वाधीनता की बात करने की कोशिश करता है उसका क़त्ल कर दिया जाता है।

यह बात पूर्णतया सत्य है कि आज भी ईमानदार आदमी अकेला महसूस कर रहा है, या हम कहें कि वह आदमी से एक दर्जा नीचे रहने का दर्द झेल रहा हैं। इस दर्द को कवि ने बडी आत्मीयता से महसूस किया है-

"निष्कासित होते हुए मैंने उसे देखा था
जयपुर-अधिवेशन जब समेटा जा रहा था
जो मजदूर लगे हुए थे कुर्सी ढोने में
उन्होंने देखा एक कोने में बैठा है
अजय अपमानित
वह उसे छोड़ गये
कुर्सी में सन्नाटा छा गया।"10

सहाय जी की कविताओं में दलित विमर्श के रूप में उपेक्षित नारी, लड़की, बेटी, औरत अर्थात महिला वर्ग कि चर्चा कविता के माध्यम से बहुतायत में है इसका कारण है महिलाओं को उनकी उन्नति के लिए अवसर प्रदान न करना इस कारण कवि इन्हें ऊपर उठाना चाहते हैं और कविता में इन्हे उचित स्थान देते हैं। "मेरी बेटी" शीर्षक कविता इस हेतु प्रशंसनीय है-

"दुबली थकी हारी एक छोकरी काम पर जाती थी
दूर से मैंने उसे आते हुए देखा
पर जितनी देर में मैंने पहचाना वह मेरी ही बेटी थी
उतनी ही देर में कितनी बदल गयी।11

निर्धन व लाचार बेबस जनता जो निष्क्रिय पड़ी है, उन्हें देखकर कवि मन चिंतित हो जाता है वे कहते हैं कि तमाम लोग जो देश में फैलती अव्यवस्था के ख़िलाफ़ जब अपनी आवाज़ उठाना नहीं चाहते, अपने शोषकों से लोहा ले नहीं सकते तो आख़िर ये तमाम लोग करते क्या हैं, शायद ये लोग-कवि के शब्दों में-

"सभी लुजलुजे हैं
मोलतोल करते हैं, हिचकिचाते है, मुकर जाते हैं.
ऐंठते हैं बिछ जाते हैं
तपाक से मिलते हैं, कतरा जाते हैं
बीड़ा उठाते बरा जाते हैं
सभी लुजलुजे हैं
गिजगिज हैं, गिलगिल हैं।"12

इस तरह हम देखते हैं कि रघुवीर सहाय जी की कविताओं में दलित विमर्श की चर्चा सटीक, सहज व आमजन की भाषा में की गयी है वे दलित वर्ग के जीवन मूल्यों के लिए सतत् संघर्ष करते रहे हैं। उनकी कविताओं में यह पीड़ा साफ़-साफ़ प्रतिबिम्बित होती है। कविता के माध्यम से कवि जनकल्याण की बात करते हैं।

शोधार्थी
आशीष कुमार गुप्ता
इंदिरा कला संगीत विश्वविद्यालय,
खैरागढ़ (छ.ग.)
मो.न. 9753022339

संदर्भ

1. गर्ग डॉ. शेरजंग - स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी कविता में व्यंग्य, पृ. 329
2. सहाय रघुवीर - आत्महत्या के विरुद्ध, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, पहला संस्करणः 1967, पृ. 23
3. सहाय रघुवीर - सीढ़ियों पर धूप में, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, प्रथम संस्करणः 1960,पृ. 135
4. शर्मा सुरेश - रघुवीर सहाय का कविकर्म, पृ. 108
5. सहाय रघुवीर - आत्महत्या के विरुद्ध, पृ. 95
6. सहाय रघुवीर - आत्महत्या के विरुद्ध, पृ. 93
7. सहाय रघुवीर - आत्महत्या के विरुद्ध, पृ. 19
8. च्ंादेला डॉ. लक्ष्मीकान्त - समकालीन कविता में प्रतीकों की प्रासंगिकता, ए. के. पब्लिकेशन्स, शहदरा दिल्ली, संस्करणः 2014, पृ.10
9. सहाय रघुवीर - आत्महत्या के विरुद्ध, पृ.55
10. सहाय रघुवीर - आत्महत्या के विरुद्ध, पृ.31
11. सहाय रघुवीर - कुछ पत्ते कुछ चिट्ठियाँ, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, पहला संस्करणः 1989 पृ. 36
12. सहाय रघुवीर - सीढ़ियों पर धूप में, पृ. 108

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