अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

समकालीन चुनौतियों और विडंबनाओं से मुठभेड़

पुस्तक : समकाल से मुठभेड़, 
लेखक : ऋषभदेव शर्मा, 
प्रकाशक : परिलेख प्रकाशन, नजीबाबाद-246763, 
प्रथम संस्करण : 2019 

समाचार पत्रों के 'संपादकीय' समसामयिक और कालांकित होते हैं। कुछ समय बाद उनके पुनःपाठ की ज़रूरत या गुंजाइश नहीं होती। लेकिन ऋषभदेव शर्मा रचित 'समकाल से मुठभेड़' (2019) में संकलित संपादकीय टिप्पणियाँ कुछ अलग प्रकृति की हैं। इनमें उठाए गए मुद्दे आज भी जीवंत हैं। एक प्रतिष्ठित समाचार पत्र में फरवरी 2019 से लेकर अगस्त 2019 के बीच 'संपादकीय' के रूप में छपी उनकी दैनिक टिप्पणियों में से कुछ को इस कृति में संगृहीत और समायोजित किया गया है। आठ खंडों में व्यवस्थित इस कृति में एक ओर 'मानवाधिकार की पुकार',  'वैश्विक तनाव और अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद' तथा 'अफगान समस्या' पर विचार किया गया है, तो दूसरी ओर 'स्त्री प्रश्न' और 'पार्क चलित्तर' को उजागर करने वाली टिप्पणियाँ भी हैं। 'हरित विमर्श' में पर्यावरण-चिंता केंद्रस्थ है और 'खिचड़ी विमर्श' में शेष टिप्पणियाँ समाहित हैं। स्पष्ट है कि 'समकाल से मुठभेड़' की रेंज बहुत व्यापक है, अधिकतर समकालीन चुनौतियाँ और विडंबनाएँ इसमें सहेजी गई हैं।

दैनिक समाचार पत्र की संपादकीय टिप्पणियाँ होते हुए भी इनमें सनसनीखेज पत्रकारिता का  मनोभाव नहीं है, प्रायः एक सकारात्मक विज़न आश्वस्त करता है। 'पल पल खराब होती हवाएँ' में लेखक की चिंता का समापन इस संभावना के साथ हुआ है कि 'उम्मीद की ही जा सकती है कि राजनीतिक दलों की आपसी मारकाट में हवाओं का शिकार नहीं किया जाएगा।'  'पानी पर हिंसक तकरार!' के समापन-चरण में उम्मीद के साथ यह आह्वान भी है कि 'हर घर तक शुद्ध पानी पहुँचाने के संकल्प को साकार करने का समय आ गया है।' 'आसान नहीं होगी स्थायी सदस्यता' में संयुक्त राष्ट्र को निष्प्रभावी होने से बचाने का संदेश है और 'वैराग्य एक अभिनेत्री का'  में कट्टरता को हर हाल में अस्वीकार्य बताया गया है। 'ये बचपन को बंदूक थमाने वाले' में स्पष्ट सकारात्मक संकेत है कि संयुक्त राष्ट्र की बच्चों को युद्ध के दौरान सुरक्षा और संरक्षण की अपील के साथ लेखक सहमत है। 'जाएँ तो जाएँ कहाँ छोड़ कर जंगल?' में वह आदिवासी और वनवासी परिवारों के साथ है और सर्वोच्च न्यायालय के आदेश पर प्रश्नचिह्न लगाता है।

इस कृति में जहाँ समय और परिवेश की प्रामाणिकता है, वहीं मानवीय मूल्यों की पक्षधरता भी ध्यान आकर्षित करती है। 'चमकी : असफलता बनाम आपदा' में गरीब से गरीब आदमी की हित-चिंता है, उसे जन-स्वास्थ्य सुविधाएँ देने पर जोर है। 'खाड़ी में युद्ध के बादल : काश, न बरसें'  में युद्ध जैसी हिंसक और मनुष्यता विरोधी विभीषिका का विरोध हुआ है। घातक हथियारों की अंधी दौड़ की भर्त्सना 'चौधराहट के वास्ते कुछ भी करेंगे?' में हुई है। 'स्त्री प्रश्न' में कुप्रथाओं को हटाकर स्त्री-मुक्ति का आह्वान दबा ढका नहीं है। 'और अब बुर्का सियासत' में साफ-साफ स्त्री की आजादी का समर्थन है। तीन तलाक की स्त्री विरोधी प्रथा को भी इसीलिए लेखक कायम रखने के पक्ष में नहीं है।  हर अवमूल्य और अनीति पर लेखक की सीधी नजर है। चाहे राष्ट्रपति ट्रंप का कथित झूठ हो या रेव पार्टी की नशाखोरी हो या बच्चियों का यौन शोषण, सबका प्रबल प्रतिवाद इन रचनाओं में है।

समय और परिवेश की प्रामाणिकता के साथ बेबाक निर्भीकता ने इन रचनाओं को प्रतिरोध की ऊर्जा और सौंदर्य की दीप्ति दी है।  'क्यों चुप है सारा मुस्लिम जगत?' में चीन के उइगर मुसलमानों पर अत्याचार को देखकर इस्लामी बिरादरी की चुप्पी पर प्रहार किया गया है। प्रेस की आजादी का समर्थन करते हुए भी प्रेस के अंतर्विरोधों को नहीं बख्शा गया है - 'प्रेस भी कोई दूध की धूली नहीं है, और इसीलिए तोप के मुहाने पर होते हुए भी जनता की चिंता का विषय नहीं होती'। 'और अब बुर्का सियासत' में जावेद अख्तर को आड़े हाथों लिया गया है - 'फिल्मी गीतकार न हुए अलाउद्दीन खिलजी हो गए'। बहुत सधी हुई भाषा में व्यंग्य बहुत सी रचनाओं को बेधक और सहज ग्राह्य बना गया है। पहली ही रचना में व्यंग्य की मार द्रष्टव्य है-  'क्योंकि विजिबिलिटी इतनी कम हो जाती है कि गंतव्य के स्थान पर 'अंतिम गंतव्य' पर पहुँचने की संभावना अधिक रहती है'। 'गलती विधायक से हो गई' शीर्षक रचना पूरी की पूरी व्यंग्यात्मक तेवर में है। व्यंग्य की उपस्थिति ने इन संपादकीय टिप्पणियों को पठनीय बनाया है और विचारणीय भी। 
      

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

पुस्तक समीक्षा

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं